बधाइयाँ
बधाइयाँ


यूं तो भारत जश्नों का देश है। यहाँ हर मौसम ही त्यौहार है। पर बात जब शादी और लगन की हो तो मेरा मन रोके नहीं रुकता। जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ शदियां तो सालों भर होने लगी हैं। तो जैसे ही लगन का मौसम आया मैंने भी तैयारी शरू की। सारे अच्छे कपड़े लॉन्ड्री में दे डाले, सिक्के वाले दो दर्जन लिफाफे मंगवाये , एक नयी कमीज और महँगा सेंट काम पर जाने वाले झोले में भी रखा, अर्थात आपातकाल की पूरी तैयारी। माने कही ऑफिस से ही भोज - भात में जाना पड़ा तो मौका जाने न पाए। नहीं ख़रीदा तो बस महीने का राशन। अजी जरूरत ही नहीं ....... क्योकि दावतों में तो लोग जोरू के साथ चार बच्चे ढो डालते हैं। एक टंकी पे , दूसरा पिता की गोद में , तीसरा माता-पिता के बीच में और चौथा पीछे लटकी माँ की गोद में। मैं तो फिर भी अकेला हूँ।
लगन का दिन मजे में काट रहा था। न्योतों की भरमार लगी थी। पर महीने की 13 तारीख को ऐसा हुआ कि एक भी आमंत्रण मेरे हाथ नहीं लगा। सुबह से ही खाने की चिंता सताने लगी। भूखे पेट ऑफिस गया। सारा दिन काम में मन नहीं लग रहा था। पर शाम होते - होते भगवान ने मेरी सुन ली। पता चला मेरे सहकर्मी को किसी बारात में जाना है। मुझे भी मनाने में ज्यादा चापलूसी नहीं करनी पड़ी। बस ऑफिस से छूटते ही , भूखे भेड़िये की तरह , बारात के प्रस्थान स्थल पर जा पहुंचा। पर तब तक बस खचा-खच भर चुकी थी। छतरी पर चढ़ने अलावा दूसरा कोई चारा नहीं था। जैसे ही छतरी पर मेरे पैर पड़े , एक चररर ........ की आवाज़ ने मेरे पाजामे की मयान को आठ इंच बड़ा कर दिया। देखकर मेरे होश उड़ गए। एक पल तो लगा गोली मारो , पर पजामा पहले ही गवां चुका था और ऊपर से खाने का खर्चा। सोचा चलो ...... आज एक मिठाई ज्यादा खा लेंगे, हिसाब बराबर हो जायेगा। इसी उधेड़बुन में पता ही न चला कि गाड़ी कब चल पड़ी ।
तीन घंटे के जानलेवा सफर के बाद आख़िरकार वो शुभ घड़ी आ ही गयी। रात हो चली थी। पहले जयमाल फिर शुभ भोज का आयोजन था। खाने की भीनी - भीनी खुशबू से मेरा मन मचल रहा था। पर जैसे ही जयमाला का कार्यक्रम शुरू हुआ , वर - वधु पक्ष के बीच गर्माहट बढ़ गयी। मामला
दूल्हे के लफंगे दोस्तों का स्टेज पर सुन्दर युवतिओं के साथ रगड़ा -रगड़ी का था। पलक झपकते ही बारात की बस से लोगों से ज्यादा डंडे निकले, देखकर मेरा सिर चकराने लगा। हालाँकि खाने के पीछे मैंने इन बातों पर ध्यान देना व्यर्थ समझा। पर जैसे ही खाने के स्टॉल की ओर लपका, किसी की लाठी की नोक ने मेरे फटे पाजामे की छेद को और बड़ा कर दिया। डंडा पिछवाड़े में था, और बात जान पर थी......... यह बात जहन में आते ही मेरी रूह काँप गयी। सोचकर घंटों से रोकी हुई लू - सू ने जोरों से दस्तक दे डाला। मैं भागा ...... भागता गया ..... बस भागता गया। भागते हुए मुझे गांव की याद सत्ता रही थी , जहाँ कही भी बैठ कर हल्का हो जाते हैं, पर इस अनजान शहर में कहा जाऊं ? करीब एक किलोमीटर भागने के बाद एक नलका दिखा। लगा जैसे नलका नहीं , भगवान स्वयं प्रकट हो गए हों। मैं वहीं बैठ गया। तभी कॉलोनी के चौकीदार की नजर मुझ पर पड़ी। वह सिटी बजाता हुआ हाथ में डंडा लेकर मेरी ओर लपका। यह देखकर मैं बिना धोये दौड़ा । और काफी दूर भागने के बाद मै एक दावत में पंहुचा जहा लोग शांति से भोजन कर कर रहे थे। आनन फानन में मै भी घुस गया। खाना बड़ा लाजवाब था। पर खाते हुए कुछ जाने पहचाने चेहरे भी दिखने लगे।
डरते हुए मैंने एक सज्जन भाई से पूछा, " भाई ! झगड़ा ख़तम हो गया क्या? "
" अरे हाँ ...... हाँ ...... माफ़ी भी हो चुकी है। आप निश्चिंत होकर खाना खाइये। " - उसने बड़े ही सहज भाव से कहा। जैसे कोई आम बात हो।
" मतलब ???" - बदहवासी में मेरी जवान से फटका।
" ओ ..... लगता है आप नए हैं यहाँ। " - उसने शान से अपनी बात आगे बढ़ाई, बोला - " भाई पिटाई तो यहाँ हर बाराती की होती है। पिटने के बाद भी जो लोग बच जाते हैं , उन्हें मन धना कर खाना खिला दिया जाता है।
सुनकर मेरा माथा ठनका , अपनी गहरी सोच पर बड़ी मुश्किल से लगाम लगाते हुए उतावलेपन से मैंने पुछा , " आखिर क्यों .........? "
" तो क्या चार सौ लोगों को खाना खिलाकर अपना घर लुटवा लें ? - उसका चेहरा आक्रोशित था।
"वैसे ........ बधाइयाँ ........" - मुस्कुराते हुए वह आगे बढ़ गया।