द्वंद्व युद्ध - 17

द्वंद्व युद्ध - 17

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इस रात से रमाशोव के भीतर एक गहरा आंतरिक परिवर्तन होने लगा। वह अफ़सरों के समाज से अलग थलग रहने लगा, खाना अधिकतर घर में ही खाता, नृत्य की शामों में मेस में बिल्कुल ही नहीं जाता, और उसने पीना भी बन्द कर दिया। पिछले कुछ दिनों में वह सही मानों में परिपक्व हो गया, बड़ा हो गया और अधिक संजीदा हो गया। और उस ग़मगीन और निरंतर सुकून को देखते हुए, जिससे अब वह लोगों और घटनाओं से पेश आता, यह ज़ाहिर था कि वह स्वयँ ही इस बात को अनुभव करने लगा था। कभी कभार इस सिलसिले में उसे बहुत पहले सुने गए या पढ़े हुए किसी के शब्द याद आते कि मनुष्य का जीवन किन्हीं ‘झुंबरों’ में विभाजित किया जा सकता है – हर झुंबर में सात सात साल – और एक झुंबर की अवधि में मनुष्य की समूची संरचना – खून और शरीर, उसके विचार, भावनाएँ और चरित्र – पूरी तरह बदल जाती है। और रमाशोव ने हाल ही में अपना इक्कीसवाँ साल पूरा किया था।

सिपाही ख्लेब्निकोव उसके पास आया, मगर दुबारा याद दिलाने के बाद। उसके बाद वह अक्सर आने लगा।

पहले पहले अपनी हालत से वह एक भूखे, खुजली पीड़ित, बहुत पीटे गए कुत्ते की याद दिलाता, जो डर के मारे प्यार से उसकी ओर बढ़ाए गए हाथ से छूट कर भाग जाता है। मगर ऑफ़िसर की सहृदयता और उसके ध्यान देने के कारण उसका दिल थोड़ा सा गर्म होकर पिघलने लगा। एक आंतरिक और आपराधिक सहानुभूति से रमाशोव ने उसकी ज़िन्दगी के ब्यौरे को जाना। घर पर – माँ थी, शराबी बाप के साथ, आधे-पागल बेटे के साथ और चार छोटी-छोटी लड़कियों के साथ; उनकी ज़मीन दुनिया ने ज़बर्दस्ती और अन्यायपूर्वक छीन ली थी; सब के सब कहीं एक लावारिस झोंपड़े में गठरी बने रहते हैं, उसी दुनिया की दया के फलस्वरूप; बड़े दूसरे लोगों के यहाँ काम करते हैं, छोटे भीख माँगने जाते हैं। पैसे घर से ख्लेब्निकोव को मिलते नहीं हैं और बाहर के कामों के लिए कमज़ोर सेहत की वजह से उसे लिया नहीं जाता। बिना पैसों के तो, चाहे वे कितने ही कम क्यों न हों, फ़ौज में रहना मुश्किल है : न चाय है, न शक्कर, साबुन के लिए भी पैसे नहीं हैं; वक़्त वक़्त पर बटालियन और स्क्वाड़न लीडर की आवभगत सिपाहियों के अल्पाहार गृह में वोद्का से करनी पड़ती है, सिपाही की पूरी तनख़्वाह – महीने में साढ़े बाईस कोपेक – इन अधिकारियों को भेंट देने में खर्च हो जाती है। उसे हर दिन मारते हैं, उस पर हँसते हैं, चिढ़ाते हैं, सबसे भारी और अप्रिय कामों में बिना नंबर के लगा देते हैं।

आश्चर्य से, पीड़ा से, और ख़ौफ़ से रमाशोव को समझ में आने लगा था कि उसका भाग्य हर रोज़ उसे इन सैकड़ों उदास ख्लेब्निकोवों के निकट धकेल रहा है, जिनमें से हरेक अपने दुख से बेज़ार है और अपनी ख़ुशियों से ख़ुश है; मगर वे सब बेचेहरा बन चुके हैं और दबा दिए गए हैं अपने ही अज्ञान, आम-दासता, अधिकारियों की उदासीनता, तानाशाही और अत्याचारों द्वारा। और सबसे ज़्यादा ख़ौफ़नाक था यह ख़याल कि अफ़सरों में से किसी को भी, जैसे कि आज तक ख़ुद रमाशोव को भी, कभी यह संदेह नहीं होता, कि ये सारे उदास ख़्लेब्निकोव अपने एकसार – आज्ञाकारी और पगलाए चेहरों वाले – असल में जीवित व्यक्ति हैं, न कि कोई यंत्रवत् भव्यता हैं, जिन्हें नाम दिया जाता है रेजिमेंट का, बटालियन का, कंपनी का। । ।

