द्वन्द्व युद्ध - 02
द्वन्द्व युद्ध - 02
सिपाही प्लेटून में मार्च करते हुए अपने अपने घरों को चले गए। ग्राउंड खाली हो गया। रमाशोव कुछ देर तक अनिर्णय की स्थिति में रास्ते पर खड़ा रहा। अपने डेढ़ साल के सेवा काल के दौरान यह पहला मौक़ा नहीं था जब उसे अपने अकेलेपन का, अजनबियों, उदासीन लोगों, शत्रुत्व की भावना वाले लोगों की भीड़ में खो जाने का अहसास हुआ था। यह पीड़ादायक अनिश्चय भी उसके लिए नया नहीं था कि शाम कहाँ गुज़ारे। अपने क्वार्टर के बारे में, ऑफिसर्स मेस के बारे में सोचने से उसे नफ़रत थी। मेस में इस समय सन्नाटा था; शायद दो एन्साइन छोटे से, तंग बिलियार्ड रूम में खेल रहे होंगे, बियर पी रहे होंगे, सिगरेट के कश लगा रहे होंगे; हर गेंद के साथ क़समें खा रहे होंगे और गालियाँ दे रहे होंगे; कमरों में पुरानी, बावर्ची के बनाए हुए दोपहर के बुरे खाने की बू भरी होगी- बोरिंग!
“रेल्वे स्टेशन जाता हूँ”, रमाशोव ने अपने आप से कहा, “एक ही बात है”
इस दयनीय यहूदी कस्बे में एक भी अच्छा रेस्टोरेंट नहीं था। दोनों क्लब, फौजियों का और नागरिकों का, दयनीय अवस्था में थे और इसीलिए रेल्वे स्टेशन ही एकमात्र स्थान था जहाँ कस्बे के निवासी पीने के लिए, ताज़े होने के लिए और ताश खेलने के लिए जाया करते थे। पैसेंजर ट्रेनों के आने के समय पर वहाँ महिलाएँ भी आ जाया करती थीं, जिससे कस्बे के इस उकताहट भरे जीवन में कुछ रौनक हो जाया करती थी।
रमाशोव को शाम को, एक्स्प्रेस ट्रेन के आगमन के समय, रेल्वे स्टेशन पर टहलना अच्छा लगता था। यह एक्स्प्रेस ट्रेन प्रशिया की सीमा में प्रवेश करने से पहले अंतिम बार यहाँ रुकती थी। अजीब से सम्मोहन और उत्तेजना से वह देखता रहता कि कैसे, केवल पाँच नये, चमचमाते हुए कम्पार्टमेंन्ट्स वाली यह ट्रेन मोड़ के पीछे से पूरी ताक़त से उछलकर उड़ती हुई आती है; कैसी तेज़ी से उसकी जलती हुई आँखें दहकते हुए बड़ी होती जाती हैं, अपने सामने पटरियों पर प्रकाश के धब्बे फेंकती हुई; और स्टेशन छोडकर आगे निकल जाने को व्याकुल, क्षण भर में घड़घड़ाहट और फुसफुसाहट के साथ एकदम ठहर गई, “मानो चट्टान के पीछे से दौड़कर आता हुआ भीमकाय शैतान एकदम रुक गया हो”, –रमाशोव ने सोचा। चकाचौंध करते कम्पार्टमेंन्ट्स में से सुंदर, सजीधजी, सलीकेदार महिलाएँ बाहर निकलतीं- ख़ूबसूरत हैट्स और सुरुचीपूर्ण पोषाकों में; भद्र पुरुष भी निकलते-बढ़िया वस्त्रों में, बेफ़िक्र आत्मविश्वास लिए, अलसाई हँसी के साथ, मुक्त हावभाव सहित फ्रेंच अथवा जर्मन में अपनी भारी, ऊँची आवाज़ों में बातें करते हुए। उनमें से किसी ने भी कभी भी रमाशोव की ओर उड़ती हुई नज़र तक नहीं डाली थी, मगर उसे उनमें एक अप्राप्य, नफ़ासत भरे, शानदार विश्व की झलक दिखाई देती थी जहाँ जीवन हमेशा एक उत्सव और समारोह होता है।
