चिन्तन, चिन्ता और चिता
चिन्तन, चिन्ता और चिता
बड़ा गजब का रिश्ता है भई चिन्तन, चिन्ता और चिता में। बिल्कुल उसी तरह का जैसे पति, पत्नी और वो में होता है। जैसे जैसे उम्र बढती जाती है तो आदमी "चिता" के नजदीक जाने लगता है। और जैसे जैसे वह चिता के नजदीक जाने लगता है तो डर के मारे उसके हाथ पांव फूलने लगते हैं और उसे चिन्ता सताने लगती है। चिन्ता के कारण उसे नींद नहीं आती है। बड़ी मुश्किल से थोड़ी देर के लिए यदि आंख लग भी जाती है तो सपने में "यमराज" जी दिखाई देने लगते हैं। बड़े खतरनाक वाले "नर्क" दिखाई पड़ते हैं। कोई गर्म तेल वाला तो कोई जोंक वाला। सपने में ही आदमी की घिग्घी बंध जाती है और डर के मारे उसकी चीख निकल जाती है।
जैसे ही उसकी चीख निकलती है उसके बगल में लेटी बीवी को लगता है कि वह उसकी "शक्ल" को देखकर डर गया है। इसलिए वह दूसरे दिन से ब्यूटी पार्लर जाकर सोने से पहले मेकअप करवाने लग जाती है कि कम से कम रात में उसकी शक्ल देखकर उसका मर्द डरे तो नहीं। मेकअप वाली सुंदर सी शक्ल देखकर खुद भी चैन से सोये और उसे भी चैन से सोने दे। पर बीवी बेचारी को क्या पता कि उसकी नींद तो चिता की चिन्ता ने उड़ाई थी, न कि शक्ल सूरत ने।
जब आदमी चिन्ताग्रस्त होता है तो उसे हमारे जैसे ज्ञानी लोग याद आते हैं। वैसे भी आजकल ज्ञानी लोग मिलते ही कहां हैं। वो तो भगवान ने हमें "इकलौता" ज्ञानी बनाया है इस संसार में। वर्ना आप मशाल लेकर निकल पड़ो ढूंढने, कोई मिल जाए तो बताना मुझे। मैं भी देखना चाहता हूं किसी महाज्ञानी को।
तो हमारे पड़ोसी चिन्ता मल जी चिन्ता के मारे दुबले हुए जा रहे थे। सारा संसार घूम आए लेकिन उन्हें कोई ज्ञानी जी नहीं मिले तो किसी ने उन्हें हमारा पता दे दिया और वे ढूंढते ढूंढते हमारे पास आ गये। एक कहावत है न की गांव का जोगी जोगणा और आन गांव का सिद्ध। हम तो उनके पड़ोसी हैं तो वे हमें ज्ञानी मानने के लिए तैयार ही नहीं हुए। इसलिए उन्हें मेरे पास भेजने वाले आदमी से एक बार पहले कन्फर्म करवाया तब जाकर हमारी कृपा की इच्छा चाही।
इस देश की संस्कृति है कि जो भी आदमी एक बार किसी के दर पर आ जाता है तो उसकी ख्वाहिश पूरी करना मेजबान का धर्म हो जाता है। उनकी समस्या अब उनकी कहां रही वो तो हमारी बन गई। हमने उनकी समस्या जानी तो उन्होंने चिन्ता और चिता के बीच फंसी जान का जिक्र किया और हमसे इसका कोई उपाय पूछा।
हमने कहा "बच्चा, ऐसी कौन सी समस्या है जिसका निदान हमारे मनीषियों ने नहीं किया हो ? पर समस्या तो यह है कि हम पढते तो पाश्चात्य साहित्य हैं और फिर भारतीय संस्कृति पर पचास प्रश्न दागते हैं। शास्त्रों में आपकी इस समस्या का भी समाधान बताया है। और इसका एक ही समाधान है कि "जाओ और जाकर चिंतन करो"।
चिन्ता मल जी हमारी बात सुनकर हक्के बक्के रह गये। उन्हें "चिंतन" के बारे में कुछ नहीं पता था। तो हमने कहा " तुम कौन हो ? कहां से आये हो ? क्यों आये हो ? कब जाओगे ? कहां जाओगे ? आदि प्रश्नों के जवाब खोजना ही चिन्तन कहलाता है। जाओ और तुरन्त चिन्तन शुरू कर दो"
वे हमारी बातों पर उपहास उड़ाने वाली मुद्रा में हंसे और कहने लगे " बस इतनी सी बात ? ये तो मैं अभी एक मिनट में ही बता देता हूं"। कहकर वे"गूगल" करने लगे।
हमने कहा "इन सवालों का जवाब गूगल से नहीं "चिन्तन" से ही मिलेगा चिन्ता मल जी। जाओ , किसी हिमालय की कंदरा में बैठकर "ध्यान" लगाओ। "समाधिस्थ" हो जाओ और प्रभु से नाता जोड़ लो। जब चिंतन पूरा हो जायेगा तो फिर चिता की भी चिन्ता नहीं सताएगी आपको और तब नर्क नहीं स्वर्ग दिखाई देगा सपनों में आपके "।
वे बोले "क्या हमें वैसा चिन्तन करना है जैसा इस देश की सबसे पुरानी पार्टी कर रही है इस समय उदयपुर में" ?
