द्वंद्व युद्ध - 21.2

द्वंद्व युद्ध - 21.2

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नज़ान्स्की ने दयनीयता से, लंबी साँस लेते हुए सिर हिलाया और नीचे झुका लिया। नाव सरकंडों के बीच में पहुँच गई थी। रमाशोव ने फिर से चप्पू संभाल लिए। लम्बे, हरे, कड़े डंठल, नाव से घिसटते हुए, सम्मानपूर्वक धीरे धीरे झुक रहे थे। खुले पानी के मुक़ाबले यहाँ कुछ ज़्यादा अंधेरा और ठंडक थी।

 “तो मुझे क्या करना चाहिए ?” रमाशोव ने उदासी और रुखाई से पूछा, “रिज़र्व में चला जाऊँ ? मैं कहाँ जाऊँगा ?”

नज़ान्स्की ने संक्षिप्त, प्यारी सी मुस्कुराहट बिखेरी, “रुको, रमाशोव। मेरी आँखों में देखो। ये, ऐसे नहीं, आप मुँह न मोड़िये; सीधे सीधे देखिए और बेदाग़ अंतरात्मा से जवाब दीजिए। क्या आप इस बात में यक़ीन करते हैं कि आप एक दिलचस्प, अच्छे, उपयोगी काम के लिए सेवा कर रहे हैं ? मैं आपको अच्छी तरह जानता हूँ; दूसरे सब लोगों से बेहतर और मैं आपकी आत्मा को महसूस कर सकता हूँ। आप बिल्कुल भी इस बात में विश्वास नहीं करते हैं।”

 “नहीं,” रमाशोव ने दृढ़ता से जवाब दिया। “मगर, मैं जाऊँगा कहाँ ?”

 “ठहरिए, जल्दी मत मचाइये। आप हमारे अफ़सरों की ओर देखिये। ओह, मैं गारद के अफ़सरों की बात नहीं कर रहा, जो बॉल डान्स के आयोजनों में नृत्य करते हैं; फ्रांसीसी बोलते हैं, और अपने माँ-बाप और क़ानूनी बीबियों के पैसों पर गुलछर्रे उड़ाते हैं। नहीं, आप हमारे बारे में सोचिए; अभागे रंगरूटों के बारे में; पैदल सेना के बारे में; बेहतरीन और बहादुर रूसी सेना के प्रमुख केन्द्र के बारे में – ये सब सड़ा हुआ, फटा-पुराना, बचा-खुचा, कचरा माल है। हद से हद – अंग भंग हुए कैप्टनों के बेटे हैं। ज़्यादातर तो – बुद्धिमत्ता से डरने वाले, स्कूल पूरा कर चुके बच्चे, वास्तववादी; सेमिनरी पूरी न करने वाले भी हैं। मिसाल के तौर पर हमारी कम्पनी को ही लो। कौन सब से अच्छी तरह से, और सबसे ज़्यादा समय तक नौकरी करता है ? ग़रीब, परिवारों के जुए तले दबे, भिखारी; हर तरह के समझौते के लिए, हर क्रूरता के लिए, हत्या के लिए, सिपाहियों के पैसों की चोरी करने के लिए भी तैयार; और यह सब सिर्फ अपनी रोजी रोटी के लिए। उसे हुक्म दिया जाता है: फ़ायर !-और वह गोली मारता है, -किसे ? किसलिए ? शायद, यूँ ही ? उसके लिए सब एक समान है, वह तर्क नहीं करता। वह जानता है कि घर पर रिरिया रहे हैं उसके गन्दे, सूखा-रोग से पीड़ित बच्चे; और वह बिना सोचे-समझे, कठफोड़े की तरह, आँखें निकाले, हथौड़े की तरह बस एक ही शब्द खटखटाता जाता है : ‘शपथ !’ उसका सारा हुनर, सारी विशेषता शराब के नशे में डूब जाते हैं। हमारे ऑफ़िसर्स में से 75% बीमार हैं सिफ़लिस से। कोई एक ख़ुशनसीब – और ये होता है पाँच साल में एक बार – अकादेमी में प्रवेश पाता है; उसे बिदा दी जाती है नफ़रत से। ज़्यादा चिकने-चुपड़े और जिन्हें किसी का संरक्षण प्राप्त है, ऐसे लोग सुरक्षा-संतरी बन जाते हैं, या किसी बड़े शहर में पुलिस की नौकरी के सपने देखते हैं। कुलीन; वे भी जिनके पास छोटी-मोटी जागीर है, ज़ेम्स्त्वो (स्थानीय प्रशासन) में अधिकारी बन जाते हैं। यह मान लो कि केवल संवेदनशील, दिल वाले व्यक्ति ही बच जाते हैं, मगर वे करते क्या हैं ? उनके लिए फ़ौजी सेवा – ये बस तिरस्कार योग्य काम है, बोझ है, घृणित जुआ है। हर कोई अपने लिए कोई और दिलचस्प काम ढूँढ़ने की कोशिश में लगा रहता है, जो उसे पूरी तरह मशग़ूल रखे। कोई चीज़ों का संग्रह करने लगता है, कई लोग बेसब्री से शाम का इंतज़ार करते हैं जब घर में, लैम्प के निकट बैठकर, हाथ में सुई लें और कोई छोटा मोटा कार्पेट बुनें या अपनी तस्वीर के लिए कोई फोटो-फ्रेम बनाएँ। नौकरी करते समय वह इसके बारे में ऐसे सोचते हैं, जैसे कोई रहस्यमय, मीठा-मीठा आनन्द हो। ताश, औरतों को हासिल करने का कोई शेखीभरा खेल – इसके बारे में तो मैं बात ही नहीं कर रहा। सबसे ज़्यादा घृणित है फ़ौजी की प्रसिद्धी की महत्वाकांक्षा; ओछी, क्रूर महत्वाकांक्षा। ये – असाद्ची और उसका गुट, जो अपने सिपाहियों की आँखें और दाँत निकाल देते हैं। जानते हैं, मेरे सामने अर्चाकोव्स्की ने अपने अर्दली को इतनी बुरी तरह से पीटा कि मुझे ज़बर्दस्ती उसे छुड़ाना पड़ा। फिर न केवल दीवारों पर, बल्कि छत पर भी ख़ून दिखाई दिया। और, जानना चाहते हैं, ये सब कैसे ख़त्म हुआ ? ऐसे, कि अर्दली रेजिमेंट कमांडर के पास शिकायत करने पहुँचा, और रेजिमेंट कमांडर ने उसे चिट्ठी लेकर कम्पनी के अंडर-ऑफ़िसर के पास भेजा; और अंडर-ऑफ़िसर ने उसके नीले, सूजे, ख़ून से लथपथ चेहरे पर और आधे घंटे तक मारा। इस सिपाही ने दो बार इन्स्पेक्शन के समय फ़रियाद भी की थी, मगर कोई नतीजा नहीं निकला।”

