बुरी औरत हूँ मैं

बुरी औरत हूँ मैं

38 mins
1.2K


झुरमुटी शामों में उदास पपीहे की पीहू पीहू कौंच रही थी सीना और नरेन हर लहर से लड़ रहा था, समेट रहा था खुद को जब भी किसी दरीचे में कोई न कोई लहर आकर छेड़ जाती सुप्त तारों को और फिर शुरू हो जाती एक और जद्दोजहद कभी वक्त से तो कभी खुद से।

काश दिल एक जंगल होता जहाँ होते सिर्फ शेर, चीते, बाघ, लोमड़ियाँ या फिर पेड़ पौधे और कंटीली झाड़ियाँ तो शायद इतना संघर्ष न करना पड़ता उसे नहीं न, जंगल में भी जंगली जानवरों से लड़ना पड़ता है खुद के अस्तित्व को बचाए रखने को तो फिर क्या होता दिल का ? होती कोई मातमी धुन सी जो सिर्फ तभी बजती जब किसी का कोई अपना बिछड़ता, शायद सुकूँ के कुछ पल जी लेता मगर अब ?अब क्या ? कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ ? कौन समझेगा मेरी दास्तान ?


मैं जो सारे ज़माने से लड़ा सिर्फ इसलिए ताकि जी सकूँ, सुकूँ भरी ज़िन्दगी मनचाही आज खाली हाथ मसल रहा हूँ, क्या इसी दिन के लिए थी सारी जद्दोजहद ? कहाँ गलत था मैं ? सोच के भंवर में डूब गया। चट्खीला समंदर सामने था और रेत मानो चाँदी बिखरी पड़ी हो और सागर की लहरें ढूंढ रही हों उसमे अपना अस्तित्व कुछ ऐसा ही वजूद था तुम्हारा शमीना । समंदर के सीने पर किलोल करतीं तुम मानो आमंत्रित कर रही हो। ओ समंदर ! देख क्या है तुझमे इतना दम कर सके मुझसे मुकाबला। देख कैसे तुझ पर पाँव रख दिया है मैंने और तू है अब मेरी मुट्ठी में, तैराकी का हर हुनर मानो एक ही पल में आजमाना चाहती थीं तुम। जाने कौन सी डाल से छूटी चिरैया थी जिसके उड़ने को आकाश भी कम पड़ रहा था मानो झुक रहा था आसमां भी उसके क़दमों पर। जलपरी सी तुम , तुम्हारी खनकती हंसी और सुमधुर आवाज़ मानो लिखना चाहती हो समंदर के सीने पर एक दस्तावेज। है किसी में दम तो पढ़ के बताये। मेरी निगाह तो बस जो ठहरी तो ठहरी ही रही , मानो चलचित्र पर कोई दृश्य आकार ले रहा हो और देखने वाला उसी में डूब गया हो ऐसी मेरी हालत थी और इस निद्रा से बाहर तब आया जब तुम्हारे सुकोमल अंगों पर निगाह पड़ी, तुम जलपरी सी समंदर से बाहर निकलीं तो कामदेव के बाणों से बिद्ध हो मेरी निगाहें सिर्फ और सिर्फ तुम पर ही टिकी रहीं और शायद ये बात तुमने भी महसूस कर ली थी तभी, कभी कभी मुझ पर उचटती सी निगाह डालतीं और खिलखिला उठतीं, तब यूँ लगता मानो सारी कायनात में कहीं कोई संगीत बज रहा है जिसकी झंकार से चारों दिशायें गुंजरित हो उठी हों। जाने कौन सी डोर थी जिससे आकर्षित हो मैं तुम तक खिंचा चला गया और तुम्हारी अभी अभी खींची एक तस्वीर तुम्हें भेंट करने के उद्देश्य से मैंने अपना मोबाइल तुम्हें दिखाया जिसमे तुम समंदर के सीने पर किलोल करती किसी सोन मछरिया सी लग रही थीं और उसे देखते ही तुमने कहा , “इसे मुझे शेयर करें “जी जरूर, आप ही के लिए है ये। ”

“वैसे बिना आज्ञा किसी की तस्वीर लेना गुनाह है शायद आप जानते तो होंगे ?”

“जी, बिलकुल जानता हूँ लेकिन नीयत साफ़ है इसीलिए इसे आपको देने आया हूँ वर्ना चुपचाप लेकर भी जा सकता था और मनचाहा उपयोग भी कर सकता था और आपको पता भी नहीं चलता। “

“जानती हूँ तभी तो अब तक नाराज़ नहीं हुई वर्ना “ कहो तुमने वाक्य अधूरा छोड़ दिया। ये लीजिए अपनी अमानत कह मैंने उसके मोबाइल पर उसकी तस्वीर भेज दी और वो थैंक्स कह आगे बढ़ गयी और मैं वहीं उसे जाते हुए देखता रहा। न नाम पूछा न अता पता लेकिन एक नशीला सा वृत्त मेरे चारों ओर बन गया और मैं उसके प्रभाव में खो गया।


ख़्वाब और हकीक़त में कुछ तो फर्क होता है मगर यहाँ तो ख़्वाब को हकीक़त का जामा पहनाने को दिल मचलने लगा। बच्चा चन्द्र खिलौना पाने को आतुर हो उठा। जाने कितने दिन कितनी रातें इस बिस्तर ने आँखों में ही गुजरते देखीं हैं , प्रत्यक्ष गवाह है। दिनों का गुलाबी होना शायद इसे ही कहते हैं जब एक ख्याल का रेशमी बादल हर वक्त आँखों में लहराए और मन गेंद सा कभी इस पाले तो कभी उस पाले में दौड़ा जाए।

न, तुम्हारा कोई अता पता नहीं फिर भी होशो हवास पर तुमने ऐसे कब्ज़ा किया मानो जन्मों से तुम्हारा ही जर ख़रीद गुलाम होऊं। अब इस विशाल महासागर में ढूंढू भी तो कहाँ, ये दुनिया का समंदर तो बहुत बड़ा है और मेरी चाहत बहुत छोटी, सिर्फ तुम तक ही थी मेरी दुनिया सिमटी हुई और इसी आस में लगा रहा था हर गली चौराहे का चक्कर शायद कहीं दिख जाओ यदि इसी शहर की हो तो या फिर बाहरी भी हुईं तो जरूर किसी न किसी पिकनिक स्पॉट या दर्शनीय स्थल पर दिख जाओगी और शाम होते ही फिर से समंदर से हाथ मिलाने चला आता था, समंदर का शोर मानो मेरे दिल की ही तो आवाज़ थी, उसकी हर लहर मेरी बेचैनियों का प्रत्यक्ष प्रमाण ही तो थी। खोज के तीर तरकश से निकल अपनी मंज़िल की तलाश में भटक रहे थे कि एक दिन अचानक तुम दिखीं वो भी पुलिस गाड़ी में और मैंने लगा दी अपनी कार उसके पीछे और पहुँच गया पुलिस स्टेशन तुम्हारे साथ समझ नहीं आ रहा था आखिर माजरा क्या है? लेकिन पुलिस स्टेशन पहुँचते ही सारा माजरा साफ़ हो गया, जिसे मेरा मन कभी स्वीकार ही नहीं कर पाया। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, तुम वो नहीं हो सकतीं, तुम ऐसा कोई गलत कार्य कर ही नहीं सकतीं, जरूर कोई ग़लतफ़हमी हुई है, सोच मैंने तुम्हारी जमानत कराने की सोची और अपने वकील द्वारा तुम्हारी जमानत करवा भी ली और तुम्हें अपने साथ अपने घर ले आया। “पहचाना मुझे आपने ?”

