बूढ़ा अंधा नहीं है
बूढ़ा अंधा नहीं है


कभी कभी मुझे भी लगता है कि जो आदमी हमारे घर रोज रोटी मांगने आता है वो अंधा नहीं है , क्योंकि दरवाजे के अंदर झाँकती उसकी आंखें मन मे डर पैदा करती है। बहोत बार वो किसी आवाज के दिशा के तरफ देखता, जो मेरे शक की बुनियाद को और मजबूत करता। वो बूढ़ा आदमी करीब पैसठ साल का होगा, वो कहासे आया था पता नहीं, वो क्या करता है पता नहीं बस इतना बताया था कि उसे कुछ दिखता नहीं।
"शायद उसके रिश्तेदारों ने उसे छोड़ दिया होगा, क्यों कि उसने जरूर कोई गड़बड़ की होगी, वो जरूर अंधा होने का नाटक करता होगा", मेरी पत्नी, रमा मुझे अक्सर कहती। पर रास्ते पे डर के साथ जब वो चलता है तो लगता है कि रमा गलत है।
वो हफ्तेभर से रोज आ रहा था। इसीलिए कई बार रात को सोने से पहले मेरे और रमा के बीच उसीकी बाते होती।
"आज वो बूढ़ा आधे घंटे तक रुका था, मैं काम मे थी तो ध्यान नहीं गया, वो वही बैठ गया था ।"
"तो कुछ दिया कि नहीं?"
"बिना कुछ लिए वो जाता थोड़ी है । कल की दो रोटी और सब्जी दी थी। पानी भी पिलाया।" सफेद छत की दीवार पर नजर टिकाये उसने अपनी बात आगे बढ़ाई,"वो कह रहे थे, की अगर हम जैसे भले लोग ना होते तो वो भूक के कारण ही मर जाते ।"
चलो उसे हमारी थोड़ी तो कदर है ये जानकर मैने सोने केलिए करवट बदली पर रमा की बाते शायद आधी रात तक चलने वाली थी।
"आप तो आफिस चले जाते हो। मैं तो घर मे अकेली ही रहती हूँ। कभी कभी उसका डर भी लगता है। कही कुछ हो गया….
"वो रोटी ही तो मांगता है रमा, तुम ना ज्यादा सोचा ना करो, सो जाओ अभी" मैने रमा को तो समझा दिया पर अब नींद आना शायद मेरे नसीब में नहीं थी। कही रमा का शक सही हो और वो कुछ अनहोना करदे तो? , रमा दोपहर को अकेली ही रहती है ये बात मुझे उस अंधी आंखों की याद लाती जो घूर रही है।
अगले दिन मेरी छुट्टी थी। नहाधोकर मैं सुबह ही राशन लाने निकल गया। उस दिन मुझे समझ आया कि लोग कितना खाते है। जितना राशन हमे तीन महीने तक चलता वो लोग एक महीने के लिए लेके जा रहे थे। लंबी लाइन थी। मुझे घर आने में देर हो गयी। उस भीड़भाड़ वाली जगह से मैं ऐसे निकला जैसे कोई चूहा अपने बिल में से निकलता है, एकदम चुपके से, बिना आवाज किये। हालांकि इसका कारण कोई चोरी नहीं बल्कि एक बातूनी इंसान से बचना था।