नज़ान्स्की चुप हो गया और मानसिक तनाव से अपनी हथेलियों से कनपटियाँ खुजाने लगा।

 “ठहरिए, आह, ख़याल कैसे भाग रहे हैं।” उसने परेशानी से कहा। “कितनी बुरी बात है, जब आप ख़यालों पर क़ाबू नहीं करते हो, बल्कि वे आपको चलाने लगते हैं।हाँ, याद आया ! अब आगे। आप बाकी के अफसरों की ओर भी नज़र डालिए। वो, मिसाल के तौर पर, स्टाफ-कैप्टेन प्लाव्स्की। न जाने खाता क्या है – अपने केरोसिन स्टोव पर ख़ुद ही न जाने क्या पकाता है, क़रीब-क़रीब चीथड़े पहनता है, मगर अपनी 48रुबल्स की तनख़्वाह में से हर महीने 25 रुबल्स बचा लेता है। ओ हो हो ! उसके पास बैंक में क़रीब दो हज़ार पड़े हैं, और, वह चुपके से अपने साथियों को ख़तरनाक सूद पर उधार देता है। क्या आप सोचते हैं कि ये उसकी जन्मजात कंजूसी है ? नहीं, नहीं; ये सिर्फ एक बहाना है बोझिल और समझ में न आने वाली बेमतलब की फ़ौजी सेवा से दूर भागने का। कैप्टेन स्तेल्कोव्स्की – अक्लमन्द, ताक़तवर, बहादुर आदमी है मगर उसके जीवन का सारांश क्या है ? वह कच्ची उम्र की किसानों की लड़कियों को फुसलाता है। आख़िर में आप लेफ्टिनेंट-कर्नल ब्रेम को ही लीजिए। प्यारा, बढ़िया जीनियस है, सबसे भला इन्सान – बस, शानदार – और वह, बस अपने पशुघर की देखभाल में ही अपने आपको व्यस्त रखता है। उसके लिए फ़ौजी सेवा, परेड, ध्वज, सज़ा, सम्मान।।।इस सब का क्या मतलब है ? ओछी, अनावश्यक चीज़ें हैं ज़िन्दगी की।”