“नहीं , मगर लगता है कहीं देखा जरूर है आपको “

“जी , मैं वो ही हूँ जिसने आपकी फोटो खींची थी सागर किनारे “

“ओह यस, वो ही सोच रही थी आखिर तुम हो कौन देखे भाले लग रहे हो” कहते कहते उसने सिगरेट पीनी शुरू कर दी और धुएँ के गुबार में उसका अक्स धुंधलाने लगा मगर मेरी निगाह तो उसके चेहरे से हट ही नहीं रही थी।


“क्या आप अपने बारे में कुछ बताना चाहेंगी या आपको कहाँ छोड़ दूँ यानि आपका घर कहाँ है और आप कैसे इन लोगों के साथ पकड़ी गयीं ? मुझे उत्सुकता है सब जानने की यदि आप बताना चाहें तो क्योंकि हूँ तो मैं भी अनजान ही। “देखिये मैं एक मध्यमवर्गीय लड़की हूँ। मेरे माता पिता भाई बहन सब हैं। मैं कॉलेज में पढ़ती हूँ। अब आप तो जानते ही हैं कॉलेज गोइंग गर्ल्स के कितने खर्चे होते हैं, अब वो एक सीमित आय से तो पूरे हो नहीं सकते इसलिए दूसरा दरवाज़ा खोलना ही पड़ता है, पहला दरवाज़ा एक भ्रम है और दूसरा हकीक़त । “

“ यानि मैं समझा नहीं आप कहना क्या चाहती हैं ?”

“यानि ये कि मैं यहाँ हॉस्टल में रहती हूँ और हॉस्टल में रहने वाली और लड़कियों को देखती हूँ कैसे बेहिसाब पैसा अपने शौक पूरे करने में खर्च करती हैं, तो मेरा भी दिल करता है मैं भी अपनी मनपसंद ड्रेस जूते सैंडिल परफ्यूम आदि खरीदूं, शाम को डिस्को में जाऊं, मूवीज वगैरह देखूं लेकिन एक सीमित आय में ये सब मुमकिन नहीं है इसलिए दूसरे दरवाज़े पर दस्तक देनी ही पड़ती है। “दूसरा दरवाज़ा मतलब ?” मैंने हैरानी से उसे देखते हुए पूछा तो वो बोली

“ दूसरा दरवाज़ा मतलब अपनी बॉडी, अपना शरीर तो अपना है न उसका जैसे चाहे उपयोग करूँ और इससे बेहतर मुझे और कोई रास्ता लगा ही नहीं। ”

“ मतलब ?” आश्चर्यमिश्रित स्वर में मैंने पूछा

“मतलब ये कि आय एम ए कॉल गर्ल “ धुएँ के छल्ले उड़ाती हुई वो बोली और मैं तो उछल ही पड़ा ये सच जानकर, अवाक हो उसे देखता रहा और मुंह से सिर्फ यही निकला

व्हाट ?

“ हाँ यही है सच मिस्टर” , ऊंगलियों में सिगरेट को घुमाते हुए उसने कहा, “जानते हो इस वक्त मुझे ऐसे ही किसी बकरे की जरूरत थी जो मुझे वहाँ से बाहर निकाल सके वर्ना घर तक बात पहुँचती तो बहुत मुश्किल में पड़ सकती थी”, बड़ी सहजता से वो बोले जा रही थी और मेरे दिलो दिमाग सुन्न हुए जा रहे थे, ये कैसा सत्य मैंने जाना। “ अच्छा मिस्टर, अब मुझे चलना होगा लेकिन तुम्हारा उधार रहा मुझ पर इस रिहाई के बदले जब चाहे बुला लेना मैं चली आऊँगी”, कह वो चलने को उद्दत हुई तो मुझे होश आया और मैंने उसे कहा,

“मैं कुछ जानना चाहता हूँ क्या थोड़ी देर रुक सकती हो, मेरी बातों का जवाब दे सकती हो ?”कुछ सोचते हुए वो बोली , “देखो और कोई होता तो न कह देती लेकिन इस वक्त तुमने मेरी सहायता की है तो रुक सकती हूँ” कह उसने अपने मोबाइल से एक नंबर मिलाया और कहा उसे आने में थोड़ी देर हो जायेगी और बंद कर मुझसे बोली , “कहिये क्या जानना है आपको और क्यों ?”


“ क्या तुम खुश हो ऐसी लाइफ से ?”

“ हाँ , बिलकुल क्योंकि मैंने सोच समझकर ही इस काम में कदम रखा है”, कह वो खिलखिलाकर हँस पड़ी और मेरे बिस्तर पर लेट गयी और बोली , “ट्रेलर चाहिए तो दूँ क्या ताकि हमारा हिसाब किताब ख़त्म हो फिर तुम अपने रास्ते और मैं अपने। “नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता लेकिन जिस दिन से तुम्हें देखा है मेरी नींद मेरा चैन मेरे होशो हवास सब खो चुके हैं, सिर्फ तुम ही तुम दिखाई देती हो हर जगह, क्या तुम ये धंधा छोड़ नहीं सकतीं मेरे लिए, मैं तुम्हें बहुत चाहने लगा हूँ, तुम मेरी ज़िन्दगी बन गयी हो, मेरी हर सांस, हर धड़कन पर सिर्फ तुम्हारा ही नाम लिखा हुआ है, लव एट फर्स्ट साईट शायद इसे ही कहते होंगे, अब तुम मुश्किल से मिली हो तो तुम्हें खोना नहीं चाहता, तुम नहीं जानती कहाँ कहाँ नहीं खोजा मैंने तुम्हें, अब मिली हो तो तुम्हें अपना बनना चाहता हूँ “, मैं घुटनों पर बैठ गया और उसका हाथ अपने हाथ में ले अपने उदगार व्यक्त करने लगा।


“ हे मैन, आर यू मैड ? मैंने तो सोचा था कि चलो तुम्हारा एहसान उतार दूँ मगर तुम तो यहाँ कहानी को दूसरा ही मोड़ देने लगे। देखो मैं उस टाइप की लड़की नहीं हूँ जो प्यार आदि के चक्कर में पड़ अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर देती हैं, मिस्टर ज़िन्दगी में प्रैक्टिकल होना जरूरी है तभी इन्सान जी पाता है वैसे भी मुझे ये प्यार व्यार शब्द सब बेमानी लगते हैं, हर मर्द एक जैसा होता है अन्दर से, उसे सिर्फ जिस्म से प्यार होता है, उसे गोश्त चाहिए होता है, वहां ये सूखे प्यार की कहीं कोई जगह नहीं होती क्यों बेकार में फ़िल्मी हो रहे हो, अरे शरीर ही तो चाहिए न तुम्हें ? उस बहाने कहो या इस बहाने तो मैं तो खुद देने को तैयार हूँ ऐसे में ये बेकार का दिखावा क्यों“ नहीं , मुझे तुम्हारा शरीर नहीं तुम्हारा साथ चाहिए, तुम हमेशा के लिए मेरी बन जाओ सिर्फ मेरी बस इतनी सी चाहत है। ”


“ हाहाहा, तुम तो बाबू बिलकुल फ़िल्मी निकले, देखो ये तो दो बार तुम्हारी शराफत देखी तो तुमसे थोड़ा खुल भी गयी वर्ना किसी को अपने बारे में बताना मैं जरूरी नहीं समझती “ , गुस्से से वो बोली।

“ सुनो शमीना, क्या तुम इस ज़िन्दगी को छोड़ नहीं सकतीं ? “अरे खाली पीली क्यों गले पड़ रहे हो ? मैं तो बाज आई तुमसे, अच्छी तुमसे क्या दो चार बातें कर लीं और थोड़ा खुल गई तुमने तो और ही मतलब निकाल लिया, मिस्टर मैं अपनी ज़िन्दगी में बहुत खुश हूँ , अपनी मर्ज़ी से जीती हूँ, कोई रोक टोक नहीं, जब जैसे जो जरूरत हुई उसे खुद पूरा करने की हिम्मत रखती हूँ तो क्यूँ तुम्हारे नाम का ढोल गले में बाँधूं ? “


“क्या तुम समझती हो तुम जो कर रही हो सही कर रही हो ? एक बात बताऊँ, जब तक चार्म है तुम में और ये जवानी तभी तक है ये ज़िन्दगी तुम्हारी, कभी सोचा है उसके बाद क्या होगा तुम्हारा ? कहाँ जाओगी ? तब कैसे पूरे करोगी अपने अरमान ?”