आठ मिनट गुज़र गए। घंटी बजी, इंजन ने सीटी बजाई और चमचमाती ट्रेन स्टेशन से निकल पड़ी। प्लेटफार्म और रेस्टोरेंट में फटाफट रोशनी बुझ गई। अंधेरा हो गया। और रमाशोव हमेशा एक ख़ामोश, सपनों भरी निराशा से देर तक उस लाल लालटेन को देखता रहता, जो अंतिम कम्पार्टमेंन्ट के पीछे एक लय में उछलती रहती, रात की उदासी में खोते हुए और मुश्किल से नज़र आने वाली एक चिंगारी में परिवर्तित होते हुए।
“थोडी देर स्टेशन पर जाऊँगा”, रमाशोव ने सोचा। मगर तभी उसकी नज़र अपने जूतों की ओर गई और वह शर्म से लाल हो गया। ये भारी रबड़ के जूते थे, काफ़ी बड़े, बिल्कुल ऊपर तक गाढ़े, काले कीचड़ में सने हुए। रेजिमेंन्ट के सभी अफ़सर ऐसे ही जूते पहनते थे। फिर उसने अपने फटे हुए ओवरकोट की ओर देखा, घुटनों तक आती, कीचड़ के कारण कटी-फटी लटक रही किनार; उखड़ चुके बटन, चीकट और धब्बेदार। उसने गहरी साँस ली। पिछले हफ़्ते, जब वह प्लेटफॉर्म पर उसी एक्स्प्रेस ट्रेन के सामने से गुज़र रहा था, उसने काली पोषाक में एक बहुत ख़ूबसूरत, सुडौल, ऊँची महिला को देखा जो प्रथम श्रेणी के कम्पार्टमेंन्ट के दरवाज़े में खड़ी थी। उसने हैट नहीं पहनी थी, और रमाशोव ने फ़ौरन उसकी पतली, सीधी नाक, शानदार, पतले और भरे भरे होठों, और काले, चमकीले लहराते बालों को साफ़ साफ़ देख लिया, जो बीच में से निकाली गई मांग के कारण उसकी कनपटियों, भौंहों के किनारों और कानों को ढाँकते हुए नीचे गालों पर उतर आए थे। उसके कंधों के पीछे से झाँकता हुआ एक भरापूरा नौजवान खड़ा था, हल्के रंग का सूट पहने, चेहरे पर धृष्ठता का भाव, मूँछे ऊपर को उठी हुई, सम्राट विलहेल्म के अंदाज़ में, वह स्वयं भी कुछ कुछ विलहेल्म जैसा ही था। रमाशोव को ऐसा प्रतीत हुआ मानों उस महिला ने भी एकटक, ध्यानपूर्वक उसकी ओर देखा, और उसके सामने से गुज़रते हुए सेकंड लेफ़्टिनेंट ने अपनी आदत के मुताबिक सोचा : 'अजनबी महिला की आँखें प्रसन्नता से नौजवान अफ़सर की सुदृढ़, दुबली पतली आकृति पर ठहर गईं '। मगर जब, दस क़दम चलने के पश्चात्, रमाशोव ने अचानक पीछे मुड़कर देखा, जिससे कि ख़ूबसूरत महिला से दुबारा नज़रें मिला सके, तो उसने देखा कि वह और उसका साथी पीछे से रमाशोव की ओर देखते हुए ठहाका मार कर हँस रहे हैं। तब अचानक रमाशोव ने चौंकाती हुई स्पष्टता से, मानो एक किनारे से स्वयं को देखा, अपने जूतों को और ओवरकोट को देखा, अपने निस्तेज चेहरे, अपनी निकट दृष्टि, अपनी हमेशा की बौखलाहट और धाँधली को देखा, अभी अभी मन ही मन स्वयं के प्रति सोचे गए वाक्य को याद किया और तीव्र दर्द से, असहनीय शर्म से वह लाल हो गया। अभी भी, बसंत की शाम के धुंधलके में अकेले चलते हुए, इस शर्मनाक घटना को याद करके वह फिर शर्म से लाल हो गया।
“नहीं, क्या करूँगा स्टेशन जाकर”, तीव्र निराशा से रमाशोव बुदबुदाया। “यूँ ही थोड़ा टहल लेता हूँ, फिर घर जाऊँगा।”
