बिन बचपन बच्चा कैसे?
बिन बचपन बच्चा कैसे?
वैसे मौसम कुछ बुरा नहीं था और मिज़ाज भी बेहतर था,सुबह की चाय और हाथ मे अख़बार, अख़बार में नेताओं द्वारा घोषित अजन्मा विकास और पशुता की झलकियाँ।इसी बीच माहौल थोड़ा बदलता है ,एक छोटी सी लड़की उम्र लगभग नौ-दस वर्ष,हाथ मे कटोरा लिये सड़क पर दिख गयी,लोगों के पास जाती, कोई सुनता तो कोई गाली देकर भगा देता और वह , वह बेचारी एक अजीब सी मुस्कान के साथ आगे बढ़ती चली जाती।मैंने पेपर रख दिया और उसे अपने पास बुलाया; "क्या नाम है तुम्हारा?" धीरे से जवाब आया पर मैं समझ नहीं पाया।मैंने फिर पूँछा, "स्कूल जाती हो..?" उसने गर्दन हिलाकर मना कर दिया। जैसे-जैसे मैं उससे बात करता जाता वैसे-वैसे चाय का नशा उतरता जाता और आँखें खुलती जाती,आज प्रत्यक्ष दिखने लगा कि वास्तव में "एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग" पेपर में नेता जी को पढ़ा तो उन्होंने पूरी पोथी दी हुई कि हमने इतने बचपन बचा लिये, टीवी चालू करो तो एक ही स्वर "बचपन बचाओ-भारत बचाओ"।यह सब तो ठीक है लेकिन यह बताओ कि बचपन बचाना किसका है?उनका,जिनका पैम्पर बदलने के लिये भी नौकरों की लाइन लगी रहती है,उनका,जिनके आस-पास इतने खिलौने बिखरे पड़े होते हैं कि ज़मीन दिखना मुश्किल हो जाती है।उनका,जिनको कभी धूप और धूल का एहसास तक नहीं होता....हाँ शायद सियासी दुनिया मे इन्ही लोगों का बचपन बचाने की जरूरत है क्यों?इसका जवाब पूँजीवादी स्वयं जान रहे हैं।ख़ैर ठंढी होती चाय के बीच वार्ता और विचारों के इस सफ़र में अंत मे मुँह से निकल गया कि "तुम भीख मत माँगा करो क्योंकि बच्चों को भीख नहीं माँगनी चाहिये.." इस पर उसने जो जवाब दिया उसको सुनकर मेरा दिमाग़ चकरा गया और कुछ यूँ चकराया कि अब तक उसी पर मंथन जारी है ।उसने कहा, बाबू जी! हमको बच्चा मत कहो,बच्चों के पास खिलौने होते हैं,मेरे पास नहीं हैं इसलिये मैं बच्चा नहीं हूँ.... मैं बच्चा नहीं हूँ क्योंकि मुझे पालने वाले माँ-बाप नहीं हैं......मैं बच्चा नहीं हूँ क्योंकि मेरे पास बचपन नहीं है.....