“ मिस्टर ! तुम चिंता मत करो, मैं खुद देख लूंगी मुझे क्या करना है और देखो तुमने मेरा बहुत टाइम वेस्ट कर दिया है, मुझे लगता है मुझे चलना चाहिए , कभी मेरी जरूरत समझो तो इस नंबर पर कॉल कर देना मैं आ जाऊँगी”, कह उसने एक कार्ड अपने पर्स से निकाल मुझे दिया और चली गयी मुझे मेरे सवालों के साथ छोड़।

सपना था या हकीक़त ? एक उहापोह में खुद को पाया। नहीं ये सच नहीं है, वो जो दिखती है या कहती है उससे कहीं बहुत गहरे अंदर गड़ी हुई है, मुझे उसे उससे परिचित कराना होगा नहीं तो वो अपनी ज़िन्दगी एक दिवास्वप्न में ही गुजार देगी। उसे वक्त देना होगा जितना वो चाहे क्योंकि अभी दो मुलाकात हुई हैं तो कैसे संभव है वो भी मुझे चाहे या मुझे और मेरे प्यार को समझे। अब जरूरी तो नहीं जो हाल मेरा है वो ही सामने वाले का हो। मुझे इंतज़ार करना होगा और समय समय पर उसे खुद से भी वाक़िफ़ कराना होगा तभी शायद समझेगी वो मुझे और मेरे प्यार को, अंतर में उठते भाव से ख्याल अन्दर की मिटटी को नमी दे रहे थे तो बाहरी स्वरुप में मैं हताशा की सीढ़ियों पर बैठा वो दरिया था जिसके किनारों से लगकर नदी बहती थी और वो अब तक सूखा था , निर्जल था , मानो कफ़न ओढ़े कोई अपनी लाश की शिनाख्त कर रहा हर दिन हफ्ते महीने गुजरने लगे, उसके ख्याल, उसकी चाहत मुझे बेचैन करती रही। फिर भी नहीं लांघ पाया कोई मर्यादा, नहीं कर पाया उससे दोबारा बात। आखिर उसका और मेरा सम्बन्ध ही क्या था सिवाय अजनबियत के। ऐसे में यदि उसे परेशान करता मिलने को कहता तो हो सकता है वो मुझे गलत समझती या गलत कदम उठा लेती, ये सोच चुप रह जाता मेरे फरिश्तों की ओक में नहीं था पर्याप्त पानी जो मुझे सिंचित कर सके।

मगर वो कहते हैं न जिसे शिद्दत से चाहो तो रास्ते खुद आकार लेने लगते हैं ऐसा ही हुआ जब मैं अपने ऑफ़िस की एक पार्टी में आमंत्रित था अपने मित्रों से बातचीत में मशगूल था तभी वहां शमीना को देखा और चौंक उठा, मेरा चौंकना देख मित्र मेरी नज़र का पीछा करते हुए वहीं देखने लगे तो समझ गए और मुझे उससे मिलवाने ले गए , “आओ नरेन तुम्हें उससे मिलवाते हैं। ये हैं मिस शमीना और आप हैं मिस्टर नरेन् हमारी कंपनी के जनरल मेनेजर।" अभिवादन की औपचारिकता निभाते हुए उसने ऐसे देखा जैसे पहली बार देख रही हो और मैं आश्चर्य के सागर में गोते लगाने लगा और अपने दोस्तों से पूछने लगा , “यार , ये तो बताओ ये है कौन ? इससे कैसे मिला जा सकता है ?” “अच्छा, तो ये बात है, पहली ही मुलाकात में धराशायी हो गए। ये चीज ही ऐसी है। ”

'चीज़ ‘ शब्द मुझे बेहद नागवार गुजरा और मैंने तपाक से कहा , “किसी भी स्त्री के लिए ऐसे शब्दों का उपयोग सही नहीं है। “

“अरे यार , तुम नहीं जानते ये है कौन ? “

“ये कोई भी हो लेकिन है तो नारी ही न , तो उसके प्रति हमारे दिल में आदर होना चाहिए , ये कोई वस्तु नहीं है जो हम उसे चीज कहें। “

हथियार डालते हुए मोहन ने कहा , “ओके बाबा ! जो तुम ठीक समझो वो कहो। वैसे भी मैंने इसलिए ये सब कहा क्योंकि वो एक कॉल गर्ल है। “


मैं अचंभित सा उसे देखता रहा बेशक उसने बताया था अपने बारे में मगर फिर भी कहीं न कहीं दिल में एक विश्वास था शायद उसने जो कहा हो वो गलत हो लेकिन अब संदेह की कोई गुंजाईश ही नहीं रही थी मगर दिल तो दिल है कब मानता है , सारी सच्चाई जानते हुए भी मैं उसकी तरफ बिना डोर के खिंचा चला जा रहा था ।

उससे एक मुलाकात और करना चाहता था और वो मौका मुझे पार्टी में मिल गया जब सबको एक पार्टनर के साथ डांस करना था और मैंने उसे ही एप्रोच किया तो उसका तो न कहने का सवाल ही नहीं था क्योंकि उसका तो काम ही था गेस्ट को एंटरटेन करना। डांस करते करते मैं उससे बतियाने लगा।


“ शमीना , मुझे देख तुम्हें आश्चर्य नहीं हुआ ?”

“नहीं, क्यों होता ?” प्रश्न पर प्रतिप्रश्न जवाब के साथ उसने किया।

“तुम्हें उम्मीद थोड़े होगी मैं यहाँ मिलूंगा। ”नरेन जी, हमें जाने कितने लोग रोज़ मिलते हैं यदि ये सोचने लगें तो कर लिया काम। ”

मैं उसे ध्यान से देख रहा था क्योंकि पिछली दो मुलाकातों में जो एक अलग सा रुआब था वो उसने यहाँ नहीं दिखाया था, शायद रेत थोड़ी नरम पड़ गयी थी और जरूरत थी उसे भिगोये रखने की इसलिए मैं उससे बात करता रहा। “क्या कुछ समय मेरे साथ गुजारना पसंद करोगी ?”

“अपना तो काम ही यही है, चलिए रूम में” कह वो मुझे रूम में ले गयी। पांच सितारा होटल में पार्टी हो तो रूम पहले ही बुक होते हैं कुछ ख़ास लोगों के लिए तो मैं उसके साथ पहुँच गया एक रूम में। अब हकीक़त मेरे सामने बैठी थी और मैं असमंजस में था आखिर कैसे बात शुरू करूँ जबकि उसने कमरे में आते ही अपने कपड़ों के बटन खोलने शुरू किये तो मैंने उसे रोका :

“शमीना अभी नहीं ये सब। ”

प्रश्नवाचक निगाहों से वो मुझे देखने लगी।

“शमीना देखो आज का सारा वक्त तुम्हारा मेरा है तो मैं पहले तुमसे फ्रेंडली बात करना चाहता हूँ ये सब तो बाद में भी होता रहेगा” , उसे कॉन्फिडेंस में लेते हुए मैंने कहा।

“क्या बात करनी है, वैसे तुम इंसान कुछ अलग ही किस्म के हो वर्ना यहाँ तो जो आता है सीधे बेड पर ही लेकर जाता है और वैसे भी अपना उससे कोई पर्सनल सम्बन्ध तो होता नहीं इस हाथ ले उस हाथ दे बस। “

जानता हूँ, गहरी दृष्टि से उसे देखते हुए मैंने कहा, मैं उसे पढ़ रहा था या वो मुझे नहीं जानता लेकिन कहीं एक कड़ी जुड़ रही थी जो अभी अदृश्य थी और उसे ही जानने के लिए मैं उससे बात करता रहा “अच्छा शमीना एक बात बताओ, तुम ये काम कब तक करती रहोगी ? मेरा मतलब है सोचा है तुमने जीवन में स्थायी होने का भी या इसी में उम्र गुजार दोगी ?”

“नरेन जी जब सारी आवश्यकताएं पूरी हो रही हैं तो क्या जरूरत है कुछ और सोचने की। एक औरत और मर्द को क्या चाहिए होता है ? पैसा और जिस्म । और ये दोनों मुझे मिल रहे हैं तो फिर क्यों सोचूँ इसके आगे। ”

“क्या तुम्हें ये सब करना अच्छा लगता है मेरा मतलब है कि रोज़ एक नया मर्द। और फिर सब मर्द भी तो एक जैसे नहीं होते। कोई बूढ़ा तो कोई जवान तो कोई न शक्ल सूरत का होता है न ही आकर्षक। कैसे झेलती हो उन्हें ? क्या तुम्हें अजीब नहीं लगता ?”