अप्रैल का आरंभ था। शाम का धुंधलका गहराता जा रहा था। रास्ते के दोनों ओर खड़े पोप्लर वृक्ष, रास्ते के दोनों ओर स्थित लाल बालू की छत वाले, सफ़ेद, छोटे-छोटे घर, रास्ते से गुज़रते हुए इक्का दुक्का लोगों की आकृतियाँ- सभी कुछ स्याह होता जा रहा था, अपना रंग और परिप्रेक्ष्य खोता जा रहा था; सभी वस्तुएँ स्याह परछाइयों में बदल गईं, मगर काले आकाश की पृष्ठभूमि में इन आकृतियों की रेखाएँ बड़ी लुभावनी और स्पष्ट नज़र आ रही थीं। पश्चिम में शहर के बाहर अभी भी लाली छाई थी भूरे रंग के घने बादल मानो दहकते हुए पिघले सोने के ज्वालामुखी के मुहाने में समाते जा रहे थे और वापस निकल कर लाल, बैंगनी और सुनहरे रंगों में बिखर रहे थे। इस भट्टी के ऊपर शाम का बसंती आसमान फ़ीरोज़ी, हरे-नीले-पीत रंग के गुंबद की भाँति प्रतीत हो रहा था।
बड़ी मुश्किल से भीमकाय जूतों के भीतर अपने पैरों को घसीटते हुए, रास्ते पर धीरे धीरे चलते हुए, रमाशोव एकटक इस जादुई आग को देखता रहा। हमेशा ही की तरह, बचपन से ही उसकी यह आदत थी, उसे संध्या की इस दमकती लाली के पीछे किसी रहस्यमय, चमकती दुनिया का आभास हुआ। वहीं, बादलों के और क्षितिज के भी पीछे, यहाँ से न दिखाई दे रहे सूरज के नीचे है वह अद्भुत, अपनी सुंदरता से चकाचौंध करने वाला शहर, जो अभी अपनी आंतरिक ज्वालाओं में लिपटे बादलों के कारण नज़र नहीं आ रहा है। वहाँ सोने के पत्थर जड़े पुल ग़ज़ब की चमक बिखेरते थे, बैंगनी छतों वाले गुम्बज और मीनारें थीं, खिड़कियों में हीरे जगमगा रहे थे, विभिन्न रंगों के ध्वज हवा में लहरा रहे थे। उसे ऐसा भी प्रतीत हुआ कि इस दूर दराज़ के परी-लोक में ख़ुशमिजाज़, विजेता लोग रहते हैं, जिनका जीवन एक मीठे संगीत की भाँति है, जिनकी चिंताएँ और जिनके दुख भी सम्मोहित करने वाले, नाज़ुक और ख़ूबसूरत हैं। वे चमकते चौकों पर, छायादार उद्यानों में, फूलों और झरनों के बीच टहलते हैं।ईश्वर के समान, तेजस्वी, एक ऐसे आनन्द से भरपूर जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, जिनकी इच्छाओं और सुख के मार्ग में कोई रुकावट नहीं है, जिन पर अपमान, शर्म और संघर्षों का साया नहीं पड़ा है।
अप्रत्याशित रूप से रमाशोव को याद आ गई परेड-ग्राऊंड पर हुई घटना, कम्पनी कमांडर की अशिष्ठ चीखें, अपमानित होने की भावना, चुभता हुआ और साथ ही सिपाहियों के सामने बच्चों जैसी अपनी अकुशलता का एहसास। सबसे ज़्यादा पीड़ादायक बात यह थी कि उस पर बिल्कुल उसी तरह चिल्ला रहे थे जैसे वह स्वयं अपने आज के अपमान के मूक गवाहों पर चिल्लाया करता था, और इस स्वीकारोक्ति में कोई ऐसी बात थी जो पदों के बीच के भेद को नष्ट करती थी, कोई ऐसी बात थी जो उसकी अफ़सरी, और जैसा कि वह सोचता था, मानवीय गरिमा को नीचा दिखा रही थी।
