चर्चा: मास्टर & मार्गारीटा 16

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मृत्युदण्ड

पोंती पिलात और येशुआ-हा-नोस्त्री से सम्बन्धित उपन्यास का यह दूसरा अध्याय है।

इस अध्याय में मृत्युदण्ड की सज़ा सुनाए गए कैदियों के गंजे पहाड़ पर लाए जाने का वर्णन है और इसके बाद वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति की उस सुलगती गर्मी में हो रही दुर्दशा का वर्णन है; कैदियों के पास हम अध्याय के अंत में ही पहुँचते हैं। एक नए पात्र लेवी मैथ्यू से भी पाठकों का परिचय होता है।बुल्गाकोव ने इस अध्याय में जिन शब्दों का प्रमुखता से प्रयोग किया है वे हैं: सूरज, शैतानी गर्मी, झुलसाता सूरज। ये सब सैनिकों और उनके कमाण्डरों पर कैसा प्रभाव डालते हैं इसका सजीव वर्णन किया गया है।

साधारण सैनिकों को थोड़ी-थोड़ी देर बाद पानी पीने के लिए जाने दिया जा रहा था, उन्हें अपने सिर की पगड़ी गीला करने की इजाज़त भी दे दी गई थी, मगर कमाण्डर अपनी सहनशीलता और धैर्य की मानो मिसाल प्रस्तुत कर रहे थे। मार्क क्रिसोबोय का आचरण तो बड़ा ही शानदार “सूरज सीधे क्रिसोबोय पर पड़ रहा था, उस पर तो कुछ असर नहीं हो रहा था, मगर तमगों के शेरों की ओर तो देखते नहीं बन रहा था, उनसे निकलती उबलती चाँदी की चमक आँखों को अन्धा किए दे रही थी।

क्रिसोबोय के विद्रूप चेहरे पर न तो थकान दिखाई दे रही थी, न ही अप्रसन्नता; और ऐसा लगता था मानो यह भीमकाय अंगरक्षक पूरा दिन, पूरी रात, और एक और दिन – यानी जितने दिन चाहो इसी तरह चल सकता है। उसी तरह चल सकता है ताँबा जड़े भारी-भरकम पट्टे पर हाथ रखे; उसी तरह गंभीरता से कभी वध-स्तम्भों पर लटक रहे कैदियों को या फिर श्रृंखलाबद्ध सिपाहियों को देखते हुए; उसी तरह उदासीनता से जूते की नोक से अपने पैरों के नीचे आई हुई, समय के साथ सफ़ेद पड़ चुकी मानवीय हड्डियों के टुकड़ों और छोटॆ-छोटे कंकर-पत्थरों को हटाते हुए।” ज़रा सोचिए कि बुल्गाकोव इतनी बारीकी से क्रिसोबोय की गतिविधियों का वर्णन क्यों कर रहे हैं:

अध्याय 2 में हमने देखा था कि क्रिसोबोय येरूशलम की सुरक्षा सेनाओं के प्रमुख थे। वह अपनी बटालियन के सबसे ऊँचे सैनिक से भी ज़्यादा ऊँचे थे। क्रिसोबोय इतने भारी-भरकम, इतने विशालकाय थे, उनके कन्धे इतने चौड़े थे कि उन्होंने अभी-अभी उदित हुए सूरज को पूरी तरह ढाँक लिया था।इस अध्याय का घटनाक्रम दोपहर को घटित हो रहा है। सूरज हर चीज़ को मानो जला रहा है, मगर क्रिसोबोय उससे पूरी तरह उदासीन है। वह अपना काम किए जा रहा है, जैसे इस शैतानी सूरज का उन पर कोई असर ही न हो रहा हो, अपने हाथ ताँबे के पिघलते पट्टे पर रखे, समय के साथ सफ़ेद पड़ गईं मानवीय हड्डियों को ठोकर मारते।।।जैसे उसे मौत की, हड्डियों की, शैतानी सूरज की आदत हो; उसके पास जैसे दिल ही नहीं है, वह सिर्फ एक मशीन है जिसे लोगों को मौत के घाट उतारने के लिए बनाया गया हो!

बुल्गाकोव कहते हैं कि मृत्युदण्ड के बाद का चौथा घण्टा बीत रहा था।।।तीन घण्टे बीत चुके थे।।।अगर आप प्राचीन काल से बुल्गाकोव के समय को जोड़ना चाहें तो यह समझ सकते हैं कि सूरज उस व्यक्ति को दर्शाता है जो उस समय के लोकप्रिय नारे - ‘स्टालिन-हमारा सूरज’ – से प्रदर्शित होता है।।।और अगर आप एक घण्टे को एक दशक मानें तो यह अंदाज़ लगा सकते हैं कि यह ताब्दी का चौथा दशक था, याने तीस का दशक जसूरज ने वाक़ई में हर चीज़ को जलाना आरम्भ कर दिया था मगर इसका   क्रिसोबोय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था, वह सत्ता के हाथों में एक उपकरण की तरह था। लेवी मैथ्यू की ओर देखिए। मैं पवित्र बाइबल में प्रयुक्त वास्तविक नाम का प्रयोग नहीं कर रही हूँ। उसके बारे में हमें क्या ज्ञात होता है?