“इसके लिए मैंने एक दायरा बना रखा है नरेन जी, जो हमारे लिए ग्राहक अरेंज करते हैं उन्हें मैंने कह रखा है कि मुझे कैसा चाहिए। सबसे जरूरी चीज वो गुड लुकिंग हो, स्मार्ट हो और हमउम्र हो न कि कोई बुजुर्गवार। उनके लिए और लड़कियाँ हैं तो जरूरी नहीं कि मैं हर किसी को एंटरटेन करूँ। अपनी शर्तों पर काम करती हूँ और अपनी मर्ज़ी से। कोई जबरदस्ती थोड़े लाया है मुझे कोई इस धंधे में। और सबसे बड़ी बात वो मेरी एक रात की कीमत चुका सके बस “क्या है तुम्हारी एक रात की कीमत ?”

“क्या आप देंगे ?”

“क्या नहीं दे सकता ? अरे भाई कंपनी का जनरल मेनेजर हूँ। इतनी तो औकात रखता ही हूँ। ”

“अरे, इसलिए कहा क्योंकि आपकी कंपनी ने मुझे हायर किया है। “

“चलो छोड़ो ये सब। तुमने मेरी उस दिन की बात का अब तक जवाब नहीं दिया। ”

“कौन सी बात ?”

“वो ही जब एक दिन चुक जाओगी तो कहाँ जाओगी ? कुछ भविष्य के बारे में भी सोचो। और सबसे बड़ी बात तुम्हारे पेरेंट्स को यदि पता चल गया तो क्या होगा, कभी सोचा है? “ आपने जो दूसरी बात कही है बस उसी से डरती हूँ बाकि भविष्य किसने देखा है आज हूँ कल न रहूँ तो ? तो फिर क्यों न अपनी मर्ज़ी से ज़िन्दगी जी ली जाये।"

“शमीना क्या तुम्हारा मन नहीं करता किसी के साथ रहने का, एक घर बनाने का ?”

“अभी सोचा नहीं नरेन जी “

“तो सोचो न अब। मैं तुम्हें बहुत चाहता हूँ। क्या तुम अपनी सोच में मुझे फिट पाती हो, सोचो इस पर। क्या तुम मेरे साथ अपनी ज़िन्दगी गुजारना चाहोगी ?” नरेन जी, आज की रात आपको दी है आप उसका जैसे चाहे उपयोग कर सकते हैं और आप हैं कि बातों में ही वक्त जाया कर रहे हैं” , बात को बदलते हुए शमीना ने कहा।

“शमीना मेरी बात का उत्तर दे दो समझ लेना मैं जो चाहता हूँ मुझे मिल रहा है। वैसे भी मैं तुम्हारे साथ कोई शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए नहीं आया। मुझे तो अपने प्रश्नों के उत्तर चाहिए थे और तुम्हारा साथ फिर थोड़े ही वक्त का क्यों न हो। ”देखिये, नरेन जी, मेरा अभी शादी का कोई इरादा नहीं है पहले मैं अपनी पढ़ाई पूरी करूंगी उसके बाद कुछ सोचूंगी। “

“ठीक है शमीना, अच्छा एक बात बताओ, तुम्हारी जरूरत कितनी है ? यानि महीने में तुम्हें अपनी जरूरतें पूरा करने को कितने पैसे चाहिये होते हैं ? मान लो कोई तुम्हें इतने पैसे दे दे तो क्या तुम छोड़ दोगी ये काम ? ”आपके कहने का क्या मतलब है ?”

“कोई मतलब नहीं है बस बताओ तुम कितने पैसे चाहिए होते हैं तुम्हें ?”

“बस मेरा खर्चा निकल जाए और बैंक बैलेंस भी बढ़ता रहे।" “यानी ?”

“यानि महीने में कम से कम २० -२५ हजार तो हो “

“अगर कोई तुम्हें ये दे दे तो क्या तुम छोड़ दोगी ये काम ?” "मेरी जरूरतें पूरी होती रहे फिर कौन चाहेगा जान बूझकर कुएं में छलाँग लगाना। ”

“तो फिर छोड़ दो ये काम , मैं करूँगा तुम्हारी जरूरतें पूरी।” “लेकिन क्यों ?”

“क्योंकि मैं तुम्हें बहुत चाहता हूँ, मुझे आजकल आईने में अपनी नहीं तुम्हारी शक्ल दिखती है, सोचो मेरा क्या हाल है, मान जाओ शमीना और छोड़ दो ये ज़िन्दगी, मैं हूँ न... असमंजस में पड़ी शमीना ने कहा, सोचूंगी..

मेरी ज़िन्दगी और वो रात बस वहीं ठहर गए।

कोशिशों के साए मचलते रहे और आगे बढ़ते रहे जिसका परिणाम मेरे पक्ष में रहा । शायद उसे मुझ पर विश्वास हो गया था या शायद वो भी मुझे प्यार करने लगी थी क्योंकि मैं जब जहाँ कहता आ जाती। अक्सर मेरे फ़ोन का इंतज़ार करती या खुद करती बात। एक सिलसिला चल पड़ा और मैं उसे हर महीने २५००० रूपये देता रहा और वो मेरी तरफ खिंचती रही इसी में उसकी ग्रेजुएशन पूरी हो गयी तो बाक़ायदा उसके पेरेंट्स से उसका हाथ मांग लिया और मेरे जीवन में उजाले के हर रंग ने दस्तक दे दी। ज़िन्दगी का सूरज अब उठान पर था। दिन रात सांप सीढ़ी की गोटियों से गुजरने लगे। कभी दिन छोटा हो जाता तो रात लम्बी और कभी रात छोटी तो दिन लम्बा। मिलन का इंतज़ार एक एक पल की पहेली सुलझाने लगता और मेरी हर संभव कोशिश होती शमीना के चेहरे पर एक अदद मुस्कान की ख़ातिर सब कुछ न्योछावर करने की। वहीं एक दिन घर में उत्सव का आयोजन था जिसमे हम दोनों भी शामिल थे। मेरे छोटे भाई की पत्नी के दूर के रिश्ते के एक रिश्तेदार भी आये थे और शमीना को देख चौंक उठे। उन्होंने शमीना के बारे में छोटे भाई की पत्नी को बताया क्योंकि वो उसे पहचान गए थे और फिर ये बात सारे घर में फ़ैल गयी। मुझे कटघरे में खड़ा कर दिया गया। सबका यही कहना था तुमने तो खानदान की नाक कटा दी , इसे अभी के अभी छोड़ दो लेकिन जब मैंने बताया मैं सब कुछ जानता हूँ तो घरवालों ने मुझसे और शमीना से हमेशा के लिए नाता ही तोड़ लिया। उनका कहना था, ऐसी लडकियाँ मौकापरस्त होती हैं, ये कभी वफ़ादार नहीं हो सकतीं, तुम क्यों उसके ठगने में आ रहे हो, एक दिन पछताओगे, देखना ये ज्यादा दिन टिकने वालों में से नहीं है और फिर अभी तो तुम्हारे विवाह को कोई ज्यादा वक्त नहीं हुआ महज ४ महीने ही तो गुजरे हैं। लेकिन मुझ पर तो तुम्हारा जादू चढ़ा था न, कैसे तुम्हारे लिए ऐसी बात सुन सकता था इसलिए सबको छोड़ दिया। तुम और मैं साथ हों तो सारा जहान साथ है, मेरी तो दुनिया ही तुम से शुरू होकर तुम ही खत्म होती थी पंछियों से दिन उड़ते रहे। जीवन में इन्द्रधनुष के सारे रंग उतर आये थे। मेरे तो पाँव ही ज़मीन पर नहीं पड़ते थे मानो जीवन की हर चाह पूरी हो गयी थी तुम्हें पाकर इसलिए कभी और तरफ ध्यान ही नहीं गया और इस सब में कब एक साल गुजर गया पता ही नहीं चला। मगर पिछले कुछ दिनों से तुम्हारी आवश्यकताएं बढ़ने लगी थीं। अब तुम्हारा २५००० में गुजारा नहीं होता था और रकम बढ़कर दोगुनी हो गयी थी, ऐसे में घर में मुश्किल हालात पैदा होना स्वाभाविक ही था मगर तुम्हें उस सब की कोई परवाह नहीं थी। तुम्हें तो बस जो तुमने मुंह से कह दिया वो चाहिए होता था और मेरी कोशिश सिर्फ तुम्हें खुश करने की रहती थी मगर फिर भी यदा कदा तुम मुझे नाराज़ ही दिखतीं। नाराज़गी के पल मुझ पर बहुत भारी गुजरते। नहीं जानता था चाँद का कृष्ण पक्ष भी होता है अब अक्सर आपस में तनातनी रहने लगी जिसका असर हमारे संबंधों पर पड़ता गया। तुम्हें हाथ लगाता, तुम्हारे पास आता तो फ़ौरन झटक देतीं और यही कहतीं “बड़े बड़े वायदे किये थे और अब छोटी से छोटी जरूरत के लिए मुझे मायूस होना पड़ता है। क्या यही था तुम्हारा प्यार ? क्या इसीलिए तुम मुझे अपनी ज़िन्दगी में लाये थे“ शमीना ऐसा नहीं है। तुम जानती हो मेरी तनख्वाह कितनी है और उसमे से ज्यादा से ज्यादा पैसे तुम्हें देता हूँ ताकि तुम्हारी जरूरतें पूरी होती रहे फिर चाहे कितनी ही तंगी हो मैं महिना किसी तरह निकलता हूँ। “

