बसंती की बसंत पंचमी- 10
बसंती की बसंत पंचमी- 10
फ़ोन आता तो वो इस उम्मीद से उठातीं कि कहीं से उन्हें कोई ये खबर मिले- लो, मेरी महरी तुम्हारे यहां आने के लिए भी राज़ी हो गई है, कल से आ जाएगी।
पर ऐसा कुछ नहीं होता। उल्टे उधर से उनकी कोई अन्य सहेली चहकते हुए बताती कि उसे नई बाई मिल गई है। अच्छी है, पहले वाली से थोड़ा ज्यादा लेती है पर साफ़ सुथरी है। मेहनती भी। उम्र भी कोई ज़्यादा नहीं।
- अरे तो उससे कह ना, थोड़ा सा समय निकाल कर मेरे यहां भी कम से कम बर्तन और झाड़-पौंछ ही कर जाए। कुछ तो सहारा मिले।
- ना बाबा ना, एक बार मैंने तो पूछा था पर उसने साफ़ मना कर दिया। बोली, इतना टाइम नहीं है। फ़िर मैंने ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया, क्या पता बिदक जाए तो मेरे हाथ से भी जाए।
श्रीमती कुनकुनवाला मन मसोस कर रह गईं।
अभी ये सब चल ही रहा था कि रोज़ के अख़बार नई- नई मुसीबतों की खबरें लाने लगे।
असल में हुआ ये कि चारों तरफ़ कोरोना संक्रमण फैलने के कारण एक- एक करके लोगों के कल कारखाने, दुकान- मंडियां बंद होने लगे। जगह- जगह कर्फ़्यू लगने की खबरें आने लगीं। धीरे - धीरे सड़कों पर सन्नाटा पसरने लगा।
कल कारखाने बंद हुए तो मजदूर और कामगार निकाले जाने लगे। ऐसे में लोगों के पास काम के साथ- साथ आमदनी का संकट आने लगा। लोग घबरा कर शहर से अपने - अपने गांवों की ओर पलायन करने लगे।
यही कारण था कि घरों में काम करने वाली ज़्यादातर बाईयां भी अपने बच्चों और बड़ों के साथ साथ गांवों की ओर कूच करने लगीं। वैसे भी इन्हीं कामगारों, रिक्शा वालों और मजदूरों की बीवियां ही तो थीं जो घरों में काम करके अपनी- अपनी गृहस्थी को चार पैसे की आमदनी का सहारा दे रही थीं। पूरी कॉलोनी में एक ही इलाके से आई हुई औरतें छाई हुई थीं।
... मुसीबत रोज़ बढ़ रही थी...(जारी)