 - कि वह एक टैक्स-कलेक्टर था;

 - कि वह अपने आपको येशू का इकलौता शिष्य कहता है;

 - कि वह येशू को सूली पर चढ़ाए जाने से पहले मार डालना चाहता था ताकि उसे सूली की यंत्रणाओं से मुक्ति दिला सके।

इन बातों का पवित्र बाइबल में दिए गए वर्णन से मिलान कीजिए।

एक और बात:

जिन्हें सूली पर चढ़ाया गया था उनकी नाभि में भाले की नोक चुभोकर उन्हें मार डालने से पहले उन्हें पानी दिया जाता है:

 “पियो!” जल्लाद ने कहा और पानी में डूबा एक स्पंज का टुकड़ा भाले की नोक पर सवार होकर येशू के होठों के निकट पहुँचा। उसकी आँखों में कुछ चमक दिखाई दी, वह अत्यंत अधीरता से उस पानी को चूसने लगा।पास के वध-स्तम्भ से दिसमास की आवाज़ सुनाई दी:

”यह अन्याय है! मैं भी वैसा ही डाकू हूँ, जैसा यह है!”

दिसमास चुप हो गया। येशू जल में डूबे स्पंज से दूर होकर प्रयत्नपूर्वक मीठी और विश्वासयुक्त आवाज़ में बोलने की कोशिश करने लगा, मगर आवाज़ भर्राई हुई ही निकली, उसने जल्लाद से कहा “उसे भी पानी पिलाओ।”

हम पिलात - येशुआ-हा-नोस्त्री से सम्बन्धित अगले अध्याय में इस प्रसंग पर लौटेंगे, तब तक के लिए इसे दिमाग के किसी कोने में पड़ा रहने दें।

इस अध्याय के कुछ वाक्यों पर ध्यान दीजिए:

जब लेवी मैथ्यू येशू तक नहीं पहुँच पाया, तो वह गंजे पहाड़ की पिछली ओर चला गया।।।वह ईश्वर को कोस रहा है और उससे पूछ रहा है कि वह येशू को इतनी पीड़ा क्यों दे रहा है। फिर उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं और भगवान को शाप देने लगा।।।कुछ देर बाद जब उसने अपनी आँखें खोलीं तो देखा कि सूरज समुन्दर तक पहुँचने से पहले ही लुप्त हो गया है, जहाँ वह हर शाम डूबा करता था। उसे निगलते हुए पश्चिम से आकाश पर भयानक बादल निडरता से बढ़ा चला आ रहा था। उसकी किनार सफ़ेद झाग जैसी थी, काले आवरण से पीली चमक बार-बार दिखाई देती थी। बादल दहाड़ा। उसमें से रह-रहकर अग्निशलाकाएँ निकलने लगकहीं बुल्गाकोव पश्चिम से हुए आक्रमण की ओर तो इशारा नहीं कर रहे हैं?

अचानक तेज़ बारिश होने लगी जिसने अंगरक्षक को आधे रास्ते में दबोच लिया। बारिश इतनी तेज़ थी कि नीचे भागते हुए सिपाहियों को दबोचने के लिए पहाड़ पर से पानी के उफ़नते हुए रेले दौड़ने लगे। सिपाही गीली मिट्टी पर फिसलने लगे, गिरने लगे। वे मुख्य मार्ग पर पहुँचने की कोशिश कर रहे थे, जहाँ उफ़नते पानी में तार-तार भीगा हुआ घुड़सवार दस्ता येरूशलम जा रहा था। कुछ मिनटों के पश्चात् तूफ़ान, पानी और अग्नि के तांडव के बीच पहाड़ी पर केवल एक आदमी बचा था। वह बेकार में ही चुराए हुए चाकू को संभालते, फिसलन भरे स्थानों से बचते, हर सम्भव सहारे को तलाशते, कभी-कभी घुटनों के बल रेंगते वध-स्तम्भों की ओर बढ़ा। कभी वह पूरी तरह अँधेरे में डूब जाता था, तो कभी बिजली की चकाचौंध उसे आलोकित कर वध-स्तम्भों के निकट पहुँच कर उसने अपने लथपथ कोट को उतार फेंका, केवल एक कमीज़ में वह येशू के पैरों से लिपट गया। उसने सभी रस्सियाँ काट दीं, नीचे वाले क्रॉस पर चढ़ा, येशू के शरीर का आलिंगन करते हुए उसके दोनों हाथ मुक्त कर दिए। गीला, नंगा येशू का बदन लेवी को साथ लिए भूमि पर गिर पड़ा। लेवी उसे अपने कंधों पर उठाना चाह रहा था तभी किसी ख़याल ने उसे रोक दिया। उसने वहीं पानी में डूबी धरती पर उस शरीर को छोड़ दिया और लड़खड़ाते, फिसलते पैरों से अन्य दो वध-स्तम्भों की ओर बढ़ा। उसने उनकी भी रस्सियाँ काट दीं और दो और मृत शरीर ज़मीन पर गिर पड़े। कुछ और क्षणों के बाद पहाड़ की चोटी पर बचे थे केवल वे ही दो मृत शरीर और तीन खाली वध-स्तम्भ। पानी के थपेड़े इन शरीरों को उलट-पलट रहे थे।इस समय पहाड़ी पर न तो लेवी था और न ही येशू का शरीर।

तो, लेवी मैथ्यू येशू के मृत शरीर को वध-स्तम्भ से नीचे उतारकर कहीं ले जाता है !

क्या यह सब वास्तव में हुआ था ?

हम इस प्रसंग पर 25वें और 26वें अध्याय में लौटेंगे।


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