रमाशोव ने ख्लेब्निकोव के लिए थोड़ी सी कोशिश की जिससे उसे थोड़ी बहुत आमदनी हो सके। अफ़सर द्वारा सिपाही को दिए जा रहे इस संरक्षण को रेजिमेंट के लोगों ने भाँप लिया। रमाशोव अक्सर ग़ौर करता कि उसकी उपस्थिति में अंडर-ऑफ़िसर्स ख्लेब्निकोव से अत्यंत हास्यास्पद शिष्ठाचार से पेश आते और जानबूझकर उससे मीठी आवाज़ में बातें करते। शायद कैप्टेन स्लीवा भी इस बात को जानता था। हद से हद वह कभी कभी मैदान की ओर देखते हुए गुरगुराता, “ओ-ओ, ग़ौर फ़रमाईये। लिबरल्स आ-आए हैं। रेजिमेंट को बिगाड़ रहे हैं। उन्हें, मा-मारना चाहिए, कमीनों को, और वो उनसे लाड़ लड़ाते हैं। ”

अब, जब रमाशोव के पास ज़्यादा आज़ादी और तनहाई थी, उसके दिमाग़ में अधिकाधिक अटपटे, विचित्र, क्लिष्ट ख़याल आते। उन ख़यालों जैसे, जिन्होंने महीना भर पहले, अपनी क़ैद वाले दिन उसे बुरी तरह झकझोर दिया था। आम तौर से यह ड्यूटी के बाद होता, शाम के धुँधलके में, जब वह ख़ामोशी से बाग में घने, उनींदे पेड़ों के नीचे टहलता। और अकेला, उदास शाम के कीडों की बुदबुदाहट सुनता और शांत, गुलाबी, गहराते आसमान की ओर देखता।

यह नई आंतरिक ज़िन्दगी अपनी विविधता से उसे चौंका गई। पहले तो उसे गुमान भी नहीं हो सकता था कि मानवीय विचार जैसी सीधी-सादी, साधारण चीज़ में कितनी ख़ुशियाँ, कितनी ताक़त और कितनी गहरी दिलचस्पी छिपी है।

अब उसे पक्का यक़ीन हो गया था कि वह फ़ौज की सेवा में नहीं रहेगा और निसंदेह रिज़र्व में चला जाएगा, जैसे ही तीन वर्षों की अनिवार्य नौकरी पूरी हो जाएगी, जो कि उसे सैनिक विद्यालय में शिक्षा पाने के बदले में करनी पड़ेगी। मगर इस बात के बारे में वह कल्पना नहीं कर पाता था कि ‘सिविलियन’ बनने के बाद वह करेगा क्या। बारी बारी से वह सोचता : टैक्स ऑफ़िस, रेल्वे, बिज़नेस, किसी जागीर का संचालक बनना, सरकारी दफ़्तर में नौकरी करना। और, पहली बार उसने अचरज से कल्पना की विविध व्यवसायों और कामों की जिनमें लोग लगे रहते हैं ।  “कहाँ से आती हैं" उसने सोचा, “विभिन्न हास्यास्पद, विचित्र, अटपटी और गंदी विशेषताएँ? किस तरह, मिसाल के तौर पर, ज़िन्दगी तैयार करती है जेलरों को, बाज़ीगरों को, प्लास्टर बनाने वालों को। जल्लादों को, सुनारों को, कुत्तों के डॉक्टरों को, पुलिस वालों को, जोकरों को, वेश्याओं को, हम्माम-सेवकों को, घोड़ों के डॉक्टरों को, क़ब्र खोदने वालों को, फेरी लगाने वालों को? या, हो सकता है, शायद कोई भी ऐसी फ़ालतू की, आकस्मिक, सनकी, ज़बर्दस्ती की या गुनाह भरी मानवीय कल्पना है ही नहीं, जिसे पूरा करने वाले और जिसके लिए फ़ौरन सेवक न मिलते हों?”

साथ ही जब उसने कुछ और गहराई से सोचा तो इस बात ने भी उसे चौंका दिया कि बौद्धिक व्यवसायों का बहुतांश सिर्फ मानव की ईमानदारी के प्रति अविश्वास पर आधारित है और इस तरह वह मानवीय पापों और उनकी कमियों की ख़िदमत करता है। वर्ना हर जगह क्लर्कों की, रोकड़ियों की, सरकारी अफ़सरों की, पुलिस की, कस्टम्स अफ़सरों की कंट्रोलर्स की, इंस्पेक्टर्स की और सुपरवाईज़रों की ज़रूरत क्यों पड़ती – अगर मानवता परिपूर्ण होती?