“क्या मतलब ? तुम मुझ पर एहसान करते हो ? अरे तुमने ही तो बड़े बड़े वायदे किये थे या वो सिर्फ कोरे सब्जबाग थे ?” “देखो अगर बात सिर्फ २५००० की होती तो वो तो मैं आज भी ख़ुशी से खर्च कर सकता हूँ लेकिन अब तो लगभग ४५-५० हजार तक तुम्हारी जरूरतें पहुँच गयी हैं तो मैनेज करना मुश्किल हो जाता है, तुम समझ सकती हो मेरी मुश्किल। आखिर बंधी बंधाई इनकम है। अब ७० हजार में से क्या बचता है कुछ भी नहीं।” “तुम कहना क्या चाहते हो ? क्या मैं सारा पैसा उड़ा देती हूँ अपनी ऐयाशी पर ? क्या तुम्हें पहले मालूम नहीं था मेरी जरूरतों का ?” गुस्से से लाल होते हुए तुमने कहा।

“मुझे मालूम था एक दिन ऐसा आएगा जब तुम ऐसी ही बात कहोगे लेकिन फिर भी पहली और आखिरी बार विश्वास किया तुम पर और उसका नतीजा भी देख लिया” , गुस्से से भुनभुनाते हुए तुम बोली।

“अच्छा तब तुम्हारी जरूरतें भी तो सीमित थीं मुझे क्या पता था शादी के बाद तुम्हारी जरूरतें सुरसा सा मुंह फाड़ लेंगी” मैंने भी तैश में आकर अपनी भड़ास निकाल दी और फिर तो तुमने अपना वो रौद्र रूप दिखाया जिसे देख मैं सन्न रह गया। घर की जाने कितनी चीजें टूट गयीं या शायद मैं भी अन्दर ही अन्दर कांच सा दरक गया था बस एक ठेस और लगती तो बिखर जाता और तुमने वो भी करके दिखा दिया। अगले दिन मैंने सोचा तुम्हें मनाने के लिए एक होटल में डिनर का प्रोग्राम रखा और शाम को जल्दी आने को कह दिया , “तुम तैयार रहना शमीना हम बाहर डिनर करेंगे और एक मूवी भी देखेंगे” क्योंकि जानता था मूवी और डिनर तुम्हारी कमजोरी थे। शाम को मूवी भी तुम्हारी पसंद की देखी और फिर डिनर भी किया तो तुम्हारा मूड भी थोड़ा बदल गया था और तुम सहज होने लगी थीं

घर आकर जब बिस्तर पर तुम और मैं लेटे तो तुम करवट बदल कर लेट गयीं , “शायद अब तक नाराज़ हो मुझसे शमीना ?”

“नहीं” संक्षिप्त सा उत्तर दे तुम चुप हो गयीं

“अच्छा बाबा, माफ़ कर दो न, आगे ऐसा कुछ नहीं कहूँगा जो तुम्हें आहत करे और कोशिश करूँगा तुम्हारी हर जरूरत पूरी करने की बस थोड़ा ओवरटाइम करना पड़ेगा लेकिन तुम मत फ़िक्र करो ,” कह , मैंने उसे अपनी तरफ मोड़ा और सहजता से उसे सहलाने लगा और फिर नदी और सागर की मिलन स्थली पर अचानक ऐसा ज्वार आया जो अपने साथ मेरा सब कुछ बहा कर ले गया जब संभोगरत थे हम दोनों और अंतिम पड़ाव पूरा हुआ तुमने मुझे अचानक जोर से लात मार कर धक्का दिया तो मैं हतप्रभ सा रह गया “क्या हुआ शमीना ? कुछ गलत हो गया क्या ? क्या तुम्हें कोई तकलीफ़ हो गयी ?”


“कहाँ से और कैसे करोगे मेरी इच्छाएं पूरी जब बिस्तर पर तुम जल्दी ढेर हो जाते हो और मैं अधूरी रह जाती हूँ। आज की स्त्री हूँ कोई पहले जैसी नहीं जो अपनी भावनाएं दबाये। अरे जैसे ये तुम्हारी जरूरत है वैसे ही मेरी भी और मैं इतने दिनों से तुम्हें सिर्फ इसलिए बर्दाश्त कर रही थी क्योंकि कम से कम एक जरूरत तो पूरी हो रही थी मगर अब तुम न तो शरीर की जरूरत पूरी कर पाते हो और न ही पैसों की । फिर क्या है इस रिश्ते में जिसके लिए मैं बंधी रहूँ तुमसे ? पता नहीं किस घड़ी में तुमसे शादी को हाँ कर दी थी ? मेरी वो ज़िन्दगी कितनी अच्छी थी जहाँ कोई टेंशन नहीं जितना चाहे पैसा कमा लो जैसे चाहे खर्च करो कोई न कहने वाला न सुनने वाला और फिर मनचाहा साथी भी मिलता था जिससे शरीर की भी आवश्यकता पूरी हो रही थी, इसी वजह से अपनी पसंद का साथी चुनती थी ताकि वो खुद भी संतुष्ट हो और मुझे भी कर सके। एक तुम हो जिसे सिर्फ अपनी संतुष्टि से मतलब होता है। कभी मेरी फ़िक्र की ? मुझसे पूछा तुम्हें कैसा लगा ? हुंह तुम ही उन्हीं आम मर्दों जैसे हो जो औरत को सिर्फ भोग्या समझते हैं। ”मैं और मेरा पौरुष दोनों मरणासन्न अवस्था में पहुँच गए थे। शब्द जाने किन बीहड़ों में अटक गए थे। एक के बाद एक विस्फोट मेरे अस्तित्व को धराशायी किये जा रहा था। प्रतिकार या बहस के लिए कोई सिरा कहीं नज़र नहीं आ रहा था। ओह ! ये क्या सुना मैंने ? क्या मैंने जो सुना वो सच है ? क्या औरत को सिर्फ पैसा और शरीर ही चाहिए होता है ? मैंने तो सुना था औरत को सिर्फ प्यार चाहिए होता है और जिसे सच्चा प्यार मिल जाता है वो उसके आगे हर परेशानी और हर कमी को गौण समझती है। वैसे भी रिश्ते में परिपक्वता तभी आती है जब दोनों एक दूसरे के साथ वफ़ादार हों, आपस में विश्वास हो तभी प्रेम को भरपूर खाद मिलती है पनपने को और शायद मैं हार गया था। मेरी कोशिशें मुझे मुंह चिढ़ा रही थीं। एक धराशायी वृक्ष सा मेरा आत्मबल कुचला जा चुका था। मुझे याद नहीं सुबह कैसे हुई। मैं तो एक विक्षिप्त की सी अवस्था को पहुँच गया था।