और उसके दिल में फ़ौरन, बिल्कुल वैसे ही जैसा कि बच्चों में होता है, वाक़ई में उसके भीतर अभी भी काफ़ी बचपना शेष था, बदले के, काल्पनिक, मदोन्मत्त करने वाले विचार खदखदाने लगे। “बकवास! अभी मेरे सामने सारा जीवन पड़ा है!” रमाशोव ने सोचा, और, अपने खयालों में रत वह ज़्यादा हिम्मत से चलने लगा और ज़्यादा गहरी साँसें लेने लगा। “उन्हें नीचा दिखाने के लिए कल से ही सुबह होते ही किताब लेकर बैठ जाऊँगा, बढ़िया तैयारी करके अकाडेमी में प्रवेश लूँगा। मेंहनत! ओ, मेंहनत से सब कुछ हासिल किया जा सकता है। सिर्फ़ अपने आप पर नियंत्रण रखना होगा। पागलों की तरह रट्टा मारूँगा। और, सबको अचंभे में डालते हुए बढ़िया अंकों से इम्तिहान पास कर लूँगा। फिर शायद वे कहेंगे, “इसमें आश्चर्य की क्या बात है? हमें तो पहले से ही इस बात पर यक़ीन था। इतना योग्य, प्यारा, गुणी नौजवान है।”
और रमाशोव ने चौंकाने वाली स्पष्टता के साथ स्वयं को स्टाफ ऑफ़िसर के रूप में देखा, जिससे काफ़ी उम्मीदें थीं। उसका नाम अकाडेमी के सुनहरे बोर्ड पर लिखा है। प्रोफ़ेसर लोग उससे शानदार भविष्य का वादा करते हैं, अकाडेमी में ही रहने का प्रस्ताव रखते हैं, मगर, नहीं, वह सेना में ही जाता है। टुकड़ी की कमांड की अवधि तो पूरी करनी ही है। वह भी बिल्कुल, बिल्कुल अपनी ही प्लेटून में। वह यहाँ आता है, परिष्कृत, भला सा लापरवाह, अनुशासन प्रिय और धृष्ठ मगर सज्जन, सेना के उन अफ़सरों के समान जिन्हें उसने पिछले वर्ष बड़े बड़े युद्धाभ्यासों में और तस्वीरों में देखा था। अफ़सरों के मेंले से वह दूर ही रहेगा। सेना की भद्दी आदतें, बेहूदगियाँ, ताश, नशा, नहीं, यह सब उसके लिए नहीं है। उसे याद रखना है कि उसके लिए यह सिर्फ़ एक पड़ाव है भविष्य की प्रगति और ख्याति के मार्ग का।
लो, युद्धाभ्यास शुरू हो गया है। दोनों तरफ से घमासान लड़ाई हो रही है। कर्नल शुल्गोविच फौजों की संरचना को समझ नहीं पा रहा है, परेशान हो रहा है, ख़ुद भी उलझ रहा है और अपने सिपाहियों को भी उलझन में डाल रहा है। कोर कमांडर दो बार अर्दलियों को भेजकर उसे डाँट पिला चुका है। “देखिये, कैप्टेन, मेंरी मदद कीजिए”, वह रमाशोव से मुख़ातिब होता है, “पुरानी दोस्ती की ख़ातिर। याद है, खे-खे-खे, कैसे हमारा एक बार झगड़ा हुआ था! कृपया, बताइए।” उसका चेहरा उत्तेजित और परेशान है। मगर रमाशोव घोड़े पर सीधा होकर बैठ जाता है और बड़े ठंडेपन से सैल्यूट मारकर कहता है, “माफी चाहता हूँ, कर्नल महोदय।फौजों को स्थानांतरित करना आपका काम है। मेरा काम है आपसे आदेश लेकर उनका पालन करना।” और कमांडर द्वारा भेजा गया तीसरा अर्दली भी आ जाता है, नई चेतावनी के साथ।
होनहार स्टाफ़-ऑफिसर रमाशोव लगातार तरक्की करता जाता है। यह लो, बड़ी स्टील फैक्टरी में मज़दूरों का प्रदर्शन उग्र हो गया है। रमाशोव की टुकड़ी को शीघ्रता से बुलाया जाता है। रात का समय है, आग की भयानक लपटें, मारपीट कर रहे मज़दूरों की विशाल भीड़, पत्थर बरस रहे हैं। सुदृढ़, ख़ूबसूरत कैप्टेन टुकड़ी से बाहर आता है। यह है – रमाशोव। “ भाइयों”, वह मज़दूरों से मुख़ातिब होता है, “ तीसरी और आख़िरी बार चेतावनी दे रहा हूँ कि मैं गोलीबारी शुरू कर दूंगा!” चीख़ें, सीटियाँ, ठहाके। एक पत्थर रमाशोव के कंधे पर लगता है, मगर उसका सरल, खूबसूरत चेहरा शांत ही रहता है। वह पीछे मुड़ता है, सिपाहियों की ओर जिनके चेहरे ग़ुस्से से तमतमा रहे हैं, क्योंकि उनके आदरणीय कैप्टेन का अपमान किया गया है। “सीधे भीड़ पर, फ़ायर करेगा।