Siddhi Diwakar Bajpai

Drama Crime Inspirational

4.0  

Siddhi Diwakar Bajpai

Drama Crime Inspirational

भटका समाज और रिश्तों में अपराध

भटका समाज और रिश्तों में अपराध

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प्रिय मित्रों, आज की मेरी कहानी इंसानों के एक ऐसे विशेष वर्ग पर है जिनके लिए उनका मनोरंजन इस कदर अहमियत रखता है कि उसे पाने के लिए वो नीचता की सीमा को लांघते हुए, दुष्कर्म के रास्तों पर लगातार चलते रहते हैं।

मनोरंजन यदि किसी निर्जीव साधन से किया जाए तो उसे दुष्कर्म नहीं कहा जा सकता बल्कि ये तो हर व्यक्ति का अधिकार है। लेकिन अगर यही मनोरंजन किसी जीवित व्यक्ति से लिया जाए, बिना ये सोचे कि इसका दूसरों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा, तो ये मनोरंजन नहीं पाप कहलाता है।

 जी हां, यहां बात हो रही है युवा वर्ग के कुछ स्वार्थी इंसानों की। जिनकी मानसिक स्तर को मापना असंभव है। आम इंसान जिसे सोचने से भी कांपता है, उसे करना उनके लिए एक खेल मात्र है।


युवावस्था आते ही इंसान के दिल-दिमाग में आई सभी बातें, इंसान को सर्वश्रेष्ठ लगने लगती हैं। उम्रदराज लोगों का तजुर्बा उसके आगे हल्का पड़ने लगता है। और एक समय ऐसा आता है की पछताने को कुछ नहीं रहता।

ये कहानी है एक 21 साल के लड़के वीरेंद्र और 20 साल की लड़की रश्मी की। जो किसी पारिवारिक कार्यक्रम में एक दूसरे को देखते हैं और देखते ही उनके बीच आकर्षण उत्पन्न हो जाता है। इस आकर्षण के दबाव में दोनों एक दूसरे से बात भी करते हैं। इस प्रकार इनके बीच एक छोटा सा परिचय हो जाता है। फिर तो वही हुआ जो अमूमन इस उम्र में होता है। पूरे कार्यक्रम में रह- रह कर ये दोनों एक दूसरे को चोरी चुपके नज़रों से देखते रहें और मौका मिलने पर हंसी-ठिठोली भी करते रहें।

कार्यक्रम तो समाप्त हो गया लेकिन दोनों के बीच इतना आकर्षण बढ़ गया की दोनों बाहर भी एक दूसरे से छुप छुप कर मिलने लगे। वीरेंद्र दिल्ली के एक कॉल सेंटर में नौकरी करता था और रश्मी अभी ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रही थी। वीरेंद्र अपने मित्र के बड़े भाई के विवाह कार्यक्रम में अपने घर आया था जो कि एटा जिले में था। और यही उसकी मुलाकात रश्मी से हुई। दोनों के बीच मिलना-जुलना जितना बढ़ता गया, उतना ही उनके बीच नजदीकियां बढ़ने लगी। इस उम्र में हर किसी को इस प्रकार का आकर्षण महसूस होता है। इसके बावजूद कुछ अपनी सीमा में रहते हैं और कुछ इसे लांघ जाते हैं। इन दोनों के साथ भी यही हुआ। इन्होंने इस आकर्षण को प्रेम समझकर कभी भी अलग ना होने का फैसला कर लिया।

दोनों ने बिना अपने परिवार को बताए, बिना नौकरी की चिंता करे दिल्ली और एटा दोनों छोड़ दिया और एक नए अनजान शहर भोपाल में जाकर लिविंग में रहने लगे। लेकिन भोपाल में भी बिना किसी नौकरी के जीवन यापन करना सपनों की दुनिया से बिल्कुल अलग था। 

उन्हें विश्वास था की कोई ना कोई नौकरी तो वीरेंद्र को मिल ही जाएगी। तब तक के लिए थोड़ा बहुत पैसा तो उसके पास जमा ही था। जैसे तैसे रहने का इंतजाम तो उन्होंने कर ही लिया था। लेकिन जल्दी ही वीरेंद्र को किसी नौकरी की जरूरत भी थी क्योंकि ज्यादा पैसे अब उसके पास बचे नहीं थे।

इसी बीच दोनों शादी करने का निर्णय भी लेते हैं। और देखते देखते दोनों अपने रिश्ते को शादी का नाम भी दे देते हैं।

अंततः वो समय आ गया कि सपनों की दुनिया से बाहर निकल कर वो हकीकत की दुनिया को पहचाने। दूसरे शहर में आने से वीरेंद्र की नौकरी छूट चुकी थी इसलिए जीवन यापन करने के लिए वो रोज़ किसी ना किसी कंपनी में जाकर अपनी किस्मत आजमाता रहा लेकिन कोई सफलता हासिल नहीं हुई। बहुत मुश्किल से जैसे तैसे एक नौकरी हाथ आई, लेकिन उसकी तनख्वाह संतोष जनक नहीं थी। उसे पता था की इसमें केवल उनका गुज़र-बसर ही संभव है।