ज़िन्दगी के किस पन्ने पर कौन सी इबारत लिखी होगी ये किसी को पहले पता चल जाता तो मुमकिन था कुछ तो बदल ही सकता था इंसान लेकिन यही तो ज़िन्दगी की पहेली है जितनी सुलझाई उतनी उलझी है। यहाँ तो अभी इस घटना से उबर भी न पाया था कि दूसरे धमाके ने मेरे विश्वास और प्रेम की सभी चूलें हिलाकर रख दीं। तुम एक पत्र छोड़कर कब की जा चुकी थीं“ मैं जा रही हूँ अपनी दुनिया में वापस,अब कभी मत आना मेरी दुनिया में। ”


अपनी नाकामी की दास्तान किसे सुनाता और कौन सुनता ? सबसे विद्रोह करके तो ये साथ पाया था और आज वो ही परछाईं मुझे छल गयी थी फिर कैसे संभव था किसी किनारे का मिलना।

मेरा प्रेम संदेश लेकर गए कबूतर अक्सर बैरंग ही वापस लौटते रहे, मैं पल पल मिटता रहा, सिसकता रहा मगर तुम पर न असर हुआ।

मैं एक उलझन में डूबा रहता। ये कैसी शिक्षा है या किन अर्थों में नारी ने समझा है। क्या देह को माध्यम बनाना उचित है ? क्या इस तरह पैसा कमाना जायज है ? ये कैसी बयार बह रही है जहाँ नारी ये नहीं समझ पा रही कि इस तरह भी तो उसका ही दोहन है ?

अरे स्त्री को यदि बराबरी का शौक है तो करे अपने लिए उसी तरह हायर पुरुष को जैसे उसे किया जाता है। क्यों खुद के शरीर को खिलौना बना रखा है ? ये किस दिशा में सोच जा रही है, शायद यही कारण है आज भोली भाली लडकियाँ इस कुचक्र में फंस रही हैं क्योंकि उन्हें पता ही नहीं वास्तव में स्त्री मुक्ति है क्या ? उनके लिए सिर्फ देह तक ही सीमित है उनकी मुक्ति।

एक तरफ ये ख्याल तो दूसरी तरफ तुम्हारी उदासीनता मुझे नित्य झकझोरती, मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा। लाख कोशिश की मैंने लेकिन समझ नहीं पाया मेरे प्यार में क्या कमी रह गयी जो तुम सिर्फ पैसों या देह तक ही सीमित रह गयी। क्या आधुनिकता का यही अर्थ है ?

क्या स्वतंत्रता इसे ही कहते हैं ?

स्वछंदता और स्वतंत्रता में कुछ तो फर्क होता होगा ?


टीसों के तीर मेरे दिल को छलनी करते रहे मैं भीष्म सा शब्दबाणों की शैया पर लहुलुहान होता रहा। ये कैसी उम्रकैद मिली मुझको जहाँ न जी सकता हूँ और न ही मर सकता हूँ। सोच के भंवर में डूबा जान ही नहीं पाता था क्या सही हो रहा है और क्या गलत। और एक दिन पूरी तरफ विक्षिप्त हो उठा जब तुम्हारे शब्दों की चोट जो बार बार घड़ी के घड़ियाल सी मेरे ज़हन को ठकठकाती रहती और मैं उससे बचने को अपना सिर दीवार में दे मारता था, खाने पीने सोने जागने की सुध बुध खो चुका था, कभी रोता कभी हँसता, जाने कब और किसने मुझे पागलखाने पहुंचा दिय।

लगभग दस वर्ष बाद जब अब ठीक होकर बाहर निकला तो ये सारी यादें ताज़ा हो उठीं और एक बार फिर मैं तुम्हारी खोज में हूँ शमीना।

हकीक़त के आसमां पर वक्त कि नागिन फन फैलाए खड़ी थी और मैं कल से अनजान आज को रुसवा करता हुआ एकबार फिर विगत के पाँव पलोटने लगा था। झींगुर की झुन झुन से सोच के कबूतर सबसे ऊंची मीनार पर बैठने को लालायित थे और अपनी गुटर गूं से विगत के पन्नों को अक्सर फडफडाते थे तो बचैनी की चींटियाँ एक बार फिर काटने लगतीं। मगर इस बार वो बेताबी , वो बेचैनी या कोई अपराधबोध नहीं था। इस बार थी एक जिज्ञासा। हाँ , जानने की इच्छा। आखिर इतने सालों बाद शमीना आखिर है कैसी और किस हाल में है।

इन्ही प्रश्नों के व्यूह में फंसा मैं उत्तर की चाहत में एक बार फिर खोजने निकल पड़ा।

दस साल काफी होते हैं आज एक सदी बदलने जितना बदलाव आ जाता है। ऐसे में शहर की शक्ल नितांत अजनबी सी मुझ चिढ़ा रही थी। कोई नहीं था जो हाथ पकड़ सहला दे, दो घड़ी बतिया ले। नए सिरे से ज़िन्दगी बाँह पसारे सामने खड़ी थी। एक वृहद् आकाश जिसका न कोई ओर था न छोर। कहने को दुनिया अटी पड़ी थी चेहरों से, भीड़ से , लोगों से मगर मैं इस भीड़ में अजनबी सा चुनने को खड़ा था अपने हिस्से का आस कहाँ से शुरू करूँ ज़िन्दगी ? प्रश्न साथ चलने लगा और फिर सोचते हुए पहुंचा अपने फ्लैट पर शहर की अनजान डगर को फर्लान्घ्ता हुआ। फ्लैट का हाल मुझसे कम न थ , जगह जगह से उधडा प्लास्टर अपनी कहानी स्वयं कह रहा था। जगह जगह से टूटा हुआ बिलकुल मेरी तरह जैसे कोई मुझे आईना दिखा रहा था। आस पड़ोस के फ्लैट में शुक्र था वो ही लोग थे जो पहले थे, तो उसे सँवारने और खुद को सँभालने में ज्यादा दिक्कत महसूस नहीं हुई।


अब जरूरत थी एक सिरा पकड़ने की। पहले नौकरी की व्यवस्था करनी जरूरी थी इसलिए अपनी पुरानी कम्पनी में ही जाकर दरख्वास्त लगाई तो उन्होंने हाथों हाथ मुझे ले लिया शायद मेरी किस्मत के ख़ुदा को मुझ पर रहम आना शुरू हो गया था।

ज़िन्दगी एक ढर्रे पर जब चलने लगी तो खुद को व्यस्त रखने को सामाजिक संस्थाओं से जुड़ गया। दिन कंपनी में और शाम वहां। अब सुबह शाम की व्यस्तता में मैं शमीना को एक हद तक भूल चूका था। यूँ भी ज़िन्दगी में करने को कुछ बचा नहीं था। कुछ मित्र लोग कहते भी थे , ‘यार , दूसरी शादी के बारे में सोच। क्यों बेकार में अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर रहा है, ज़िन्दगी का सफ़र अकेले नहीं कटा करता ‘ मगर मैं जो अब उम्र का एक हिस्सा लगभग बेख्याली में गुजार चुका था, मेरा मन उनकी बात पर ठहरता नहीं था। अब तो विश्वास के धागे इतने कमजोर हो चुके थे कि हल्का सा यदि कोई झटक भी देता तो टूट सकते थे इसलिए अपनी तन्हाई के साथ खुश रहता था,जिन संस्थाओं से जुड़ा था वहां अक्सर सभी तरह के लोगों से मिलना जुलना लगा रहता। वहां की समस्याओं का निराकरण करने की कोशिश करता। सभी में लोकप्रिय हो चुका था क्योंकि शायद उनका दर्द अपना सा लगता और मैं हर किसी से आत्मीय नाता बना लेता जिसकी सभी को जरूरत होती है। एक संस्था में तो सिर्फ स्त्रियाँ ही रहती थीं जो ज़माने की सताई होती थीं तो एक में सिर्फ बुजुर्ग और एक में सिर्फ बच्चे। इस तरह हर उम्र के लोगों से अक्सर मिलना और बतियाना काफी हद तक केवल उनके ही नहीं मेरे अकेलेपन को भी कम कर देते। साल दर साल गुजरते रहे। मैंने अपने आप को उन संस्थाओं के प्रति इतना समर्पित कर दिया था कि उनके संचालन का जिम्मा भी मेरे कन्धों पर धीरे धीरे आ गया। पुराने बुजुर्गों ने मुझे ये जिम्मेदारी सौंप दी क्योंकि उन्हें विश्वास था मुझ पर या शायद मेरा समर्पण देख उन्होंने ये निर्णय लिया । इसी जद्दोजहद में और दस साल गुजर गए ।


एक दिन अचानक सैंडी से मुलाकात हो गयी तो ज़हन की हर परत खुलती चली गयी। अरे ये तो सैंडी है, शमीना की दोस्त। एक बार फिर कौतुहल ने जन्म लिया, जो चिंगारी वक्त की राख में दबी थी फिर भड़क उठी और मैं सैंडी से बात करने को आतुर हो उठा।

“सैंडी ,पहचाना मुझे ?”

