बारिश और लॉकडाउन
बारिश और लॉकडाउन
बारिश और लॉकडाउन। कुछ कुछ वैसे ही जैसे करेला और नीम चढ़ा। या फिर कहें कि कंगाली में आटा गीला। कोढ़ में खाज शायद सबसे अधिक उपयुक्त रहेगा। अरे, छोड़ो भी। क्या रखा है शब्दों की बाजीगरी में। यहां तो हालत वैसे ही पतली हो रही है।
कल रात से ही झमाझम बारिश हो रही है। जिनकी बीवियां अपने साथ हैं या फिर जो प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं के साथ हैं उनके तो मजे ही मजे हैं। दसों क्या बीसों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में है उनका। कभी गरमागरम पकौड़े तो कभी पनीर टिक्का। कभी आलू, गोभी, पनीर के परांठे तो कभी मूंगलेट। ठाठ हैं उनके जो अपनी श्रीमती जी की गोदी में सिर रखकर बालकनी में लेटे हुए हैं और श्रीमती जी उनको अपने नाज़ुक हाथों से पकौड़े खिला रहीं हैं। श्रीमान जी पकौड़ों के साथ साथ श्रीमती जी की मस्त अदाओं का भी आनंद ले रहे हैं। मगर हम जैसे विरही और "सिंगल" लोग, यहां पड़े पड़े "कोरोना" को कोस रहे हैं कि उसकी वजह से सरकार को लॉकडाउन घोषित करना पड़ा। इस चक्कर में अपनी तो ऐसी तैसी हो गई ना !
कभी कभी तो हमको हमारे ससुराल वाले भी "दाल भात में मूसलचंद" नजर आते हैं। क्या जरूरत थी श्रीमती जी को अपने यहां बुलवाने की ? कहते थे कि शादी के बाद पहला सावन है जो कि मायके में ही मनाया जाता है, इसलिए भेजना आवश्यक है। अब उनको कैसे समझाएं कि शादी के बाद ही तो "असली" जरूरत होती है बीवी की, और तुम परंपरा का बहाना लेकर उसको बुलवा लो ? दिन काटे नहीं कटते और रातें सोने नहीं देती। पता नहीं किस "मनहूस" आदमी ने ये परंपरा चलाई है कि पहला सावन मायके में निकालना है। लगता है कि उसकी शादी नहीं हुई होगी इसलिए उसके लिए तो "जैसे सैंया रहे देस, वैसे रहें विदेश" वाली कहावत लागू होगी। पर भैयाजी, हमारे जैसे नव विवाहित जोड़ों का क्या होगा ? कभी सोचा है इस पर ? इतनी गालियां पड़ रहीं होंगी कि तुम सोच भी नहीं सकते हो। मगर, इतनी ही शर्म होती तो ऐसा नियम ही क्यों बनाते ?
चलो, नियम बना दिया तो कोई बात नहीं। मगर ये बरखा रानी ! तुमको भी अभी ही बरसना था ? अगर महीने दो महीने बाद बरस जाती तो क्या पहाड़ टूट जाता ? कोई भूचाल आ जाता या ज्वालामुखी फट जाता ? फिर आ भी गई तो ऐसे टूट कर थोड़ी ना कोई आता है, जैसे तुम आईं हो। चारों तरफ हरियाली का साम्राज्य हो गया है। पत्ता पत्ता बूटा बूटा खिल खिला रहा है। कलियों पर बहार आ गई है और वातावरण में एक विशेष महक सी घुल गई है जो मन में एक मीठी मीठी आग लगा रही है।
आग लगा भी दी तो भी कोई बात नहीं, औरत और मौसम का तो काम ही आग लगाना है। मगर ये तो हद दर्जे का अत्याचार है कि जिनकी पत्नियां या प्रेमिकाएं बाहर हैं, वो चाहे किसी भी कारणों से हों, उनके दिलों में भी विरह वेदना की हूक जगा दी है तूने। अब वे इस "विरह की पाती" को लेकर कहां जाएं ? एक ने ही बड़ी मुश्किल से घास डाली थी हमें, अब वह भी हमें यहां अकेले छोड़कर मम्मी पापा की गोदी में फिर से खेलने चली गई ? आज तो वो पड़ोस वाली छमिया भाभी भी नहीं है, नहीं तो उन्हें देखकर ही मन बहला लेते। मगर वे भी अपने मायके चली गई हैं। ये सारी लड़कियां सावन में ही मैके क्यों जाती हैं, यार ?