कम्पनी, फायर!।” सैंकड़ों गोलियाँ एक साथ चलीं।कोहराम मच गया। दसियों घायल और मृत शरीर एक के ऊपर एक गिर पड़े। बाक़ी के वहशत से तितर बितर होकर भाग रहे हैं, कुछ लोग घुटनों पर गिर कर दया की भीख मांग रहे हैं। विद्रोह पर क़ाबू कर लिया गया है। अब रमाशोव की राह देख रहे हैं नेतृत्व द्वारा दिया जाने वाला धन्यवाद और अभूतपूर्व शौर्य के लिये दिया जाने वाला पुरस्कार।
और यह है युद्ध। नहीं, बेहतर है कि रमाशोव युद्ध से पहले सैन्य-जासूस बन कर जर्मनी जाए। वह जर्मन भाषा सीखेगा, उसमें पूरी निपुणता हासिल करेगा, तब जाएगा। आहा, कैसा सम्मोहक कारनामा है! अकेला, बिल्कुल अकेला, जेब में जर्मन पासपोर्ट रखे, पीठ पर स्ट्रीट-ऑर्गन लटकाए। स्ट्रीट-ऑर्गन तो होना ही चाहिए। शहर शहर जाता है, ऑर्गन के बटन घुमाता है, बाजा बजाता है, लोगों की भीड़ इकट्ठी करता है, पागलपन का नाटक करता है और साथ ही सेना के जमाव की, उनके किलों की रूपरेखाएँ, कैम्प्स की, स्टोर्स की, बैरेक्स की जानकारी अत्यंत गुप्त रूप से जमा करता है। चारों ओर बेहद ख़तरा है। अपनी सरकार उससे दूर हो गई है, वह सभी नियमों से परे है। यदि वह मूल्यवान प्रमाण इकट्ठा करने में क़ामयाब हो जाता है तो पैसा, रैंक, प्रसिद्धी, पोज़िशन सब कुछ प्राप्त होगा, और अगर क़ामयाब न हुआ तो बिना मुक़दमा चलाए उसे गोली मार दी जाएगी, बिना किसी औपचारिकता के, सुबह सुबह, किसी अंधेरी ट्रेंच में। सहानुभूतिवश उससे आँखों पर रुमाल बांधने के लिए कहा जाता है, मगर वह गर्व के साथ उसे ज़मीन पर फेंक देता है। “कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे हैं कि एक ऑफ़िसर मौत की आँखों में झाँकने से डरता है?” बूढ़ा जनरल सहानुभूति से कहता है, “सुनिए, आप जवान हैं, मेरा बेटा भी आप ही की उम्र का है। बस अपना नाम बता दीजिए, सिर्फ़ अपनी राष्ट्रीयता बता दीजिए, और हम आपकी मौत की सज़ा को क़ैद में बदल देंगे।” मगर रमाशोव उसकी बात काट देता है और ठंडी औपचारिकता से कहता है, “बेकार है, जनरल। शुक्रिया। आप अपना काम कीजिए।” इसके बाद वह बंदूकधारियों से मुख़ातिब होता है, “सिपाहियों”, वह दृढ़ आवाज़ में कहता है, ज़ाहिर है, जर्मन में, आपसे एक दोस्ताना इल्तिजा है: निशाना सीधे दिल पर साधिए!” भाव विहल लेफ्टिनेन्ट, मुश्किल से अपने आँसुओं को छिपाते हुए अपना सफ़ेद रुमाल हिलाता है। फ़ायर।
यह चित्र उसकी कल्पना में इतना स्पष्ट एवम् इतना सजीव था कि रमाशोव, जो बड़ी देर से बड़े बड़े कदमों से चल रहा था और गहरी साँसें ले रहा था, अचानक थरथराने लगा और ख़ौफ़ से अपनी जगह पर ठहर गया। उसकी कसी हुई मुठ्ठियाँ थरथरा रही थीं, दिल ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था। मगर फ़ौरन कमज़ोरी और झेंप से अँधेरे में अपने आप पर हँसते हुए, वह संयत हुआ और आगे चलने लगा।