 “ब्रेम – जीनियस है, मुझे वह अच्छा लगता है,” रमाशोव ने पुश्ती जोड़ी।

 “ठीक है, ठीक है; बेशक वह बड़ा प्यारा इन्सान है,” नज़ान्स्की ने अलसाए ढंग से सहमति दर्शाई। “मगर, जानते हैं,” उसने अचानक नाक-भौंह सिकोड़ते हुए कहा, “जानते हैं, कैसी हरकत करते देखा मैंने उसे प्रैक्टिस के समय ? रात की शिफ्ट के बाद हम ‘अटैक’ की प्रैक्टिस कर रहे थे। हम सब उस समय तक बेहाल हो चुके थे, थक चुके थे, सब उखड़े-उखड़े से थे: क्या ऑफिसर्स, क्या सिपाही। ब्रेम ने बिगुल बजाने वाले को ‘अटैक’ की धुन बजाने की आज्ञा दी; मगर वह, ख़ुदा ही जाने क्यों, ‘रिज़र्व’ की धुन बजाने लगा। एक बार, दूसरी बार, तीसरी बार भी वही। और अचानक यही – प्यारा, भला, जीनियस ब्रेम घोड़ा दौड़ाता हुआ बिगुल वादक के पास आया, जो मुँह में बिगुल पकड़े था, और पूरी ताक़त से उसने बिगुल पर मुट्ठी से वार किया ! हाँ। और मैंने ख़ुद ने भी देखा कि कैसे बिगुलवादक खून के साथ साथ उखड़े हुए दाँत भी बाहर थूक रहा है।

 “आह, हे भगवान !” घृणा से रमाशोव कराहा।

 “ वे सब ऐसे ही हैं, सबसे अच्छे भी, नर्म दिल भी, बढ़िया बाप और ध्यान रखने वाले पति – सब के सब फ़ौजी सेवा में निकृष्ट, डरपोक, कटु, बेवकूफ़ जानवर बन जाते हैं। आप पूछेंगे, क्यों ? वो इसलिए कि उनमें से किसी को भी फौजी सेवा पर भरोसा नहीं है और इन्हें इस सेवा का कोई तर्कसंगत उद्देश्य नहीं दिखाई देता। आप तो जानते ही हैं कि बच्चे कैसे ‘लड़ाई’ का खेल खेलना पसन्द करते हैं ? इतिहास में भी जोशीले बचपन का एक वक़्त था; ये वक़्त था जोशीली और प्रसन्नचित्त नौजवान पीढ़ियों का। तब लोग अपने अपने आज़ाद गुट बनाकर चला करते थे, और युद्ध सब के लिए एक नशीली खुशी जैसा, ख़ूनी और बहादुरी भरा दिल बहलाव का साधन था। सबसे बहादुर, सबसे ताक़तवर और सबसे चालाक व्यक्ति ही नेता चुना जाता था, और उसका शासन, जब तक कि अधीनस्थ लोग उसे मार नहीं डालते, सबके लिए ईश्वर की आज्ञा के समान था। मगर धीरे धीरे मानव का विकास होता गया और हर साल वह अधिकाधिक बुद्धिमान होता रहा, और बचकाने शोर गुल भरे खेलों के स्थान पर उसके विचार दिन प्रतिदिन अधिक संजीदा, अधिक गहरे होते जाते हैं। निडर साहसी ताश के खेल में माहिर होते गए, सिपाही अब फ़ौजी सेवा में इसलिए नहीं जाता कि वह ख़ुशी देने वाला और हिंस्त्र व्यवसाय है। नहीं, उसे गर्दन में कमन्द फेंक कर फँसाया जाता है, और वह प्रतिकार करता है, बददुआएँ देता है, रोता है। और भयंकर, आकर्षक, निर्दय और सम्माननीय योद्धाओं के तबके के प्रमुख सरकारी कर्मचारी बन गए हैं, जो अपनी छोटी सी आमदनी के सहारे कायरता से जीते हैं। उनकी बहादुरी – सीलन भरी बहादुरी है। और फ़ौजी अनुशासन भय उत्पन्न करने वाला अनुशासन है, जो परस्पर नफ़रत की सीमारेखा है। ख़ूबसूरत 'फ़ज़ान *(चेड़-पक्षी) बदरंग हो गए हैं। सिर्फ एक मिलता जुलता उदाहरण मुझे पता है। मानवता के इतिहास में ये – मॉन्क्स का जीवन है। इसका आरंभ शांतिपूर्ण, सुन्दर और दिल को छू लेने वाला था। हो सकता है

