बूढ़ा और कुआँ

बूढ़ा और कुआँ

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गाँव के बाहर एक कुआँ था - रहता तो हमेशा पानी से भरा था, पर काम कम ही आता था| असल मे बहुत साल पहले वो गाँव के अछूतों द्वारा इस्तेमाल किया जाता था| अब आज़ादी के इतने सालों बाद छुआछूत जैसी बातें कानून की किताबों मे बेशक ना हों, लोगों के दिलों पर वह अब तक राज कर रही थी| वैसे आप गाँव के किसी नागरिक से पूछेंगे कि वह कुँए का इस्तेमाल क्यों नहीं करते, तो वह यही बोलेंगे कि कुआँ बहुत दूर है, इसलिए कोई उसका पानी नहीं लेता| पर मैं जानता हूँ - यह सच नहीं है|

पर धीरे-धीरे गाँव की आबादी बढ़ी, और उसके साथ-साथ वहां रहने वालों की ज़रूरतें| विकास के काम से गाँव का क्षेत्रफल बढ़ा और आज स्थिति कुछ ऐसी थी कि पश्चिम से आणि वाली सड़क का पहला पड़ाव कुआँ ही था| पिछले कुछ सालों मे कुँए के नज़दीक एक प्राथमिक विद्यालय की स्थापना भी हुई थी - पर कुआँ अब भी बेचारा उदास ही खड़ा था| किसी भी माँ-बाप ने अपने जिगर के टुकड़े के भविष्य के साथ चांस नहीं लिया - परिणामस्वरूप अधिकतर बच्चे अपने साथ शहर में खरीदी हुई प्लास्टिक की पानी की बोतल में घर से पानी लाते थे| वैसे मैने कुँए का पानी पी रखा है, और बता सकता हूँ कि पानी बहुत मीठा है| खैर, हमारी कहानी स्कूल की स्थापना के कुछ ५ साल बाद हमें उसी कुँए पर ले आती है|

एक दिन, फाटे-पुराने कपड़ों मे, पर तेज़-तरार चाल-ढाल वाला ५५-६० साल का एक बूढा पश्चिम से गाँव मे प्रवेश किया, और कुँए के नज़दीक के पेड़ की छाँव मे बैठ गया| उसका कुर्ता - पायजामा कभी सफ़ेद दिखते होंगे, पर अब मिटटी के रंग जैसे थे| सर के बाल दूध जैसे सफ़ेद थे, और रात के अँधेरे मे चाँद जैसे चमकते थे| कुल मिला कर ऐसा लगता जैसे अगर धरती का कोई बेटा होता, तो उस बूढ़े जैसा होता| उस रोज़ की बात है, सुबह-सुबह स्कूल जाते बच्चों ने उसे पेड़ के नीचे बैठ कुछ लिखते पाया|

हर रोज़ की भाँती उस दिन भी स्कूल में ७ मे से २ अध्यापक आये थे| असल में उन सातों की मित्रता काफी गंभीर थी, और एक-दुसरे का श्रम बांटने की नीति उन्होंने नौकरी मे जल्दी ही स्थापित कर ली थी| सोच लिया कि रोज़ सबको आने की कोई ज़रुरत नहीं है, बस २ लोग काफी हैं| साल के शुरू में वो ज़िम्मेदारी प्यार-भाव से बाँट लेते| पर सच कहें तो अध्यापक जितने भी होते, जवान लड़कों के पैरों की बेड़ियाँ नहीं बन सकते थे| उस दिन भी कुछ लड़के अपनी जिज्ञासा संभाल नहीं पाए, और स्कूल शुरू होने के कुछ मिनटों मे ही सफ़ेद बाल वाले बूढ़े के रहस्य की तहकीकात करने चल पड़े|

किताब में लिखते बूढ़े का ध्यान आसपास गिरे कुछ पत्थरों से टूटा| कॉपी-कलम बास्ते में रखते हुए उसने लड़कों की ओर दोस्ती से देखा, और अपने नज़दीक आने का निमंत्रण दिया| पर लड़कों को अजनबी पर शक था, तो दूर रह कर पूछते रहे, "कौन हो तुम बाबा? और यहाँ कहाँ से आये हो? और यहाँ बैठे क्या लिख रहे हो?"बूढ़े ने जवाब मे एक मुस्कुराहट दी, और बताया कि जहाँ से वह आया था वहां का पानी इतना मीठा नहीं था| कुछ लड़कों का विचार था कि बूढा पागल मालूम होता है, और उसे पत्थर मार भगा देना चाहिए| पर कुछ नर्म दिल वाले कहने लगे कि जाने कहाँ से आया है, और हमें इसे खाने को कुछ देना चाहिए| वहां से उनका वार्तालाप पागल बूढ़ों से निपटने की निपुणता मे चला गया, और बूढ़े को भूल वो चार-दीवारी मे चले गए|

अगले दिन उन्होंने फिर वही नज़ारा देखा| पेड़ के आसपास टहलता हुआ उन्हें बूढा एक किताब पढता नज़र आया| दूर से नज़रें मिलीं तो बूढ़े ने निमंत्रण दोहराया| लड़कों ने एक बार फिर उस पर विचार किया| मुड़ कर वापस देखा तो स्कूल की उदास इमारत ने उन्हें बूढ़े से मिल उसका रहस्य खोलने की शक्ति दी| धीमे-धीमे वह उसके नज़दीक पहुंचे|