“ हूँ , हाँ शायद कहीं देखा तो है “

“मैं नरेन, शमीना का पति “

“ओह! नरेन तुम...ओह माय गॉड, कितने सालों बाद। कैसे हो , कहाँ हो ?”

“सैंडी ,मेरी छोड़ो , क्या तुम्हें कुछ पता है शमीना के बारे में ? कहाँ है वो ? कैसी है ? क्या करती है ? “

जैसे ही मैंने शमीना का नाम लिया मानो कुनैन की गोली मुंह में घुल गयी हो सैंडी के ऐसा मुंह बना लिया।


“क्या तुम अब तक उसके चक्कर में पड़े हो नरेन्” , आश्चर्य से उसने प्रतिप्रश्न किया ,

“नहीं सैंडी, बस जानना चाहता था कि वो कहाँ है और कैसी है ? क्या जी पा रही है वो ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पर ? कब से अपने प्रश्नों का उत्तर पाने को बेचैन हूँ बेशक अब मेरे दिल में और मेरी ज़िन्दगी में उसके लिए कोई जगह नहीं लेकिन फिर भी अपनी जानकारी के लिए मेरे लिए ये जानना जरूरी है अगर बता सकती हो तो प्लीज बता दो” , जब गिड़गिड़ाते हुए नरेन् ने कहा तो सैंडी बोली “नरेन, जाने कैसी सोच थी उसकी, सच बहुत दुःख हुआ था मुझे जब पता चला कि वो तुम्हें छोड़कर चली गयी अपनी दुनिया में वापस और तुम्हारी दुनिया ही उजड़ गयी मगर तब मैं हिम्मत ही नहीं कर सकी कि तुमसे मिलूँ और बात करूँ जाने तुम मुझे क्या समझते शायद उस जैसा ही” लम्बी सांस भरते हुए एक सांस में सैंडी ने कहा।

“ हाँ , शायद तुम सही कह रही हो सैंडी , वो एक ऐसा दौर था मेरे जीवन का जहाँ अपने पर से भी विश्वास मेरा उठ गया था तो यदि तुम कुछ कहतीं भी तो शायद मैं समझ नहीं पाता । ”

“ नरेन, शमीना शायद जान ही नहीं पायी जीवन के अर्थ। उसे पता ही नहीं था कि स्वतंत्रता के सही मायने क्या हैं। महानगर की चकाचौंध ने शायद उससे उसका विवेक भी छीन लिया था और वो एक बिना मल्लाह की कश्ती सी बहती रही और उसे ही जीवन समझती रही। सपनों के इन्द्रधनुष को यथार्थ मान लिया था उसने तभी तो भविष्य से बेखबर रही। जानते हो , क्या हुआ उसका ? “

“ नहीं , वो ही तो जानना है”


“नरेन तुम यदि उसे देखते तो शायद पहचान भी नहीं पाते। कहाँ तो मखमली गुलाब सा उसका रंग रूप था और कहाँ ऐसी दुर्दशा हो गयी थी कि कोई भी उसे नहीं पहचान सकता था। अभी हाल ही में कुछ महीनों पहले मुझे मिली थी एक फुटपाथ पर जब मैं वहां से सड़क क्रॉस कर रही थी वो अचानक मेरे सामने आई और बोली सैंडी , पहचाना मुझे ?”

मैं हैरत से उसे देखने लगी और सोचने लगी आखिर ये कौन है जो मेरा नाम जानती है और इस अधिकार से बात कर रही है वहीं उसे देख डर लग रहा कि कहीं कोई चोर उच्च्क्कों में से न हो जो मुझे बातों में मुझे फुसला कर मेरी चीजों पर हाथ साफ़ कर ले, मगर जब उसने अपना परिचय दिया तो मैं ठगी सी खड़ी रह गयी, क्या ये वो ही लड़की है जो सारी दुनिया को मुट्ठी में करने के ख़्वाब देखा करती थी आज भिखारिन से भी बदतर स्थिति में है लेकिन मैं उसके बताने पर भी उसे नहीं पहचान पा रही थी क्योंकि वक्त ने कोई भी पहचान चिन्ह उसके चेहरे पर नहीं छोड़ा था, चितकबरा सा चेहरा, खिचड़ी से बाल, फटे पुराने मैले कुचैले कपड़े। लेकिन उसके बताने पर यकीन करना ही था और मैं उसकी उस दुर्दशा के बारे में जानने को बेचैन हो गयी और उसे अपने साथ पास के पार्क में ले गयी वहां बैठ उसके बारे में सब जाना “नरेन , तुम्हें छोड़ने के बाद वो फिर उसी धंधे में वापस आ गयी थी और अपनी शर्तों पर, अपनी मर्ज़ी से ज़िन्दगी जीने लगी थी लेकिन वो कहते हैं न सभी की ज़िन्दगी में परिवर्तन आते ही हैं ऐसा ही उसके साथ हुआ। एक मालदार आसामी था बस उसकी एक ही डिमांड थी कि रोज़ वो उसके साथ सोये और मुंहमांगे पैसे लेती रहे। और शमीना को चाहिए ही क्या था बस वो वैसा ही करने लगी और फिर एक दिन कुछ महीनों बाद जब हकीक़त सामने आई तो वो कहीं की नहीं रही थी। “क्या हुआ ऐसा सैंडी ?” बेचैन हो व्यग्रता से मैंने पूछा,


“नरेन उस इंसान को एड्स थी और वो एक सनकी था जो अपने माध्यम से ये बिमारी सुन्दर लड़कियों को दे रहा था क्योंकि उसे ये बीमारी एक सुन्दर लड़की से मिली थी और उसी के प्रतिशोध स्वरुप उसने ये रास्ता पकड़ा जिसमे शमीना फंस गयी थी।” अब शमीना के लिए हर रास्ता बंद हो चुका था जहाँ से वो पैसे कमा सके। शारीरिक सम्बन्ध बना नहीं सकती थी किसी से भी और दूसरा कोई काम आता नहीं था। जितने पैसे थे वो कुछ ही दिन में ख़त्म हो गए और उसके बाद शुरू हुआ उसका संघर्ष का सफ़र। एक तरफ बीमारी दूसरी तरफ पैसे न हो पाने की वजह से कहीं रहने तक के लाले पड़ गए तो वो कुछ दलालों के हत्थे चढ़ गयी जिन्होंने उसे भीख के काम में लगाया और वो मजबूरन उस काम में उतर गयी क्योंकि ईश्वर ने पेट एक ऐसी चीज लगाईं है जिसकी अनदेखी इन्सान नहीं कर सकता और उसी की ख़ातिर सब कुछ करने को मजबूर हो जाता है वैसा ही शमीना के साथ हुआ। मगर वहां भी उसकी परेशानियों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा । फुटपाथ ही घर बन गया था, सभी तरह के लोग वहाँ सोते थे और कितनी ही बार औरत होने की वजह से उनकी ज्यादतियों की शिकार होती थी फिर चाहे कितना ही मना करे अपनी बीमारी का हवाला देती मगर जिसे वासना का कीड़ा काट लेता है वो किसी बात पर यकीन नहीं करता और वो भी उसकी इस बात को झूठ मानते, जाने कैसे कैसे लोगों ने वहाँ उससे सम्बन्ध बनाए जिनके कारण यौन रोगों की भी शिकार हो गयी और जब उस दिन मिली और उसने ये सब बताया तो मैं अन्दर तक हिल गयी तब उसने कहा कि ये उसके कर्मों की ही सजा है। उसने एक देवता जैसे प्यार करने वाले शख्स का दिल दुखाया था तो सजा तो मिलनी ही थी बस उसकी अंतिम इच्छा थी कि किसी भी तरह वो मरने से पहले तुमसे मिलकर अपने किये की माफ़ी मांग ले, लेकिन तुम्हारे सामने भी नहीं आना चाहती थी , न ही अपनी पहचान तुम्हें बताना चाहती थी इसलिए तुम्हारी खोज खबर भी नहीं रखती थी “ नरेन , पता नहीं आज वो जिंदा है या नहीं, मगर उसके लिए मुझे दुःख हुआ कि जाने किन भावनाओं के वशीभूत हो उसने अपनी ज़िन्दगी को खिलौना बना लिया और मैं कुछ कर भी नहीं पायी उसके लिए, अपनी रौ में बहती हुई सैंडी बोले जा रही थी और जब उसने कहा कि शमीना ने कहा था कभी नरेन मिले तो उसे मेरा ये सन्देश दे देना , “अपनी शर्तों पर जीवन जीने वाली एक बुरी औरत हूँ मैं”- तुम्हारे अनुसार, जो यौन संक्रमण से ग्रसित हो कब एड्स को दावत दे बैठी पता ही नहीं चला...जो मैंने किया उसका दंड तो भुगतना ही था...हो सके तो मुझे माफ़ कर देना नरेन। ”


