दुनियादार

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उसका रंग एकदम काला था।एकदम चेरी बूट पालिश की तरह।लम्बाई कुल जमा साढ़े चार फ़ीट। उम्र ग्यारह साल। नाम कलुआ। वैसे तो उसका नाम था राजकुमार लेकिन उसके घर वाले उसे रजुआ कह कर बुलाते थे और जब से वह नईम मियां की साइकिल रिपेयरिंग की दूकान पर काम करने आया था उसका काला रंग देख कर ही शायद नईम मियां ने उसको कलुआ बुलाना शुरू कर दिया था। उनकी देखा देखी सारे ग्राहक भी उसे कलुआ ही बुलाने लगे थे और पिछले दो सालों में तो वह शायद अपना नाम राजकुमार भूल भी चुका था। लेकिन कलुआ की दो खास बातें भी थीं जो मुझे बेहद पसंद थीं। पहली ये कि वो हमेशा मुस्कराता रहता था और जब वो मुस्कुराता था तो उसके काले चेहरे पर सफ़ेद दांत एकदम अलग ही दिखते थे। कलुआ की दूसरी खास बात थी उसकी गाने की आदत। वह हर समय कोई न कोई फ़िल्मी गीत अपनी बेसुरी आवाज़ में गाने की कोशिश करता था। खासकरमेरा नाम राजू घराना अनाम—”। वह थोड़ा तुतलाता भी था और जब इस गाने को वह अपनी तोतली आवाज़ में गाता- “मेला नाम लाजू घलाना अनामबहती है गंगा वहां मेला घाम-” तो हर ग्राहक उसको शाबाशी देता। इसी लिये मैं हमेशा अपनी साइकिल रिपेयर कराने उसी के पास जाता था।

    आज भी जब मैं अपनी साइकिल का पंचर बनवाने पहुंचा तो कलुआ पहले से ही एक साइकिल का नट खोलने के लिये रिंच से जूझ रहा था। मेला नाम लाजू घलाना अनामबहती है गंगा वहां मेला घाम-” वह अपनी बेसुरी आवाज़ में गा रहा था और अपनी पूरी ताकत लगाकर साइकिल के पहिये का जाम हो चुका नट खोलने की कोशिश कर रहा था। पर नट जंग लगने से जाम हो चुका था और उस पर से रिंच बार-बार फ़िसल जा रही थी। मैं बहुत देर से नट खोलने की उसकी यह कोशिश देख रहा था। उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आई थीं। उसने एक बार फ़िर रिंच को नट में फ़ंसाया और पूरा जोर लगाने के चक्कर में साइकिल के पहियों पर लगभग लटक गया। रिंच फ़िर फ़िसल गयी और उसी के साथ वह भी साईकिल के पहिये पर गिर पड़ा। इसी के साथ नईम मियां का एक झन्नाटेदार झापड़ उसके गालों पर पड़ा।

    हट बे एक घण्टे से जूझ रहा है- साले एक ठो नट नहीं खोल पा रहा।” नईम चिल्लाया और उसने रिंच उसके हाथ से छीन कर खुद ही साइकिल का जाम पड़ा नट खोलने की कोशिश की और कलुआ किनारे खड़ा होकर अपने ग्रीस लगे हाथों से गाल सहलाता हुआ डबडबाई आंखों से नईम द्वारा की जा रही कोशिश देखने लगा। पर साइकिल का जंग लगा नट नईम से भी नहीं खुला। अंत में झुंझला कर नईम ने रिंच एक तरफ़ फ़ेंक दी और कलुआ की तरफ़ देखा। वो अभी भी गाल सहला रहा था।

   “हेल्लो— अभी तू टेसुए बहा रहा है। चल ज़रा इस नट पे केरोसीन डाल दे। जब तक वो फ़ूलेगा तब तक तू बाबू जी की साइकिल का पंचर देख ले” नईम कलुआ को पुचकारता हुआ बोला। लेकिन उसके स्वर में पुचकारने का भाव कम उसका मज़ाक उड़ाने का भाव अधिक था।

    कलुआ ने अपने ग्रीस और तेल से चीकट हो चुकी कमीज़ की बांह से ही अपनी आंखें पोछीं और मेरी साइकिल लिटाकर  पाने से उसका टायर और ट्यूब खोलने लगा। मुझे इस वक्त सच में बहुत ही दया आ रही थी। इस तकलीफ़देह स्थिति में, मैं उससे अपनी साइकिल का पंचर नहीं बनवाना चाहता था।लेकिन मेरी मजबूरी ये थी कि बिना साइकिल बनवाए मैं आफ़िस समय पर नहीं पहुंच सकता था। और न ही नईम से ये कह सकता था कि वो कलुआ को कुछ देर के लिये आराम करने के लिये छोड़ दे क्योंकि एक बार मैं खुद देख चुका था कि एक ग्राहक द्वारा कलुआ को मारने से रोकने पर नईम ने कलुआ को उस ग्राहक के सामने ही दो हाथ और लगा दिया था। साथ ही उस ग्राहक की साइकिल भी नहीं बनायी थी। उल्टा उस ग्राहक को ज़रूर नसीहत दे दिया था कि वो उसकी दूकान पर आकर कलुआ की तरफ़दारी न किया करे।