उसने पादरियों के, डॉक्टरों के, शिक्षाविदों के, वकीलों के और जजों के बारे में भी सोचा – उन सब लोगों के बारे में, जिन्हें अपने पेशे की ख़ातिर दूसरे लोगों के, उनके विचारों के और उनके दु:खों के सम्पर्क में आना पड़ता है। और रमाशोव हैरानी से इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि लापरवाही में, ठंडी और निर्जीव औपचारिकता में, आदतन और बेशर्म उदासीनता में डूबे हुए इस श्रेणी के लोग दूसरों की अपेक्षा जल्दी निर्दय हो जाते हैं और उनका नैतिक पतन हो जाता है। उसे मालूम था कि एक और श्रेणी का भी अस्तित्व है – बाहरी, दुनियावी, ख़ुशहाली बनाने वालों की श्रेणी का : इंजीनियर्स, आर्किटेक्ट्स, आविष्कारक, फैक्ट्रियों के मालिक, कारख़ानों के मालिक। मगर वे, जो सम्मिलित प्रयासों से मनुष्य के जीवन को आश्चर्यजनक रूप से ख़ूबसूरत और आरामदेह बना सकते हैं – वे सिर्फ दौलत की ख़िदमत करते हैं। उन सबके ऊपर अपनी चमड़ी बचाने की फिक्र सवार रहती है, अपने बछड़ों के लिए और अपनी माँद के लिए जानवरों जैसा प्यार; जान का डर, और यहाँ से पैसों के प्रति कायरतापूर्ण आकर्षण। कौन, आख़िरकार, आहत-पीड़ित ख्लेब्निकोव का भाग्य बनाएगा, उसे खिलाएगा, पढ़ाएगा और उससे कहेगा : “मुझे तेरा हाथ दे, भाई!”

इस तरह, रमाशोव अविश्वासपूर्वक बेहद धीरे धीरे, मगर अधिकाधिक गहरे पैंठता गया ज़िन्दगी के हालात में। पहले, सब कुछ इतना सीधा सादा लगता था। दुनिया दो असमान हिस्सों में बँटी थी : एक – छोटा वाला – अफ़सरों का वर्ग, जो सम्मान, ताक़त, सत्ता, वर्दी का जादुई सम्मान और वर्दी के साथ साथ न जाने क्यों रैंक से जुड़ी बहादुरी, और शारीरिक ताक़त, और उद्दण्ड अभिमान का प्रतीक; दूसरा – बहुत विशाल और बेचेहरा – सिविलियन, उनकी अवहेलना की जाती थी; उन्हें बेबात मारना, डाँटना, उनकी नाक के पास लाकर जलती हुई सिगरेट बुझा देना, कानों तक हैट खींच देना बड़ी शेखी का काम समझा जाता था; ऐसी ‘उपलब्धियों’ के बारे में आर्मी-स्कूल में ही बड़े जोश से एक दूसरे को बताया करते थे अधकचरे कैडेट-ऑफ़िसर। और अब, वास्तविकता से कुछ परे हटकर, इस ओर कहीं और से, जैसे कि किसी गुप्त कोने से, किसी दरार से देखते हुए, रमाशोव को धीरे धीरे समझ में आने लगा कि पूरी फ़ौजी सेवा, अपने मायावी साहस सहित, बनाई गई है क्रूर, शर्मनाकएक वर्ग, एक व्यवस्था का अस्तित्व कैसे संभव है, रमाशोव ने अपने आप से पूछा, जो शांति के समय में, इतना सा भी लाभ न पहुँचाते हुए, दूसरों की रोटी खाती है और दूसरों के हिस्से का माँस खाती है, दूसरों के कपड़े पहनती है, दूसरों के घरों में रहती है, और युद्ध के समय – अपने ही जैसे लोगों को बेमतलब मारने-काटने पर उतारू हो जाती है 

और उसके दिमाग में यह विचार अधिकाधिक स्पष्ट होता गया कि मनुष्य के केवल तीन सम्मानजनक व्यवसाय हैं : विज्ञान, कला एवम् स्वतंत्र शारीरिक श्रम। साहित्यिक कार्य के सपने नए जोश से पुनर्जीवित हो उठे। कभी कभी, जब वह कोई अच्छी किताब पढ़ता, जो वास्तविक प्रेरणा देने वाली होती, तो वह पीड़ा से सोचता हे भगवान, ये तो इतना सरल है, मैं ख़ुद भी यही सोचता और महसूस करता था। वाक़ई, मैं भी यही कर सकता था उसका मन करता कि कोई दीर्घ कथा या बड़ा उपन्यास लिखे जो फ़ौजी ज़िन्दगी की भयानकता और उकताहट के कॅनवास पर चित्रित होता। दिमाग़ में सारी बातें बिल्कुल बढ़िया ‘सॅट’ थीं, - तस्वीरें स्पष्ट थीं, पात्र सजीव थे, कथानक बिल्कुल सही और बढ़िया ढंग से आगे बढ़ रहा था, और वह इस बारे में असाधारण आनन्द और तल्लीनता के साथ सोचता। मगर जब वह लिखने बैठता तो कागज़ पर बड़ा बदरंग, बच्चों जैसा अलसाया, अटपटा, आडम्बरपूर्ण या घिसापिटा मज़मून उतरता। जब वह लिखता – जोश में और जल्दी जल्दी – उसे स्वयँ को इन कमियों का पता न चलता, मगर जब वह अपने लिखे हुए पृष्ठों के साथ साथ महान रूसी रचनाकारों का लिखा छोटा सा ही पॅरेग्राफ़ पढ़्ता, उस पर एक हताश बेबसी छा जाती और अपनी कला से घृणा होने लगती।