हमने कहा " बिल्कुल ठीक समझे। वैसा ही चिन्तन करना है तुम्हें। पर एक बात का ध्यान रखना कि आदमी को चिन्तन पहाड़ों और कंदराओं में करना होता है। शरीर को प्रकृति के तापमान में गलाना, तपाना और झुलसाना पड़ता है। मन पर नियंत्रण करना पड़ता है और ध्यान परम पिता परमेश्वर में लगाना होता है। लेकिन ये राजनीतिक दल बड़े बड़े पंचसितारा होटलों में ए सी कमरों में बैठकर चिन्तन करते हैं। छप्पन भोगों का आस्वादन करते हैं। सुरा की नदियों में तैरते हैं। और क्या पता "अप्सराओं" के साथ भी थोड़ी मौज मस्ती करते हों ? और रही ध्यान की बात ! तो चिन्तन में शामिल होने वाले नेताओं का सारा ध्यान एक "खानदान" विशेष की चापलूसी, जी हुजूरी और गुलामी करने में ही लगता है।
वस्तुत : राजनीतिक दल चिन्तन तब करते हैं जब उनका अस्तित्व दांव पर लगा होता है। जनता उन्हें दुत्कार देती है। हर चुनाव में उन्हें हार पर हार मिलती है। कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर भाग रहे होते हैं। कोई नया नेता पार्टी में आने को तैयार नहीं होता है। भविष्य में दूर दूर तक सत्ता सुंदरी के दर्शन होने की कोई संभावना नजर नहीं आती है। तब चिन्तन शिविर की जरूरत महसूस होने लगती है। लेकिन इस बात से ये मत समझ लेना कि इन चिन्तन शिविरों से चिन्ता खत्म हो जाती है। बल्कि और बढ़ जाती है।
वस्तुत: इन चिन्तन शिविरों में किसी को ना तो देश की चिंता होती है और न ही पार्टी की। दरअसल उन्हें चिन्ता होती है खुद की। पार्टी नेतृत्व को चिन्ता इस बात की रहती है कि पार्टी पर उनका नेतृत्व कैसे बरकरार रहे। उनके आसपास कोई दूसरा नेता फटकने भी नहीं पाये। खानदान विशेष के लोगों का मानना है कि पार्टी का नेतृत्व करना उनका जन्म सिद्ध अधिकार है और इसके लिए यदि विभाजन कारी राजनीति भी करनी पड़ें तो भी कोई गम नहीं है। पार्टी तो जेब में ही रहनी चाहिए और ऐसा करने से यदि पार्टी खत्म भी हो जाये तो होने दो। क्या फर्क पड़ता है उन्हें।
बाकी नेता लोग अपनी पोजीशन, टिकट , पद वगैरह के लिए उस चिन्तन शिविर में आते हैं। वफादारी की कसमें खाते हैं। खुद का टिकट कन्फर्म करा लेते हैं और फिर चले आते हैं। बस, हो गया चिन्तन शिविर । खैराती मीडिया इस पर बड़ी बड़ी खबर चलाते हैं और अपने लिए कोई राज्य सभा की सीट या पद्म पुरस्कारों की व्यवस्था कर लेते हैं। आम के आम और गुठलियों के दाम "।
चिन्ता मल जी को "चिन्तन" का नुस्खा मिल गया था। अब समय बर्बाद करना उचित नहीं था इसलिए वे हिमालय की कंदराओं की ओर चल दिए।