कह भरे मन से सैंडी चली गयी और मैं कुछ हद तक अब शायद निश्चिन्त हो चुका था या शायद मेरी खोज को एक अर्थ में विराम मिल चुका था इसलिए गुम हो गया एक बार फिर अपनी संस्था के काम में, झोंक दिया अपना सब कुछ उनके लिए और ज़िन्दगी अपने ढर्रे पर चलने लगी फिर से।

“बाबूजी, बाबूजी, जल्दी चलिए,” बदहवास सा कर्मचारी रामदीन चिल्लाया।

“अरे क्या हुआ रामदीन ? इतने परेशां क्यों हो ?”

“बाबूजी, वो देखिये वहां गेट के पास एक स्त्री बेहोश पड़ी है और लगता है जिंदा नहीं बचेगी “मैं लगभग दौड़ता हुआ गेट तक पहुँचा और उस स्त्री को रामदीन की सहायता से सीधा किया। एक झटका सा लगा, शायद कहीं देखा है, मगर कहाँ याद नहीं। खिचड़ी से बाल, रंग रूप भी चकत्तेदार, फटा हुआ मैला कुचैला सूट, चेहरे पर दायें से बाएं कटे का निशान,पपड़ाये कटे होंठ , एक बांह जली हुई , ऐसे में कैसे संभव है अचानक किसी को देखने पर याद रखना , “अरे रामदीन , जल्दी से पानी लाओ ? होश में लाओ इसे। ”


रामदीन पानी छिड़कता है तो थोड़ी से वो कुलबुलाती है। मैं एक घूँट पानी उसके मुंह में डालता हूँ तो उसकी आँख खुलती है...अजनबी निगाहों से सबको देखती है और पूछती है :“मैं कहाँ हूँ ? कौन हैं आप लोग और ये कौन सी जगह है ?”

“चलिए, पहले आप अन्दर चलिए उसके बाद आपकी हर बात का जवाब देते हैं “, कह मैंने और रामदीन ने उसे सहारा दिया और अन्दर ले आये मगर इस बीच उसने मानो ज़हन पर कब्ज़ा ही कर लिया था, यादों के झुरमुट से सिरा पकड़ने की कोशिश कर रहा था मैं कि वो बोली :“ नरेन , तुम में आज भी कोई ख़ास बदलाव नहीं आया” , सुन चौंक उठा मैं, आखिर ये है कौन जो मेरा नाम तक जानती है।


“आप मुझे जानती हैं”, हैरत में पड़ा मैं बोल उठा,

“हाँ , एक गहरी श्वांस भर उसने कहा मानो हाँ कहने के लिए भी एक लड़ाई वो खुद से लड़ रही हो और सोच रही हो हाँ कहूँ भी या नहीं।“ “नरेन पहचाना नहीं क्या मुझे ?” मेरी ओर बेबसी से देखते हुए वो बोली,

नहीं , असमंजस की सी स्थिति में पड़ा मैं अपने ज़हन के घोड़े दौड़ाने लगा था कि शायद कोई सिरा हाथ लगे तो पता चले आखिर ये है कौन मगर ज़हन के तार बेजार से बंगले ही झांकते मिले। “नरेन , तुम सही थे और मैं गलत... ये आज कह सकती हूँ मगर उस वक्त जवानी के जूनून ने मेरी आँखों पर जाने कौन सी गांधारी पट्टी बाँधी थी कि अपने आगे न किसी को देखती थी न समझती थी और जो मैंने तुम्हारे साथ किया शायद ये उसी का दंड है कि ज़िन्दगी अंतिम बार तुमसे मिलाने ले आई और तुमसे माफ़ी मांग शायद मैं थोड़ा सा प्रायश्चित कर सकूँ। ”


दुविधा के बादलों में घिरा मैं असमंजस में पड़ा उसे देख और सुन रहा था मगर पहचान के कोटर में कबूतर गुटर गूं करने से इनकार करते ही रहे।

“नरेन , कैसे पहचान सकते हो तुम मुझे, ये सब मेरा ही किया धरा है तो भुगतना भी मुझे ही होगा। अच्छा है तुमने नहीं पहचाना, जाना आसान हो जायेगा वर्ना हमेशा एक खलिश के साथ याद आती रहूँगी। जिन रास्तों की मंज़िलें नहीं हुआ करतीं वहीं फिसलने ज्यादा होती हैं और उन पर चलने का खामियाज़ा मैंने ऐसा रोग पाकर किया कि अब जीने की चाह ही ख़त्म हो चुकी और वैसे भी अब तो जीने की मियाद भी ख़त्म हो चुकी है, कौन सी सांस आखिरी हो कह नहीं सकती। बस जाते जाते एक विनती है तुमसे, हो सके तो मुझे माफ़ कर देना, मैं तुम्हारे काबिल कभी नहीं थी “ क्या हुआ है तुम्हें और तुम्हारा मुझसे आखिर क्या नाता है ? मैं तुम्हें पहचान क्यों नहीं पा रहा, प्लीज बताओ मुझे। ”


“बस इतना याद रखो, अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी जीने वाली एक ‘बुरी औरत हूँ मैं’- तुम्हारे अनुसार, जो यौन संक्रमण से ग्रसित हो कब एड्स को दावत दे बैठी पता ही नहीं चला, जो मैंने किया उसका दंड तो भुगतना ही था... बस ईश्वर की शुक्रगुजार हूँ जो उसने तुमसे मिलवा दिया ताकि एक बार माफ़ी मांग सकूँ। हो सके तो माफ़ कर देना मुझे”...अपनी थरथराती साँसों के साथ उसके आखिरी लफ्ज़ फिजां में गूँज उठे और मैं पहचान के तिलिस्म में घूमता एक असमंजस का आईना बन गया था जहाँ न रूप ने न गंध ने पहचान के बादलों को छाँटा , बदली छंटी भी तो लफ़्ज़ों की कुदाल से कटती हुई या जाने काटती हुई , मेरे प्रेम के वटवृक्ष को धराशायी करने को काफी लेकिन अंतिम शब्दों ने एक बार फिर मेरी चेतना को झंझोड़ दिया। अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी जीने वाली ‘एक बुरी औरत हूँ मैं’-तुम्हारे अनुसार। ये ‘तुम्हारे अनुसार’ शब्दों ने एक बार फिर सोचने को मजबूर कर दिया, ‘यानि’ ‘उसके अनुसार’ वो अब भी सही थी?



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Tragedy