में घर आया तो देखा दरवाजे पर तो वही बूढ़ा आदमी खड़ा है। मेरे कदम घर मे काम कर रही रमा केलिए बैचेन हुए और मैने अपनी गति बढ़ा ली। पास जाने लगा तो समझा कि ये बूढ़ा तो कहि घूर रहा था। हा वो अंधा था पर अगर रमा की बात सच निकली तो? शायद आज मेरी जीत होजाये और मैं रमा को गलत साबित कर सकू इसी सोच में में धीमी गति में आगे बढ़ा। में ठीक उसके पीछे जाकर खड़ा हो गया और उसी दिशा में देखना शुरू किया। मेरे शरीर मे अचानक कोई तीव्र ऊर्जा बही जिसने मेरे मन मे इतना डर पैदा किया कि मेरे मुंह से आवाज निकल गयी। रमा नहाकर घर के पीछे वाले आंगन में बाल सूखा रही थी। वो पीठ दिखाकर बैठी थी। सूरज की किरणे गीले पीठ पर चमक रहे थे। रमा का ध्यान इधर नहीं था। मेरे आवाज करने से बूढ़ा आदमी मानो जैसे खड़बड़ा गया और मेरी तरफ मुँह कर लिया।
"कौन है?" वो मेरी तरफ मुड़ गया
"तुम यहाँ, आज भी?" मैने अपने गुस्से में काबू करके बोला।
"भूक तो रोज लगती है ना बेटा….देखो जरा घर मे कुछ रात का बचा होगा…मुझे देदो"
उसकी पुतलिये मेरे तरफ नहीं देख रही थी। पर रमा अपने जगह उठ खड़ी मुझे गुस्से में देख रही थी। शायद उसने क्या हुआ सबकुछ समझ लिया। वो दिन बीत गया। पर रात में रमा ने सोते वक्त बात को छेड़ ही दिया।
"तुम उसे कल बतादो की रोज हमारे घर ना आये…या तो तुम बताओगे नहीं तो मैं बताती हूँ"
"नहीं मैं बात करता हूँ कल" मैने कह तो दिया पर बूढ़े के सामने में कैसे बात छेड़ूँगा ये मैं खुद भी नहीं जानता था।
"रोज तुम घर पर नहीं होते इस बात का भी थोड़ा ध्यान रखो…एक तो ये घर भी भीड़भाड़ के जगह पर नहीं है…घंटो तक कोई इंसान दिखता तक नहींं। "
उस रात मेरे बोलने की गुंजाइश बिल्कुल नहीं थी क्योंकि रमा के बात में दम था।
अगले दिन मैंने उसके आने का इंतज़ार किया और फिर आफिस जाने का निर्णय लिया। रोज की तरह डरे पावँ लेके वो आ गया।
"बेटी?…." उसने आवाज लगाया। उसे कैसे पता एक बेटी उसके लिए रोटी लेके आयेगी। मेरे मन मे शक के पहाड़ औ
र ऊंचे हो गए।
"जी वो ला रही है…." उसके पास खड़े होकर मैने उसके उपर सवालो के पत्थर बरसाना शुरू किये।
"वैसे बाबा तुम कहा के रहने वाले हो? कोई घर है?" इन दोनों सवालो के जवाब उसने "नहीं" ऐसे दिए। शायद घटती उम्र का असर उनके दिमाग पर भी हावी था। "आप अंधे कबसे हो?" तेज गति से अपनी गर्दन बूढ़े ने मेरी तरफ मोड़ी।
"मैं अंधा नहीं हूँ" उसकी आवाज मानो जैसे मुझे डाट रही थी। पैर लड़खड़ा कर थोड़े डर से पीछे हो जाते पर मैंने खुद को संभाल लिया। उसके उत्तर से लगा जैसे किसी के षड्यंत्र का भाग बन चुका हूं।
"मुझे अंधा बनाया गया….मेरे साथ धोखा किआ" मैने चैन की सांस भरी।
"मेरे खुद के बहु ने मेरी आँखें ले ली। मेरा बेटा भी मर गया। वो उसकी खूसट बीवी ने उसे मार दिया। हमारी जमीन हड़प ली। मुझे रास्ते पर छोड़ दिया।"
"तो आप पुलिस के पास…."