     मैं अक्सर आफ़िस आते जाते कलुआ को मार खाते देखता। कई बार मैंने यह भी सोचा कि कलुआ को वहां से हटा कर काम करने के लिये अपने ही घर पर लगा लूं और साथ ही उसका नाम किसी स्कूल में लिखा दूं पर नईम के बिगड़ैल स्वभाव के कारण न ही मैं नईम से कुछ कह पा रहा था न ही कलुआ से कुछ बात कर पा रहा था।

     लेकिन आज पता नहीं क्यूं मुझे लग रहा था कि कलुआ से और नईम से मुझे इस संबंध में बात करनी चाहिये। लेकिन नईम से पहले मैं कलुआ से बात करना चाहता था कि वो यहां का काम छोड़ कर मेरे घर काम करेगास्कूल जायेगा?

    इसी उधेड़बुन में कलुआ के पास ही बैठा अपनी साइकिल का टायर खुलते देख रहा था उसी समय मुहल्ले के शर्मा जी अपनी बाइक से आये और नईम को अपनी कार का पहिया खोलने के लिये बुला ले गये। शायद उनकी कार पंचर हो गयी थी। नईम जाते जाते कलुआ को हिदायत भी देता गया, “अबे कलुआ बाबू जी की साइकिल जल्दी सही कर बे और हां ज़रा दुकान के ध्यान रख्यो हम ज़रा शर्मा जी की कार का पहिया लै के आय रहे हैं। आधा घण्टा लग जाई। कौनौ बदमाशी नहींनहीं तो फ़िर कुटाई होइ जाई जान ल्यो।” और नईम शर्मा जी की बाइक पर बैठ कर निकल गया।

  मेरी तो लाटरी निकल गयी। मैं तो खुद ऐसे मौके की तलाश में था कि जब दूकान पर नईम न रहे और मैं कलुआ से उसके मन की बात जान सकूं। जैसे ही नईम बाइक पर गया मैं कलुआ के और पास खिसक गया। बिना कोई भूमिका बनाए मैं सीधे सीधे मुद्दे पर आ गया।

        “कल्लू ई बताओ तुम्हारा मन पढ़ने लिखने का नहीं होता?” मैंने बात की शुरुआत की। पर कलुआ शायद मेरी बात को ठीक से समझ नहीं पाया और बस टुकुर टुकुर मेरा मुंह निहारने लगा।

देखो तुम चाहो तो पढ़ाई लिखायी भी कर सकते हो और पढ़ाई के बाद अपना कोई काम धन्धा कर सकते हो।” मैंने कलुआ को फ़िर समाझाने की कोशिश की।

लेकिन बाबू जी हमरी पढ़ाई का खर्चा कौन देगा। बापू अम्मा के पास तो पैसा है नाहीं।” कलुआ बहुत मासूमियत से बोला।

देखो उसकी चिन्ता तुम न करोबस तुम तैयार हो जाओ।” मैंने उसे आश्वासन दिया।

लेकिन बाबू जी हमारा हियां का काम और हम अपने अम्मा से तो पूछि लें?” उसने फ़िर सवाल किया।

यहां का काम तो तुम्हें छोड़ना होगा।” मैंने उसे समझाने की कोशिश की। उसी समय दूर से नईम आता दिखा और हम दोनों ने अपनी बात बंद कर दी। इस बीच मेरी साइकिल बन चुकी थी। मैंने नईम को पैसा पकड़ाया और अपनी साइकिल लेकर वहां से आफ़िस की ओर चल पड़ा। उस दिन मेरी कलुआ से बात अधूरी रह गयी।

     अगले दिन मेरी छुट्टी थी। मैं आराम से बाहर के बराम्दे में बैठा अखबार पढ़ रहा था कि कलुआ को फ़ाटक के पास खड़े देख कर चौंक पड़ा। अरे आओ कल्लू, अंदर आ जाओबाहर क्यों खड़े हो?” और मेरे कहते ही कलुआ आ कर मेरे सामने फ़र्श पर बैठ गया। मेरे लाख कहने के बाद भी वो कुर्सी पर बैठने को नहीं तैयार हुआ। इस बीच मेरी श्रीमती जी भी वहां आकर खड़ी हो गयी थीं।