"एक कहानी सुनोगे ?", बूढ़े ने पुछा| कुछ ने एक-दुसरे को देखा, तो कुछ ने हामी मे सर हिलाया| कुछ ने बाप-दादा से सीखे गुस्से से कहा, "तुम्हारी बकवास सुनने नहीं आये हैं हम यहाँ|" पर अंत मे उस दिन जीत जिज्ञासा की हुई - कुछ समय बाद देखा तो बूढा पेड़ के नीचे बैठ कहानी सुना रहा है, और उसके इर्द-गिर्द बैठ लड़के ध्यान से उसे सुन रहे थे| लड़कों को ऐसी एकाग्रता में बैठे अगर उनके अध्यापक देख लेते तो शायद हैरानी से बेहोश हो जाते| खैर, कहानी कुछ लम्बी थी और बूढ़ा कुछ दुबला-पतला| सुनाते-सुनाते खांसने लगा, और पानी लेने कुँए कि ओर बढ़ा| "यह कुँआ चमारों का है बाबा| इसका पानी मत पीना तुम|". एक बच्चे से रुका नहीं गया| बूढ़ा मुस्कुराने लगा, और होठों से पानी का स्पर्श किया|

अगले दिन वही कहानी दोहराई| बूढा लड़कों को कहानी सुनाता और लड़के उससे तरह-तरह के सवाल पूछते| कुछ के जवाब बूढ़ा उन्हें देता, और बाकी के जवाब वो मिल कर ढूँढ़ते| पहले दिन के मुकाबले लड़कों की संख्या कुछ अधिक थी| उनमे से कुछ कहानी के लंबा होने का अंदाजा लगा कर खाने का डब्बा और पानी की बोतल साथ ले कर ही आए थे| कुछ स्कूल गए ही नहीं, और घर से सीधे बूढ़े से मिलने पेड़ के नीचे पहुंचे|

सिलसिला ऐसे ही चलता रहा| हालात ऐसे हो गए कि अब स्कूल की इमारत में कोई जाता ही नहीं था| बच्चे और अध्यापक ठीक समय पर कहानी सुनने बूढ़े के पास पहुँच जाते| बूढ़े की लोकप्रियता स्कूल से निकल गाँव मे फ़ैल चुकी थी| स्त्रियां खुश थीं कि बूढ़े के कारण बच्चे अब घर से बाहर थोड़ा समय और रहते थे| पुरुष खुश थे कि बेकार स्कूल की इमारत अब उनके कुछ काम आ जायेगी| बूढ़े अब दोपहर का आराम करने की शान्ति को पा कर बहुत खुश थे| यहाँ तक की मवेशी भी खुश थे कि अब उनकी पूँछ खींचने वाला या कमर तोड़ने वाला किसी और काम में व्यस्त है|

धीरे-धीरे परिवर्तन का कुआँ खुदने लगा| अकेला पेड़ अब एकत्रित भीड़ को छाँव देने के समक्ष नहीं रहा| एक दिन बूढ़े से किसी ने पुछा, "बाबा ! तुम इतनी कहानियाँ कहाँ से लाते हो ?" लोटे से पानी पीते बूढ़े ने जवाब दिया, "यह कुआँ देख रहे हो ? इसके पानी मे जादू है| हर घूँट मे कहानी है, जितना पानी पीता हूँ, उतनी कहानियां मन मे आतीं हैं|" जवाब सुन आसपास के लोग हंस पड़े, पर सवाल पूछने वाला बच्चा आखें फाड़ कर बूढ़े को देखता रहा|

कहानियों मे लोट-पोट होते, गंभीर होते, उदास रोते, या चिंता मे शिकार होते लोगों मे फांसले कम होने लगे| अकसर श्याम मे घर लौटते समय उस दिन की कहानियां और उनके पात्रों पर चर्चा होती| कभी वो कहानी से सहमत होते, तो कभी नाराज़, कभी उससे प्रेम मे होते, तो कभी गुस्से से लाल|

पर इस सब का एक और नतीजा हुआ| वर्षों से नकारा हुआ कुआँ गाँव का एक अभिन्न अंग बन गया| हर कोई वहां पहुँच हाथ-मुंह धोता, पानी पीता, या एक दुसरे पर पानी फेंक मज़े उठाता| एक बार तो गाँव की एक बकरी कुँए मे गिर गयी - उस दिन कहानी स्थगित कर भीड़ ने बकरी कुँए से निकाली| पर कुआँ इतने काम का आदि नहीं था - धीरे-धीरे उसका स्तर गिरने लगा| गाँव का वह बच्चा जो कुँए को पानी और कहानी का सत्र मानता था अकसर लोगों को पानी व्यर्थ करने से रोकता नज़र आता| पर भाग्य मे ऐसा नहीं लिखा था - एक दिन दोपहर मे गांव वाले बूढ़े से मिलने आए तो देखा कि कुँए का पानी ख़त्म हो गया था| नज़दीक ही पेड़ के नीचे बूढ़े का मृत शरीर पड़ा था|


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