मगर शीघ्र ही उसकी कल्पना उसे ख़यालों की दुनिया में ले गई। ऑस्ट्रिया और प्रशिया के साथ क्रूर, घमासान युद्ध आरंभ हो गया है। युद्ध का विस्तीर्ण मैदान, मृत शरीर, ग्रेनेड्स, ख़ून की नदियाँ, मौत! यह युद्ध ख़ास था जो कम्पनी का पूरा भविष्य निश्चित करने वाला था। रिज़र्व सेना की अंतिम टुकड़ियाँ आ रही हैं, हर पल रूसी पार्श्व टुकड़ी के पहुँचने का इंतज़ार था, जो दुश्मन की पिछली पंक्तियों पर आक्रमण करती। दुश्मन के भयानक हमले को रोकना था, किसी भी क़ीमत पर डटे रहना था। दुश्मन की ख़तरनाक गोलाबारी, उसकी शैतानी कोशिश केरेंस्की रेजिमेंन्ट पर केन्द्रित थी। सिपाही शेरों के समान लड़ रहे हैं, वे एक भी बार नहीं डगमगाए, हाँलाकि उनकी पंक्तियाँ प्रतिक्षण दुश्मन की गोलाबारी के कारण मानो पिघलती जा रही हैं। एक ऐतिहासिक क्षण! बस, एक दो मिनट और डटे रहना है, और विजयश्री दुश्मन के हाथों से छिन जाएगी। मगर कर्नल शुल्गोविच दुविधा में है; वह बहादुर है-इसमें कोई शक नहीं, मगर वह स्वयं को इस ख़ौफ़नाक परिस्थिति में संतुलित नहीं कर पाता। वह अपनी आँखें बन्द कर लेता है, काँपने लगता है, पीला पड़ जाता है।उसने बिगुल बजाने वाले को इशारा कर दिया पीछे हटने का संदेश देने के लिए, सिपाही ने बिगुल अपने होठों पर लगाया ही था कि तभी मुँह से झाग निकालते अपने अरबी घोड़े पर डिविजन स्टाफ़ का प्रमुख कर्नल रमाशोव पहाड़ी के पीछे से तीर की तरह लपका। “कर्नल, पीछे हटने की जुर्रत मत करना! यहाँ रूस के भाग्य का निर्णय हो रहा है!” शुल्गोविच फट पड़ा, “कर्नल! यहाँ मैं कमान्डर हूँ और ईश्वर के सामने और सम्राट के सामने जवाबदेह हूँ! बिगुलधारी, बिगुल बजाओ!” मगर रमाशोव ने लपक कर सैनिक के मुँह से बिगुल खींच लिया। “सिपाहियों, आगे बढ़ो! ईश्वर और ज़ार तुम्हें देख रहे हैं! हुर्रे!” वहशियों की तरह, हिला देने वाली चीख़ के साथ सिपाही रमाशोव के पीछे पीछे आगे की ओर लपके, कहीं खाई में। दुश्मन की सेनाएँ हिल गईं और तितर-बितर होते हुए पीछे की ओर भागीं। और उनके पीछे, दूर पहाड़ियों के पीछे नई, पार्श्व टुकड़ी की संगीनें चमक रही हैं। “ हुर्रे, भाईयों, जीत गए!।”
रमाशोव, जो अब चल नहीं रहा था, अपितु उत्तेजना में अपने हाथों को इधर उधर फेंकते हुए दौड़ रहा था, अचानक रुक गया और प्रयत्नपूर्वक उसने अपने आप को संयत किया। उसकी पीठ पर, हाथों पर और पैरों पर, कमीज़ के नीचे, नंगे जिस्म पर, मानो किसी की ठंडी उंगलियाँ दौड़ रही थीं, बाल सरसरा रहे थे, उत्तेजना के आँसू आँखों को चीर रहे थे। उसे अहसास ही नहीं हुआ कि कैसे वह अपने घर तक पहुँचा, और अब, अपने उन्मादक सपनों से जागकर, अचरज से चिरपरिचित गेट, उसके पीछे स्थित फलों के मरियल बाग की गहराई में बनी हुई छोटी सी बिल्डिंग की ओर देखने लगा जिसमें वह रहता था।
'कैसे कैसे ख़याल आते हैं दिमाग में' परेशानी से उसने सोचा और उसका सिर हौले से ऊपर ऊठे कंधों में समा गया।