शुरू से ही वे दोनों सपनों की दुनिया में जी रहे थे। उन्हें एक हाई क्लास लाइफ की चाह थी। इसलिए नौकरी लगने के बाद भी छुट्टियों के दिनों में वो लगातार इंटरव्यू देता रहा। दिन भर वीरेंद्र का ऑफिस में निकल जाता। और हफ्ते की एक छुट्टी जो मिलती उसे वो इंटरव्यू देने में निकाल देता। एक कहावत है - भूखे पेट भजन न होए इसका अर्थ और इसकी सच्चाई आज इन्हें कुछ- कुछ समझ आने लगी थी।

कुछ दिन ऐसे ही बीतते रहें। फिर दोनों के बीच मन मुटाव शुरू हो गया। जो दो लोग एक दूसरे से मिलने के लिए समय की ताक में रहते थे और लोगों की नज़रों से छिप छिप के मिलते थे, आज उन्हीं के पास एक दूसरे के लिए समय नहीं था। उसका मुख्य कारण यही था की वीरेंद्र को अब घर चलाने के लिए एक अच्छी और ज्यादा तनख्वाह वाली नौकरी की तलाश थी।

तजुर्बे की कमी के कारण उन्हें ये ज्ञान ही नहीं था की कुछ पैसों में तो गुजर बसर संभव है लेकिन बिना सुख शांति के जीवन में कुछ नहीं। दिन भर ऑफिस में रहना और छुट्टी के दिन दूसरे ऑफिसों के चक्कर लगाना, यही उसके रोज का नियम बन गया था।

 रश्मी और उसकी इच्छाओं के लिए उसके पास ज़रा भी समय नहीं था। रश्मी इस बात से बहुत दुखी थी। होना भी चाहिए क्योंकि जब इंसान रंगीन सपनों में जीता है और उसके सपने सच ना हो पाए तो इंसान को अपने जीवन में दुःख के सिवा और कुछ हासिल नहीं होता। वो हमेशा पिछले समय और आज के समय की तुलना करती रहती और यही उसके दुःख का कारण था। उसकी जिंदगी में यदि कोई समझदार और अनुभवी व्यक्ति होता तो शायद उसे समझा सकता की दुनिया सपनों और हकीकत का मिला जुला रूप है। ऐसा नहीं है की सपने देखना गलत है या उसके पूरे होने की चाह रखना गलत है लेकिन यदि उसे हासिल करने में असफलता हासिल हो तो कभी कभी इंसान को समझदार बनते हुए कोई दूसरा सही रास्ता अपनाना चाहिए, ना कि गलत राह पर चलना चाहिए।

उम्र छोटी हो और जीवन में सही मार्गदर्शक ना हो तो इंसान गलत राह पर भटक ही जाता है। बहुत कम लोग होते हैं जो अपने ज्ञान और विवेक का इस्तेमाल करते हुए अपनी परेशानियों से बाहर निकल पाते हैं। समय बीतता गया लेकिन उनके जीवन में किसी भी प्रकार का कोई सुधार नहीं हुआ।

अब धीरे धीरे रश्मी ने भी अपनी शिकायतें वीरेंद्र के सामने रखनी शुरू कर दीं। वीरेंद्र ने भी अपनी परेशानियों और संघर्ष के आगे, रश्मी की इच्छाओं को कोई तवज्जोह नहीं दिया। और इसका विरोध करने पर नतीजा ये हुआ की दोनों के बीच मन मुटाव शुरू हो गया।

वीरेंद्र अपनी जिम्मेदारी ना निभा पाने के कारण अंदर से कुंठित हो चुका था वो बात बात पर चिड़चिड़ाने लगा था। इसी वजह से रश्मी के शिकायत करने पर उसका गुस्सा उसकी बोली - भाषा में दिखने लगा और इसी गुस्से ने धीरे धीरे तांडव का रूप ले लिया।

रश्मी को उसकी उम्मीदों का घर टूटता हुआ दिख रहा था और वीरेंद्र के अंदर ग्लानि इतना घर कर चुकी थी कि छोटी-छोटी बात पर उसका गुस्सा उग्र रूप ले लेता। धीरे धीरे ये दिन भी आ गया की इनके झगड़े ने घरेलू हिंसा का रूप ले लिया।

अब दोनों अपने फैसले पर पछताने लगे लेकिन अपने परिवारों से रिश्ता खत्म कर लेने के बाद, अब उन लोगों के पास साथ रहने के अलावा कोई और दूसरा रास्ता नहीं बचा था। ये सत्य है की यदि इंसान के जीवन में सिर्फ दुख ही दुख होता है तो वो घर को छोड़कर बाहरी दुनिया में सुख खोजने लगता है।

वीरेंद्र ने अपनी परिस्थिति को भूलने के लिए नशे का सहारा लिया। दिन रात वो नशे में डूबा रहता और रश्मी अपने पड़ोस के एक लड़के की तरफ आकर्षित हो गई। काफी दिन ऐसा चलता रहा। एक दिन जब पड़ोसियों ने इसकी सूचना वीरेंद्र को दी तो बिना सत्य को जांचे- परखे उसने रश्मी पर इतनी हिंसा करी की काफी दिन तक वो बिस्तर से उठ ना सकी।