     “देखो भाईकल्लू आया है इसे कुछ पानी वानी पिलाओमैने श्रीमती जी से आग्रह किया। श्रीमती जी अक्सर मेरे मुंह से कलुआ के बारे में सुनती रहती थीं इसीलिये उनके भीतर भी कलुआ के लिये साफ़्ट कार्नर था। उन्होंने तुरंत तश्तरी में दो लड्डू और एक गिलास पानी लाकर कलुआ के सामने रख दिया।

   कलुआ ने लड्डू की तरफ़ हाथ नहीं बढ़ाया। बस एकटक कभी मेरी ओर कभी श्रीमती जी की तरफ़ देखता रहा। अंत में श्रीमती जी ने ही उससे कहा, “लो बेटा लड्डू खाकर पानी तो पी लो।” कलुआ ने फ़िर मेरी ओर देखा तो मैंने उसे लड्डू खाने का इशारा किया। कलुआ ने बड़े संकोच से एक लड्डू उठा कर जल्दी जल्दी खाया और गिलास का पानी एक ही सांस में पी गया। अब उसने फ़िर मेरी और श्रीमती जी की ओर बारी बारी से देखना शुरू कर दिया था। बीच बीच में वह कभी अपने हाथ की उंगलियों के नाखून कुतरने लगता। कभी नीचे देखते हुये अपने पैरों के पंजों को एक दूसरे के ऊपर चढ़ाने की कोशिश करता। मैं समझ गया कि वह इस माहौल में खुद को थोड़ा असहज महसूस कर रहा है।

  मैंने उसे इस असहजता से उबारने के लिये बात शुरू कर दी।

हां तो बताओ कल्लू तुमने कुछ सोचा अपने काम छोड़ने के बारे में?” मैंने उससे सीधे सीधे प्रश्न कर लिया।

    “हां बाबू जी– मैंने खुद भी बहुत सोचा और अम्मा से भी पूछा था। उन्होंने मना कर दिया।” कलुआ ने बिना किसी भूमिका के जवाब भी दे दिया। उसका सपाट जवाब सुन कर हम दोनों ही चौंक पड़े। चौंके इसलिये कि हम उम्मीद कर रहे थे कि कलुआ खुद और उसके मां बाप भी उसकी बेहतरी के लिये उसे हमारे यहां भेज देंगे। पर उसने तो सीधे सीधे जवाब दे दिया।

लेकिन क्यों बेटा?” श्रीमती जी भी उसके जवाब को सुन कर आश्चर्य से बोलीं।

आण्टी अम्मा कह रही थीं कि आप लोग तो दुई चार साल में चले जायेंगे फ़िर हमें कहां काम मिलेगा फ़िर लौट के हमें ओही नईम की दूकान पर काम मांगने जाना होगा।” कलुआ बड़ी मासूमियत से बोला।

लेकिन कल्लू बेटा हम तो तुम्हें स्कूल भी भेजेंगे। तुम्हें पढ़ाएंगे

बाबू जी हम का करेंगे पढ़ी लिख के आखिर काम तो उसी नईम के यहां ही करना पड़ेगा। नईम की नहीं तो कौनो और दूकान पे।

लेकिन बेटा वो तुम्हें इतना मारता भी तो है, यहां कोई तुम्हें मार थोड़े ही रहा।” मैंने उसे एक बार और समझाने की कोशिश की।

अरे बाबू जी कोई गलती होई जाती है हमसे तबै तो मारते हैं नईम अंकल। अउर ई बात की का गारण्टी कि हमें इहां मार नहीं पड़ेगी। बाबू जी ई छोटी सी उमर में हम बहुत दुनिया देखे हैं और दुनियादारी समझते भी हैं, पहिले सब लोग बहुत बात करत हैं। बाद में सारी बातें धरी रहि जाती हैं। कभी चोरी का इल्जाम लगाय दिया जाता है तो कभी चकारी का।” कलुआ बड़े बुजुर्गों की तरह बोल रहा था और मैं श्रीमती जी के साथ उसकी बड़ी बड़ी बातें सुन रहा था।

तो यही लिये हम ई फ़ैसला किये हैं कि हम वहीं ठीक हैं।अच्छा अब हम जाय रहे हैं दुकान खोलने का टैम होइ गवा हैं।नमस्ते बाबू जी” कलुआ जल्दी से बोला और हमे नमस्ते करके जल्दी से फ़ाटक खोल कर निकल गया। हम लोग अवाक से उसे जाता देखते रहे।

    अगले दिन मैं फ़िर साइकिल में हवा भरवाने नईम की दूकान पर पहुंचा। कलुआ पसीने में तर बतर एक साइकिल के पहिये से जूझ रहा था और साथ ही अपने उसी मस्ती भरे अंदाज में गा रहा थामेला नाम लाजू घलाना” मैंने अपनी साइकिल में हवा ली और आफ़िस की ओर चल पड़ा।


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