"पुलिस कुछ नहीं कर सकती। उसने पहले मेरे बेटे को अंधा किया और अपने नाम जमीन करवा ली, फिर मुझे अंधा करके हमारा मकान हड़प लिया। मेरे बेटे को जरूर उसने मार कर कही दफना दिया होगा। मैं मरना नहीं चाहता, इसलिए भाग गया।"
किसी की जिंदगी इतनी भी बत्तर नहीं हो सकती, शायद ये बूढ़ा अब भी झूठ ही बोल रहा था। मैं उसे कहने ही वाला था कि कल से आप यहाँ ना आओ तबतक वो चला गया। शायद उसकी कोई गुप्त बात अब मुझे पता थी, इसलिए वो इस घर के आंगन में अब कभी पैर नहीं रखेगा ऐसा मुझे लग रहा था, इसलिए मैंने रमा को भी झूठ बोल दिया। अब वो नहीं आएगा। वो बूढ़ा अंधा ही हो ऐसा मुझे लगता था क्यो की अगर वो नाटकी हो तो अबतक उसने नजाने रमा को कितने बार निहारा होगा। हफ्ते के छह दिन तो मैं दफ्तर में ही रहता हूं ,और ये बात मेरे मन मे डर पैदा करती। हो सके तो ये जो शक जो हम पति पत्नी मन मे लेके घूमते है वो ही खत्म हो जाये।
अगली सुबह मुझे आफिस जल्दी जाना पड़ा। अपने काम मे मैं व्यस्त था कि अचानक घर से मुझे फ़ोन आया। रमा की रोने की आवाज मुझे दफ्तर से सीधा घर के तरफ खींच रही थी। रमा ने फ़ोन पे कुछ नहीं बताया, बस इतना कहा कि तुम जल्दी घर आओ। मेरे मन मे बार बार उस बूढ़े आदमी की तस्वीर बन रही थी। उसका असली चेहरा जो किसी नाटक से नहीं ढका जा सकता वो मैं देख रहा था।
"उस बूढ़े ने मेरे पत्नी पर हाथ तो नहीं डाला होगा। भगवान करे रमा ठीक हो" दुनिया मे हो उतनी अनाबशनाब गालिया मैं उसे दे चुका था। जी कर रहा था उसे धर के जान से मार दु। घर पहुचा तो कहि पर भी नहीं देखा सीधा दरवाजे पर बैठी रमा के पास चला गया। वो मुझे देखकर और रोने लगी। क्या हुआ रमा? मेरे सवालो का कोई जवाब नहीं था। फिर सामने पेड़ के नीचे बैठे बूढ़े आदमी के तरफ नजर गयी। वो उस दिन भी सर ऊपर उठाएं आया था। उसे मारने का वही मन किया। गुस्से की ताकद से में झट से उठा और घर मे जाकर कुल्हाड़ी लेकर आया। रमा ने मेरा हाथ पकड़ा। मेरी नजर उसके कलाई पर गयी। सोने के कंगन नहीं थे। वही नज़र उसके गले पर गयी तो जाना मंगलसूत्र भी गायब था। बंदूक से गोली निकलती है वैसे मेरे अंदर की ज्वाला बाहर किसी भयानक हत्या के रूप में बाहर आती, पर रमा ने रोक लिया।
"ये उन्होंने नहीं किया" । मेरे हाथ से कुल्हाड़ी गिर गयी।
एक आदमी आया था मुझे छुरी दिखाकर सब कुछ लूट कर चला गया। मैं रमा को अपनी बाहों में समझा रहा था। समझाये भी तो क्या, रोकर सिर्फ समय को बीतने की आशा ही देख सकते है। चोर का चेहरा रमा ने नहीं देखा था उसने कपड़ा बंधा था ,पर रमा ने बताया था कि थोड़ा दूर जाकर उसने अपना कपड़ा निकाल दिया जब सामने से ये बूढ़े बाबा आ रहे थे। पर क्या कर सकते है बूढ़ा तो सच मे अंधा था। पहली बार लगा कि शायद वो बूढ़ा अंधा नहीं होता तो अच्छा होता पर यही बात कुछ दिन पहले विपरीत चाहिए थी। इंसान तो है ही मतलबी। अगर सब चीजें अपने मुताबिक मिलती तो कोई संघर्ष ही नहीं होता। पर जीवन मे आने वाले इस कठिन संघर्ष के लिए हमे क्यों चुना था? इस सवाल का जवाब मेरे पास भी नहीं था। पेड़ के नीचे बूढ़े आदमी को भी समझ आया था कि क्या हुआ था। धीरे से थोड़ा करीब आकर उन्होंने कहा,"मुझे माफ़ करदे बेटी, मैं उसका चेहरा नहीं देख सका,मुझे माफ़ करदे।" माफी मांगकर हमे ही अपने नजरो में छोटा कर दिया। हमे अकेला छोड़कर उस दिन वो बूढ़ा चला गया। और वापस कभी नहीं आया। शायद उसे पता लग गया की हमने उसपे शक किया था।