आजकल वह इन्हीं बातों पर विचार करते हुए मई के अंत की गर्म रातों में अक्सर शहर में घूमता। अनजाने ही उसने स्वयँ के लिए आने जाने का एक ही रास्ता चुन लिया था – यहूदियों के क़ब्रिस्तान से डॅम तक और फिर रेल्वे लाईन के दोनों ओर पड़े मिट्टी के ढेरों तक। कभी कभी ऐसा होता कि इस नए दिमाग़ी खलल में मगन, वह चले गए रास्ते को महसूस ही नहीं करता, और अचानक, वापस होश में आने पर, मानो नींद से जागा हो, वह अचरज से ग़ौर करता कि शहर के दूसरे छोर तक आ गया है।

और हर रात वह शूरच्का की खिड़कियों के सामने से गुज़रता, सड़क के दूसरे किनारे से होकर गुज़रता, छिप छिप कर, साँस रोके, धड़कते दिल से, ये महसूस करते हुए जैसे वह कोई रहस्यमय, शर्मनाक, चोरों जैसा काम कर रहा है। जब निकोलाएवों के ड्राईंग रूम की बत्ती बुझ जाती और खिड़कियों के काले शीशे चाँद की रोशनी में टिमटिमाते, वह बागड़ के पास छिप जाता, सीने को कस कर हाथों से दबाता और चिरौरी करती आवाज़ में फुसफुसाता, “सो जाओ, मेरी ख़ूबसूरत, सो जाओ, मेरा प्यार। मैं – पास में ही हूँ, मैं तुम्हारी हिफ़ाज़त करूँगा!”

इस समय उसकी आँखों में आँसू होते, मगर दिल में नर्मी, और प्यार, और आत्मत्याग, और वफ़ा के साथ साथ एक अंधी, जानवरों जैसी, परिपक्व मर्द की पशुवत् ईर्ष्या लोटती रहती।

एक बार निकोलाएव को कम्पनी कमांडर के यहाँ ताश खेलने के लिए बुलाया गया था। रमाशोव को यह मालूम था। रात में, रास्ते पर चलते हुए उसने किसी की बागड़ के पीछे, किचन गार्डन में, नार्सिस की मदमाती, तीव्र ख़ुशबू सूंघी। वह बागड़ से कूदा और अंधेरे में क्यारी से, गीली ज़मीन पर हाथों में कीचड़ लगाए, इन सफ़ेद, नर्म, गीले फूलों के ख़ूब सारे गुच्छे तोड़ लिए।

शूरच्का के शयनकक्ष की खिड़की खुली थी; वह आँगन में खुलती थी और अंधेरी थी। हिम्मत करके, जो स्वयँ उसके लिए भी अप्रत्याशित थी, रमाशोव चरमराते फाटक से भीतर रेंग गया, दीवार के पास आया और खिड़की में फूल फेंक दिए। कमरे में कोई हलचल नहीं हुई। क़रीब तीन मिनट तक रमाशोव खड़े खड़े इंतज़ार करता रहा, और उसके दिल की धड़कन पूरी सड़क पर सुनाई देती रही। फिर, सिकुड़ कर, शर्म से लाल, वह पंजों के बल सड़क पर निकल गया।

दूसरे दिन उसे शूरच्का की गुस्से भरी चिट्ठी मिली, “दुबारा ऐसा करने की हिम्मत न करना। रोमियो और जूलियट जैसी नज़ाक़त हास्यास्पद है, दिन में रमाशोव ने उसे दूर से ही सड़क पर देखने की कोशिश की, मगर न जाने क्यों, ये हो नहीं पाया। अक्सर, दूर से किसी महिला को देखकर, जब वह अपनी शरीरयष्टि से, चाल से, हैट से उसे शूरच्का की याद दिलाती, वह उसके पीछे भागता सकुचाहट भरे दिल से, टूटती साँसों से, ये महसूस करते हुए कि उसके हाथ परेशानी से ठंडे और गीले हो रहे हैं, और हर बार, अपनी गलती भाँपते हुए, उसे दिल में उकताहट, अकेलापन और एक मृतवत ख़ालीपन महसूस होता।



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