अनुताप
अनुताप
धूप की सुगंध, शंख की नाद से सुबह कितनी पवित्र हो जाती है, मीनाक्षी अपने बरामदे से रोज़ ये दृश्य देखा करती थी, ये उसके लिए भी पूजा अर्चना जैसी हो गई थी।
मीनाक्षी एक बड़े कॉरपोरेट में काफी बड़े ओहदे पर कार्यरत थी, वो आज के ज़माने की लड़की थी, महत्वाकांक्षी और होशियार।
सामने वाले घर में एक बंगाली दम्पत्ति रहते थे।
दोनों लगभग साठ - पैसठ साल के आस पास होंगे। आलोक मुखर्जी प्रोफेसर थे और उनकी पत्नी एक एनजीओ चलाती थी।
मीनाक्षी को हमेशा उनसे पॉजिटिव वाइब्स मिलती थी। बुढ़ापा ऐसा ही सुकून और शांति से भरपूर होना चाहिए ऐसा सोचती हुई, आँफिस जाने की तैयारी में लग जाती।
मीनाक्षी और उनकी दोस्ती बरामदे में सुबह की चाय के साथ शुरू हुई थी, इशारों में एक दूसरे का हाल चाल लिया करते थे। एक आद बार बात भी हुई, अनकहा सा रिश्ता बनने लगा था उनके साथ।
मीनाक्षी की किसी से ज़्यादा दोस्ती नहीं थी, पर इस बुज़ुर्ग दंपत्ति से उसे अपनापन का एहसास होने लगा था। वो भी उसको बेटी की तरह मानने लगे थे। उसके के लिए पूरे दिन की व्यस्तता में ये सुबह का थोड़ा पल ही सुकून का होता था।
कई दिनों से सामने वाली बालकनी में कोई हलचल नहीं थी। एक अजब सा सन्नाटा था। दो चार दिन उसने इग्नोर किया, मगर उसका मन वहीं रह रहकर चला जाता। पूरे दो हफ्ते गुजर गये, मीनाक्षी की बेताबी बढ़ती ही जा रही थी। सुबह का सुकून इंतज़ार और कयास में निकल जाता और पूरा दिन ज़िन्दगी की रेस में अपनी जगह बनाए रखने में।
कई दिनों से वो आँफिस में परेशान थी, उसका प्रोजेक्ट उससे छीन गया था, बॉस उसका कारण उसका इंकामपेंटेंसी बताया, मगर उसे असली कारण पता था। ऐसी कॉरपोरेट राजनीति से वो बेखबर नहीं थी। पर जब खुद पर बीतती है तब एहसास होता है दूसरे के साथ की गई नाइंसाफीयां। मीनाक्षी ने जिस सपने के लिए अपना शहर, रिश्ते सब छोड़ा, वो सपना टूटता बिखरता नज़र आ रहा था। यहां तक पहुंचने के लिए क्या क्या मोल चुकाए थे, ये उसे बेहतर कौन जानता।
आज रात ज़्यादा अंधेरा सा था, उस घर में भी और उसके मन में भी। उनके घर के बाहर एक बल्ब उतनी ही रोशनी दे रही थी कि जिसे अंधेरे का अस्तित्व बना रहे, वैसी ही आजकल मीनाक्षी की ज़िन्दगी भी हो चली थी। वो अकेली थी, थोड़ा अकेलापन उसने चुना था और कुछ हालात ने।
अंधेरा अपने में कई राज़ छुपाए रखता है, अंधेरा आप पर कब हावी होना शुरू कर देता है, उसका एहसास अंधेरे में खुद को महसूस ना कर पाने से होता है। अंधेरे का शोर शांति को चीरती खुरदरे अक्स को सामने खड़ा कर देती है। आपका किया हुआ आपके सामने आ जाता है। मीनाक्षी की पूरी रात करवट बदलते निकल गई।
अगली सुबह मीनाक्षी उनके घर गई। वो घर जो एक मंदिर जैसा लगता था आज बीयानबां सा लग रहा था। नौकर ने दरवाज़ा खोला "बाबूजी और माताजी बैंगलोर गए है।"
कब आएँगे?"
नौकर ने कहा, " पता नहीं, दीदी के साथ कुछ बुरा हुआ है"
"बुरा? क्या हुआ"
"दीदी, आप अभी जाइए"
मीनाक्षी के मन में कई सवाल कौंध रहे थे। क्या बुरा हुआ होगा?
