चलती हूँ मैं

चलती हूँ मैं

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'रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीता राम' की धुन में डोर बेल बजी, तो मालती दरवाज़े की ओर बढी।
दरवाज़ा खोला तो देखा पड़ोसन साधना खड़ी है एक सुन्दर सी साड़ी मेंं 'वाव कितनी खुबसुरत साड़ी है, भाई साब ने दिलाई है न।'

'अरे साड़ी-वाड़ी छोड़ तु मुझे जल्दी से २४ हरी मिर्च देदे जल्दी में हूँ वो आज सुदामा भी नहीं आया, ना तो उससे ही सब्जिया ले लेती।' '

'अरे इतनी भी जल्दी क्या है' कहते कहते वो मिर्च लेने चली गई। जब तक वो मिर्च लेके आई तब तक साधना की नज़र हॉल के नए पर्दो पर पड़ चुकी थी।

पूछा 'कब लाई? कहाँ से लाई? कितने के लाई?' एक सासँ में कई सवाल कर डाले। कहने लगी 'बहुत ही खुबसुरत है' मालती ने भी सब बताया,. खड़े खड़े इस विषय पर बात करते करते १०-१५ मिनट हो गए। तो मालती ने फिर एक बार टोका 'चलो बैठते हैं, साथ चाय पिये भी कई दिन हो गए है, मैं चाय बना के लाती हूँ।'

'अरे नहींं नहींं मेंरा घर खुला पड़ा है कोई नहीं है घर मेंं, चलती हूँ।' जब मिर्च हाथ से लेने लगी तो साधना की नज़र मालती के हाथो पर पड़ी, तो कहने लगी 'हीरे जड़े कड़े! क्या बात भाई साब ने स्पेशल गिफ्ट दिया है क्या?'

कंधे से उसके कंधे को छुते हुए साधना ने कहा 'अरे नहीं बाजार गई थी तभी ले कर आई थी' मालती ने बताया।

एक बार फिर मालती ने कहा 'चलो बैठते हैं'
'नहीं नहीं' कह के वो दरवाजे की ओर जाने लगी।


देहली तक ही पहुची थी कि उसे याद आया कि मिसेज चड्डा का तलाक हो गया है। तो वो ये गरमा गरम खबर देने फिर लौट आई।
कहने लगी 'अरे तुझे पता है मिसेज चड्डा का तलाक हो गया है, उनके ही घर में काम करने वाली बाई की वजह से।'

'अच्छा!' आश्चर्य से मालती ने कहा
'हाय रे क्या ज़माना आ गया है, अब तो बाई रखने का भी धर्म नहीं रहा। मैं तो कल ही हटा दुगी काम से, हॉ।'
और फिर ५ १० मिनट तक खड़े खड़े बात करती रही।
और कहा 'हमे क्या कोई कुछ भी करे।' मालती ने एक बार फिर उसे बैठाने का प्रयास किया मगर वो जल्दी मेंं जो थी कहा बैठने वाली थी।
इस बार वो सच में जाने लगी तब कहा अभी तो मेरे पास वक्त नहीं था। फिर आउंगी फुर्सत में फिर धंटो बात करेगे , चाय की चुस्की के साथ।
मालती ने सोचा जब जल्दी में ही घंटा लगा गई तो,
फुर्सत में तो...

हा...हा...हा...।


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