चमेली
चमेली
घर में शादी का माहौल, चारों तरफ़ मंगल गीत गाए जा रहे थे। इतने में ही रमेश ने अपनी नव वधू के साथ गृह प्रवेश किया। आँगन में सभी के चेहरे खिल उठे। बहु घर में आई ही थी कि “चमेली” अपनी मंडली के साथ गीत गाती, ढोलक पीटती हुई दरवाज़े पर आ खड़ी हुई।
रमा देवी ग़ुस्से से खीझकर बोली –“ लो! बस इसी की कमी थी। अभी काम क्या कम थे जो ये सिर पर आ के धमक गई।“ “मेहनत के पैसे लुटाओ इन लोगों पर, ना खुद काम के है ना परिवार है। बस मुफ़्त में पैसे लूटने आ जाते है, जाहिल कहीं के” ।
रमा देवी की बातें शूल बनकर चुभ रही थी चमेली के मन पर, मगर वह तो मगन होकर नव वधू का स्वागत कर रही थी। उसकी बलाएँ खुद पर लेने की बातें कर के दुआएँ दे रही थी। ये सब देखकर राम प्रसाद जी अपनी पत्नी रमा देवी से बोले-
“अरे! चिढ़ती क्यों हो भागवान, तुम्हारे घर की बलाएँ ही तो लेकर जा रही है”। मगर रमा देवी का क्रोध शांत ना हुआ।
काफ़ी देर अपमानित होकर आख़िर में चमेली को उसकी मेहनत के पैसे उसके मुँह पर फेंक कर मिल ही गए। जाते जाते रमेश ने आशीर्वचन देते हुए बोला – “जाओ! जाओ! ले जाओ पैसे, तुम लोगों का धर्म, ईमान नोट के टुकड़े ही तो है। कुछ भी कर सकते हो ना तुम लोग इस ख़ातिर”। रमेश की व्यंग्य पूर्ण हँसी चमेली के दिल को रौंध गई।
मगर चमेली ख़ुशी-ख़ुशी वहाँ से निकल गई क्योंकि उसे अपने बच्चों की फ़ीस जो जमा करनी थी। क्या? बच्चे? एक किन्नर के बच्चे? स्कूल में अन्य बच्चों के माता-पिता की नज़रों में वह ये प्रश्न पढ़ सकती थी। उनके स्वभाव ने चमेली को उस स्थान पर ला खड़ा किया जिस नरक से वह उन्हें बचा लाई थी। उत्तर प्रदेश के गाँव से अपहरण कर लिया था, दरिंदों ने उन अनाथ बच्चियों का, नाच गाने व जश्न मनाने के लिए चमेली की मंडली को ज़बरन उठा लाए। बहुत मना करने पर भी बेरहमों ने चमेली को खूब मारा क्योंकि उसने उनके सामने नाचने के लिए घुटने नहीं टेके।
चमेली को उसी कोठरी में बंद कर दिया था जिनमे उन बच्चियों को बांध कर रखा था। बहुत घबराई हुई थी बेचारी, दोनो ने अपनी आप बीती सुनाई। तब जान हथेली पर रख कर, उनके चंगुल से छुड़ाया और खुद अनेक यातनाएँ झेल कर वापिस लौट आई।
मैडम फ़ीस, सुनते ही अतीत से वर्तमान में लौटी। फ़ीस भरते हुए उसके मन पर और चेहरे पर वही ख़ुशी थी जो हर साधारण माँ – बाप के मन पर होती है। आज वो ख़ुश थी क्योंकि उसने दो बच्चों की ज़िंदगी सवारने का निर्णय लिया। समाज में जो सम्मान उसे ना मिला वह वो सम्मान अपने बच्चों को दिलवाएगी। कहा भी तो जाता है – संस्कार बचपन से बालक में डाले जाते है तो वही समाज में आपका दर्जा भी बढ़ाते है, उसकी बच्चियाँ भी बस वही करेंगी। ऐसा सोच फिर चल पड़ी अपनी राह पर, दो बच्चियों का भविष्य भी तो उसी को संवारना था ना!