बदला लेने के लिए वीरेंद्र ने भी एक लड़की से व्यवहार बनाना शुरू कर दिया। उम्र की कमी और परिपक्वता ना होने के कारण उनके बीच संबंध इतना गहरा हो गया की उसने फिर से एक नए जीवनसाथी के साथ, एक नया जीवन जीने का निर्णय ले लिया। उधर रश्मी भी अपने पड़ोसी के साथ रंगीन दुनिया में खोई हुई थी।

दोनों के बीच आए दिन लड़ाई और हिंसा चलती रही। दोनों ही एक दूसरे से छुटकारा पाना चाहते थे। अंततः एक दिन वीरेंद्र ने अपनी पुरानी ज़िंदगी से छुटकारा पाने की ठान ली और वो जघन्य अपराध कर डाला जिसकी किसी ने कल्पना भी ना की होगी।

खाना बनाते वक्त उसने रश्मि के पूरे शरीर में मिट्टी का तेल डाल कर उसे उसी चूल्हे में धक्का दे दिया जिसमें वो खाना बना रही थी। उसी दिन उन दोनों के रिश्ते का अंत हो गया। रश्मी का जीवन वही समाप्त हो गया और लड़के को पुलिस ने हिरासत में ले लिया।

कोई सोच भी नहीं सकता कि जो प्रेमी युगल एक दूसरे के साथ जीवन बिताने के लिए अपना-अपना घर छोड़कर भागे थे आज उन्हीं दोनों ने अपने रंगीन सपनों का आनंद लेने के लिए और सिर्फ अपनी मौज मस्ती के लिए खुद की कीमती जिंदगी को खत्म कर लिया था।

मित्रों, आपके अनुसार इसमें दोष किसका होना चाहिए?

मेरे हिसाब से तो इसमें लड़के और लड़की के अलावा पूरा समाज भी दोषी है। और जैसा की मैं पहले की अपनी कई कहानी में आपसे व्यक्त कर चुकी हूं, कि समाज मुझसे और आपसे ही मिलकर बना है इसलिए सही मायने में हम भी उतने ही दोषी हैं जितना की वो दोनों। समाज में इतनी ज्यादा आधुनिकता फैल चुकी है की समाज उसमें बहता चला जा रहा है। हम सब अपने अच्छे बुरे की पहचान को खो चुके हैं। आज हमारे पास इतना समय नहीं है की हम अपने परिवार में बैठ कर उनसे बात कर सकें। अपने बुजुर्गों की सीख और उनके पुराने अनुभवों को हम तो ग्रहण कर चुके लेकिन क्या उन तजुर्बों को हमने अपने आने वाली पीढ़ी के साथ कभी साझा किया?

हमारे बुजुर्गों ने तो हमें सही गलत की पहचान करा कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली, लेकिन क्या हमने उस पद्धति को आगे बढ़ाया?

आज हमारे बच्चे अपनी अलग ही रंगीन दुनिया में खोए हुए हैं। वो अपनी सोच को ही सबसे ज्यादा क्रियात्मक और बेहतर समझते हैं क्योंकि तुलना करने के लिए ना तो उनके पास कोई जीवनी है और ना ही किसी का तजुर्बा।

किताबी पढ़ाई केवल नौकरी तक ही साथ देती है, असली जिंदगी जीने के लिए अनुभव की जरूरत होती है जो हमारे बच्चों के पास है ही नहीं।

यदि उन बच्चों के माता पिता ने भी इतनी समझदारी दिखाई होती तो शायद उन्हें ये अंदाजा होता की जीवन सिर्फ युवावस्था के रंगीन सपने देखने से नहीं जिया जाता बल्कि उसे जीने का एक सही समय होता है और वो सही समय तब आता है जब हम अपने और अपने से संबंधित सभी लोगों की जिम्मेदारी उठाने के काबिल हो जाते हैं। तभी सही मायने में हम जीवन के हर सुख को प्राप्त कर सकते हैं।

मित्रों आप सबसे मेरा अनुरोध है की अपने निजी जीवन के बहुमूल्य समय में से कुछ समय अपने परिवार और अपने बच्चों को अवश्य दें। ताकि हमें ये ज्ञात हो सके की किताबी ज्ञान के अलावा, दुनियादारी की समझ उनमें है भी की नहीं। इसके साथ ही समाज में हो रही हर एक बात पर चर्चा करें ताकि आपको अपने बच्चों के मन के भीतर चल रही बात की भी जानकारी मिल सकें, तभी सही मायने में आप उन्हें सही और गलत का ज्ञान दे सकेंगे।

मित्रों मैं उम्मीद करती हूं कि अपनी कहानी के उद्देश्य को मैं आप सब तक पहुंचा पाई। और उम्मीद करती हूं कि आप सदैव अपने परिवार और अपने बच्चों को उसी प्रकार सहेजेंगे जैसे की आपके अपने माता पिता ने आपको और अपने परिवार को सहेजा था।

 इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी कहानी को विराम देती हूं। धन्यवाद।




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