– किसे मालूम – कि वह दुनिया की आवश्यकता के फलस्वरूप निर्मित हुआ हो ? मगर सदियाँ बीतीं, और हम क्या देखते हैं ? सैकड़ों, हज़ारों निठल्ले, भ्रष्टाचारी, तन्दुरुस्त आलसी,; जिनसे वे भी नफ़रत करते हैं, जिन्हें समय समय पर नैतिक, आत्मिक दृष्टि से उनकी ज़रूरत पड़ती है। और यह सब एक – जाति के बहुरुपिया चिह्नों, हास्यास्पद, धुँधलाते रीति-रिवाजों के बाह्य-आवरण से ढँका रहता है। नहीं, मैंने मॉन्क्स की बात बेकार ही में नहीं की है, और मैं ख़ुश हूँ कि मेरी उपमा तर्कसंगत है। सोचिए, सिर्फ इतना सोचिए, कितनी समानता है। वहाँ – चोगा और धूपदानी है, यहाँ – ट्यूनिक और गरजता हथियार; वहाँ – शांति, कृत्रिम आहें, मीठा भाषण, यहाँ – बढ़ा चढ़ाकर चित्रित बहादुरी, घमंडी सम्मान, जो पूरे समय आँखों की हलचल से प्रकट होता है : “और, यदि अचानक कोई मेरा अपमान कर दे तो ?” बाहर को निकले सीने, खिंची हुई कोहनियाँ, उठे हुए कंधे। दोनों ही, ये भी, और वो भी, परजीवी की भाँति जीते हैं और जानते हैं; अपने दिल की गहराई से जानते हैं, मगर उनकी बुद्धि इसे स्वीकार करने से डरती है, और, ख़ास बात, पेट। और वे मोटी मोटी जुँओं जैसे हैं, जो दूसरे के शरीर पर जी भर के पलती हैं, जैसे जैसे उसका विघटन होने लगता है। नज़ान्स्की ने कटुता से नाक से फुत्कार किया और ख़ामोश हो गया।

 “बोलिये, बोलिये,” रमाशोव ने विनती करते हुए कहा।

 “हाँ, एक समय आएगा, और वह देहलीज़ पर ही खड़ा है। समय होगा महान निराशाओं का और भयानक पुनर्मूल्यांकन का। याद रखिए, मैंने आपसे कभी कहा था कि सदियों से मानवीयता का एक अदृश्य और निर्मम प्रेरणा स्त्रोत अस्तित्व में है। उसके नियम एकदम सही और क्षमायाचनाओं से परे हैं। और जैसे जैसे मानवता अधिकाधिक बुद्धिमान होती जाती है, उतनी ही अधिक एवम् गहराई से वह उसमें पैंठता जाता है। और मुझे विश्वास है कि इन निर्विवाद नियमों के अनुसार दुनिया की हर चीज़ देर-सबेर संतुलित हो जाएगी। यदि दासता सदियों तक विद्यमान रही तो उसका विघटन भयानक होगा। अत्याचार जितना भयानक था, उसका प्रतिशोध उतना ही खूनी होगा। और मुझे गहरा, दृढ़ विश्वास है कि वह समय आयेगा, जब हमारे सर्वविदित ख़ूबसूरत लोगों पर, ज़बर्दस्त फुसलाने वालों पर, महान छैलों पर महिलाओं को शर्म आने लगेगी और, आख़िरकार, सिपाही हमारी आज्ञा मानना बन्द कर देंगे। और ऐसा इसलिए नहीं होगा, क्योंकि हमने ऐसे लोगों को खून निकलने तक मारा, जो स्वयँ को बचाने की संभावना से महरूम थे; और इसलिए भी नहीं होगा क्योंकि हमें, ट्यूनिक के सम्मान की ख़ातिर, बिना सज़ा पाए औरतों का अपमान करने का अधिकार था; और न इसलिए होगा कि हम, नशे में धुत होकर, शराबखाने में हमारे सामने आने वाले हरेक का तलवारों से खीमा बना दिया करते थे। बेशक, इसके लिए भी, और उसके लिए भी; मगर कहीं ज़्यादा भयानक और न सुधारा जाने वाला अपराध भी है। ये वो है कि हम – अंधे और बहरे हैं – हर चीज़ के प्रति। बहुत पहले से, हमारी गन्दी, बदबूदार छावनियों से कहीं दूर; एक विशाल, नए, प्रकाशमान जीवन का निर्माण हो रहा है। नए, बहादुर, स्वाभिमानी लोग प्रकट हो चुके हैं, उनके मस्तिष्क में जाज्वल्यमान स्वतंत्रता के विचार धधक रहे हैं। शोकांतिका के अंतिम अंक के समान पुराने बुर्ज और तहख़ाने ढह रहे हैं और उनके पीछे से, अभी से दिखाई दे रहा है चकाचौंध करने वाला प्रकाश। और हम, बुरा मुँह बनाए, टर्की जैसे, सिर्फ आँखें झपकाते हैं और धृष्ठता से गुर्राते हैं, “क्या ? कहाँ ? ख़ामोश ! आंदोलन ! गोली मार दूँगा !” और इसी मानवीय आत्मा की आज़ादी के प्रति टर्की जैसे संदेह के लिए हमें कभी माफ़ नहीं किया जाएगा – कभी भी नहीं।”

