shashi kiran

Inspirational

3.5  

shashi kiran

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छोटा सा बाज़ार

छोटा सा बाज़ार

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काज़ल पड़ोस वाले छोटे से बाज़ार का कभी रुख न करती, वो हमेशा बड़े शोरूम या मॉल से ही शॉपिंग करती। जब से नौकरी लगी, उसका रहन-सहन बदलता जा रहा था । 


आज भी ! मॉल से कुछ नए कपड़े खरीदे और कुछ सामान, जो वहाँ नहीं मिला, उसे खरीदने की सोच रास्ते में ही उतर गई।

यूँ तो बाजार उतना भी छोटा न था पर अब, काजल का रुतबा बड़ा हो गया था उसे जमाने के साथ चलने के लिए सब नया चाहिए था जो इस बाजार में बमुश्किल ही मिल पाता, और आज भी वही हुआ, जो सामान लेने बाज़ार आई थी, वो मिला ही नहीं। 

एक गहरी सांस लेकर वापिस मुड़ी कि थोड़ी दूर एक ठेले पर एक कम उम्र लड़का टोपी दस्ताने, जुराबें और छोटे बच्चों की पजामियाँ बेचता हुआ दिखाई पड़ा।

 काज़ल ने ठिठोली के मारे उससे जाकर पूछा, " भैया ! आपके पास स्किन-कलर की जुराब है ? 

लड़का बोला "जी दीदी, है ! ये देखिए।" अरे ! ये नहीं! ये तो, बहुत मोटी है, हल्की, बारीक वाली लगभग पारदर्शी सी। लड़का अचरज में अपना सर खुजाने लगा। 


ओह्हो ! तभी काजल ने अदब से अपनी महंगी जूती से पैर बाहर निकाला और गर्दन झटका कर बोली, "भैया ये देखो" ! लड़के ने पैर की तरफ देखा और दंग रह गया उसकी आँखें फैलती ही जा रहीं थीं, उसके आश्चर्य का अंत न था, धीमे स्वर में गर्दन हिलाते हुए बोला... "इतनी 'पारदर्शी'.... तो... नहीं...है...दीदी। 

उफ़्फ़ ! कुछ नहीं मिलता यहाँ, काजल झुंझला कर पैर जूती में रखने लगी पैर पर नज़र पड़ते ही उसके होश उड़ गए, उसका जुराब उसके  नाखून के दबाव से फट चुका था और उसका अँगूठा बगल वाली उंगली के साथ खींसे निपोर रहा था…!,


काजल ने झट से जूती में पैर बढ़ाया और लम्बे-लम्बे डग भर छोटे से बाज़ार से बाहर निकल गयी ।



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