धन की गठरी
धन की गठरी
समय की किल्लत, परिवार की नींव कमजोर कर रही थी। ऐसा नहीं है की समय नहीं था, समय तो था पर तूल रहा था वो रूपए के तराजू में। बा-बाबा, माँ , बहन, पिताजी, ताऊजी - ताईजी, चाचाजी-चाचीजी सब थे, भरा पूरा परिवार था।
पर समय, समय जब चमकजा छिपा था कहीं किसी कोने में, लग रहा था, जैसे कसम खाई हो उसने, की मुझे नहीं रहना यहां, यहां मेरी कद्र नहीं, फिर मैं
क्यूँ रहूँ यहाँ।
रूपए वाली गठरी," भारी पर भारी हुए जा रही थी" हो भी क्यूँ ना खर्च करने की फ़ुरसत ही कहां थी किसी के पास।
सब मिलकर कमाए जा रहे थे, किसी को समझ नहीं आ रहा था की क्यूँ..?
और आखिर कार एक दिन ये गुत्थी भी सुलझ ही गयी, पिताजी को कैंसर ने आ घेरा।
रूपए कमाने के नशे में, समय अभाव के कारण न समय पर खाते न सोते, हाँ काम करते-करते, नींद और भूख मिटाने को बना लिया करते थे रोज एक आध धुएँ के छल्ले ।
फिर क्या था, धीरे-धीरे अन्दर ही अन्दर कैंसर ने अपनी बाँह फैलाए जकड़ लिया इनको और चूसने लगा इनकी धन की गठरी जैसे कोई दीमक आ बैठा हो।
और आखिर कार पूरी गठरी निचोड़ कर चूसने के बाद कैंसर ले गया पिताजी को अपने साथ। अब ना पिताजी थे ना धन की गठरी... हाँ समय है काफी पिताजी के प्रति लगाव जो उत्पन्न होने लगा था।