नौका ख़ामोश, रहस्यमय पानी के उथले स्थान पर आ गई। उसे चारों ओर से ऊँचे ऊँचे, निश्चल सरकंडों की गोल, घनी, हरी दीवार ने दबोच लिया। नाव मानो पूरी दुनिया से काट दी गई थी, छिपा दी गई थी। उसके ऊपर शोर मचाते हुए चिड़िया घूम रही थी; कई बार तो इतने नीचे कि अपने पंखों से रमाशोव को छूते हुए, ऐसे कि उसे उनकी शक्तिशाली उड़ान से हवा लगने का एहसास हो रहा था। शायद, यहाँ, झाड़ियों के भीतर उनके घोंसले थे। नज़ान्स्की सिरे की तरफ़ चित लेटा था और बड़ी देर तक ऊपर आसमान की ओर देख रहा था, जहाँ सुनहरे, ठहरे हुए बादल गुलाबी होते जा रहे थे।

रमाशोव ने सकुचाते हुए कहा, “आप थके तो नहीं ? और कहिए।”

और नज़ान्स्की मानो अपने विचारों को प्रकट करते हुए बोल पड़ा:

 “हाँ, आयेगा नया, विचित्र, महान समय। मैं तो काफ़ी समय आज़ाद ज़िन्दगी गुज़ार चुका हूँ और काफ़ी कुछ पढ़ा भी है मैंने; काफ़ी कुछ देखा और बर्दाश्त किया है। अब तक बूढ़े कौए और चिड़िया स्कूल की बेंच से हमें चोंच मार मार कर कहते थे, ‘अपने निकटतम व्यक्ति से इस तरह प्यार करो जैसे स्वयँ अपने आप से करते हो, और जान लो कि शराफ़त, आज्ञाकारिता और भय – ये मानव के सबसे महत्वपूर्ण गुण हैं।’ अधिक ईमानदार, अधिक शक्तिशाली, अधिक हिंस्त्र हमसे कहते, ‘हाथ थाम कर जाएँगे, आगे बढ़ेंगे, जान दे देंगे; मगर भावी पीढ़ियों के लिए एक साफ़-सुथरी और आसान ज़िन्दगी बनाएँगे।’ मगर मैं इस बात को कभी भी न समझ पाया। मुझे स्पष्ट विश्वास से कौन प्रमाणित करके बताएगा, कि मैं इससे किस तरह संबंधित हूँ – शैतान उसे ले जाए ! – मेरे निकटतम व्यक्तियों से, घिनौने गुलाम से, संक्रामक रोगी से, बेवकूफ़ से ? ओह, सभी लोक कथाओं में से मुझे सबसे ज़्यादा नफ़रत है – तहे दिल से, संदेह के प्रति मेरी समूची सामर्थ्य से – ज्यूलियन मिलास्तीव वाली लोक कथा से। महारोग से पीड़ित व्यक्ति कहता है, ‘मैं थरथर काँप रहा हूँ, मेरे बिस्तर में मेरे साथ लेट जाओ। मैं ठिठुर रहा हूँ, अपने होंठ मेरे बदबूदार मुँह के पास लाकर मुझ पर साँस छोड़ो।’ ऊफ़, नफ़रत करता हूँ ! नफ़रत करता हूँ महारोगियों से और निकटतम लोगों से प्यार नहीं करता। और फिर, बत्तीसवीं सदी के लोगों की ख़ुशी के लिए अपना सिर फ़ोड़ने के लिए कौनसा स्वार्थ मुझे मजबूर कर सकता है ? ओह, मुझे ये बड़ी बड़ी बातें ख़ूब अच्छी तरह मालूम हैं: किसी वैश्विक आत्मा के बारे में, किसी पवित्र कर्तव्य के बारे में। मगर तब भी, जब मेरी बुद्धि इस पर विश्वास करती थी; मेरा दिल इसे मानने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था। आपको मुझ पर ग़ुस्सा आ रहा है, रमाशोव ?”


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