इधर ये बैरी कोरोना। इसने भी नाक में दम कर रखा है। पिछले साल से ही यह हमारी छाती पर मूंग दल रहा है। अरे, तेरे को अगर मूंग ही दलने थे तो चीन की छाती पर दलता क्योंकि तुझे पैदा भी तो उसी ने किया था। मगर तू तो बेशर्म निकला नेता, अफसर, मीडिया, बॉलीवुड और बुद्धिजीवियों की तरह। कोई दीन ईमान नहीं। बस, मतलब की दुनिया है तेरी। अपने स्वार्थ के लिए गधे को भी बाप बना लेता है तू। इस बार तो अपने साथ अपने पूरे परिवार को भी लेकर आया था और हजारों लोगों को मौत के घाट पहुंचाया था। बाकी लोग तो तेरे चंगुल से बच निकलने में कामयाब रहे। मगर सरकार को इस कारण लॉकडाउन घोषित करना पड़ गया और हम जैसे प्रेमी, पति, आशिकों की मुसीबत बढ़ाकर रख दी तू ने। अब मैं इधर और "वो" उधर। बीच में ये दुष्ट "लॉकडाउन"। मेरे पास क्या विकल्प छोड़ा है सिवाय इसके कि मैं यह गीत गुनगुनाता रहूं
"मेरे साजन हैं उस पार
मैं मन मार, हूं इस पार
ओ मेरे मांझी अबकी बार
ले चल पार, ले चल पार
मेरे साजन हैं उस पार।
क्या पता "जो हाल दिल का इधर हो रहा है" कहीं वही हाल दिल का उधर भी तो नहीं हो रहा है ? फोन पर तो कोई लॉकडाउन नहीं है ना ? चलो मालूम करते हैं कि क्या हाल चाल हैं उधर ?
जैसे ही फोन की घंटी बजी वैसे ही आवाज आई "जिया जले जान जले, चारों तरफ धुंआ जले"। हमने कहा "कैसी हो जाने जाना, जान ए तमन्ना, जाने बहार, जाने जिगर, जां नशीन, जॉनी दुश्मन। क्या कर रही हो ? हम तो न जाने कब से यह गीत गाए जा रहे हैं
"दिल में आग लगाये सावन का महीना
नहीं जीना नहीं जीना तेरे बिन नहीं जीना "
उधर से आवाज आई
"हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी"
अब मुझे संतोष हो गया था कि आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई है। मैंने कहा "ये बारिश का मौसम ये रंगीन शामें। बस, जी रहे हैं इस दिल को थामें " तो वो बोली
"पंख होते तो उड़ आती रे
रसिया,ओ बालमा
तुझे दिल का दाग दिखलाती रे।
ओ ओ पंख होते तो उड़ आती रे।
अब तो पक्का यकीन हो गया कि आग उधर भी लगी हुई है। अब सवाल यह है कि ये
मगर बुझे कैसे ? जब दो दिल साथ होंगे तभी तो ये आग बुझेगी। मगर जब तक कोरोना का कहर रहेगा, सरकार लॉकडाउन नहीं हटायेगी। काश ! इस बारिश के मौसम में यह लॉकडाउन हट जाए और हम उड़कर उनके पास पहुंच जायें।
मैं चाय बनाकर टी वी के सामने बैठा ही था कि ब्रैकिंग न्यूज आने लगी। "बारिश के मौसम को ध्यान में रखकर सरकार ने लॉकडाउन हटा लिया है। समाचार सुनकर मन मयूरा नाच उठा और होंठों से बरबस ये गीत निकल पड़ा
"आज उनसे पहली मुलाकात होगी
फिर आमने-सामने बात होगी
फिर होगा क्या क्या पता क्या खबर।