कई दिन बीत गए, एक सुबह उसको शंख बजने की आवाज़ आई, वो दौड़कर बालकनी में गई, देखा मुखर्जी अंकल अख़बार पढ़ रहे है और आंटी अपनी पूजा में व्यस्त है। ये देखकर उसको राहत मिली।
वो आँफिस के बाद उनसे मिलने गई, "नमस्ते अंकल, आप लोगो को बहुत मिस किया मैंने। बैंगलोर में सब ठीक है?" मुखर्जी साहब ने कहा, "आओ मीनाक्षी, तुम कैसी हो, इधर आंटी और मुझे बैंगलोर जाना पड़ा। तुम्हारा काम कैसा चल रहा है, आँफिस में सब ठीक ?"
"जी, बस क्या बताऊं..."
"पता है मीनाक्षी, हमें जीवन में भौतिक उपलब्धियों के परे एक जीवन ऐसा चुनना चाहिए, जहां आपको स्वयं से घृणा ना हो, आप अपनी नज़रों में तुच्छ ना दिखे। नाम और ओहदे के लिए किसी के जीवन से ना खेले। स्वार्थ से बड़ा अवसाद कुछ नहीं। देखना, आपका स्वाभिमान और आपकी ईमानदारी आपको कभी धिक्कारे नहीं। "
"कुछ समय पहले मेरी बेटी पर झूठा इल्ज़ाम लगा के उसको नौकरी से निकलवा दिया गया था, और वो अवसाद के गलियों में कहीं गुम हो गई। उसका पति यूं तो बहुत अच्छा है, मगर इस मुश्किल में वो उसका साथ ज़्यादा समय तक नहीं निभा पाया। वो विदेश चला गया।"
मीनाक्षी के सामने दो साल पहले की घटना मंडराने लगी। अपनी तरक्की के लिए उसने भी किसी का हक मारा था।
वो उसकी बहुत अच्छी सहेली थी, जिसने उसकी उस समय मदद करी जब वो अपने ऊपर से विश्वास खो बैठी थी, उसने उम्मीद की रोशनी दिखाई और हौसले की उड़ान दी थी, और वो, स्वार्थ में अंधी होकर उसी सहेली के पाव तले ज़मीन खींच ली थी। उस का ही प्रोजेक्ट चोरी कर के उस पर ही चोरी का इल्ज़ाम लगा के नौकरी से निकलवा दिया था। स्वार्थ की पराकाष्ठा है ये शायद, निर्मम व बेहद बेहूदा।
"मीनाक्षी तुम चाय पीयोगी?"
मीनाक्षी सन्नाटे में चली गई थी।
मुखर्जी साहब ने दो कप चाय के लिए आवाज़ दी।
"तुम मेरी बेटी से मिलना चाहोगी?"
मीनाक्षी को ऐसा लग रहा था जैसे मुखर्जी साहब उसको सज़ा सुना रहे है। उनके हाथ छड़ी है और वो उसको हाथ आगे करने को कह रहे है। इसी बीच चाय भी आ गई और वो भी।
"ये है अनंदिता मेरी बेटी, तुम तो जानती ही होगी ना!"
अनंदिता मीनाक्षी के गले लग गई और उसे निहारने लगी, उसके चेहरे पर उदासी की गहरी लकीरें थी, उसकी प्यारी सी मुस्कान उसी ने ही तो छीन ली थी।
मीनाक्षी को उस पल ऐसा लग रहा था जैसे धरती फट जाए और वो उसमे समा जाए, अपराध बोध से उसकी नज़रें झुक गई।मीनाक्षी के आँखो से निकल रहे एक एक बूंद उसको उसके किये पर धिक्कार रही थी।
मुखर्जी साहब ने कहा " मीनाक्षी, दोस्ती की नींव विश्वास पर होती है, ज़िन्दगी की कसौटी पर खरा उतरने के लिए संयम और ईमानदारी चाहिए। गलती बड़ी है, मगर मैंने तुम्हें माफ किया, तुम भी मेरी बेटी जैसी हो। अनंदिता को इसके बारे में नहीं पता और उसे कभी ये पता भी नहीं चलना चाहिए।"
मीनाक्षी, फुट फुट कर रोने लगी। पश्चाताप की आग में जल कर ही पाप से मुक्ति मिलती है। मुखर्जी साहब ने अपने पिता होने का फर्ज़ निभाया, अब मीनाक्षी की बारी थी- बेटी और दोस्ती का फर्ज़ निभाने की।