अन्तर्कथा
अन्तर्कथा
धीरे धीरे महीने, आधा साल अब पूरा वर्ष व कुछ उससे भी अधिक बीत रहा है, पर लगता है कि कल ही कि तो बात है, काल रात्रि कहर बन कर मुझ पर ही टूटी, पर ऐसा तो नहीं था, मृत्यु का कैसिनो व्हील घूम रहा था, कहीं भी धीमा होता हुआ रुक खड़ा होता और वो नम्बर, वो इन्सान चुपचाप उसकी आगोश में समा जाता।फिर वो चाहे हष्ट पुष्ट नौजवान हो, अधेड़ या जर्जर बुढाते इंसान।थोड़ी देर के लिये सोशल मीडिया सक्रिय होता, शोक संदेश, सांत्वना जैसी बेमानी बांते घूम फिर के शांत हो जाती।
कई बार किसीकी पत्नी शिकार बनती तो कभी पति, जवान बेटा या कोई मां बाप, कितने रिश्ते अपनी माला से टूटे मनको की भांति न जाने कहाँ चले जा रहे थे।
जब दूसरों के साथ ये बीतता था तो थोड़ी गमगिनीयत ओढ़ कर चुपचाप घर के दरवाज़े बंद कर, काढ़ा भाप और भी न जाने क्या क्या तरकीबें आज़मा रहे थे, जरा सा जुकाम हल्की खराश भी भयभीत करने के लिए काफी थी, मेरे घर मे सिर्फ मैं व पत्नी ही थे, घर के बाहर निकले न जाने कितने दिन बीत चुके थे।सब्जी भी छत से थैला लटका कर ले लेते थे, दूध राशन आदि ऑनलाइन मंगाते थे उसे भी सेनेटाइज कर प्रयोग में लाते थे, न कोई घर से बाहर निकलता था और न कोई आता ही था
उस दिन अचानक पत्नी अंजू ने कहा कि सुनिए पेट गड़बड़ लग रहा है कई बार टॉयलेट जा चुकी हूं बड़ी कमजोरी लग रही है, घर मे जो दवाई है वी भी खा चुकी हूं कुछ आराम नही पड़ रहा, चिन्तित होते हुए भी मैंने मन ही मन सोचा की खांसी जुकाम नही है तो खतरे की बात नही है।तभी पड़ोसी व पारिवारिक मित्र नागर जी का फोन आया कि भई क्या हो रहा है।वो दोनो पति पत्नी अकेले ही रहते थे, उनके बच्चे दूसरे महानगरों में व्यवस्थित थे।मैने उन्हें बताया कि आपकी भाभी का पेट गड़बड़ ही रहाहै उन्होंने तुरंत ors , मेडिसिन व थोड़ी पतली खिचड़ी पहुचाने का आफर दे दिया व कुछ ही समय बाद ही दरवाज़े की घण्टी बजी , नागर जी पूरा मास्क चढ़ाए हुए मुझे एक थैले में सभी कुछ पकड़ा कर दरवाज़े से ही पलट लिए, रिश्तों में अदृशय दीवारे खड़ी हो रही थी कोई भी किसी के पास दो मिनट भी रुकता नहीं था।जाते जाते बोलते गए कि कोई भी दिक्कत हो तो आधी रात को भी बुला लीजियेगा, मैं ने भी दिल से धन्यवाद दिया और अपनी अंजू की सेवा में तत्काल जुट गया।कोई भी दवा मामूली लूज़ मोशन को नियंत्रित नही कर पा रही थी, रात काटनी मुश्किल हो रही थी सुबह ओक्सिमिटर भी निचले स्तर पर पहुंचने लगा।नागर जी को काल किया साथ ही करीबी प्राईवेट हॉस्पिटलो को काल किया पर सभी ने नेगेटिव रिपोर्ट दिखाने पर ही एडमिट करने का आश्वासन दिया, इतनी जल्दी नेगेटिव रिपोर्ट कहाँ से लाता, अतः एम्बुलेंस बुला कर मेडिकल कालेज़ ले गया, जो सरकारी व विश्वस्नीय अस्पताल हमारे शहर का है। वहाँ भी पहचान निकालनी पड़ी और किसी प्रकार अंजू को भर्ती कर चैन की सांस ली कि अब शायद दो चार घण्टे में वो रिकवर कर जाएगी।मैं बाहर ही बैठा रहा।एतियातन एम्बुलेंस में या अलग से भी कोई मित्र, पड़ोसी या रिश्तेदार नही आये, सुबह से न चाय न पानी।रात को कोर्ट केस में पंजाब भी निकलना था, पूरी तैयारी भी कर न सका था।बुद्धि कुंद हो रही थी।मरीज़ों की भीड़ उनके इक्का दुक्के सगे सम्बंधी को देखकर अपना दुख थोड़ा कमतर लगा पर ये क्या एक स्ट्रेचर पर एक सफेद चादर ढका एक इंसानी शरीर मेरे समक्ष रूका, सफेद चादर के नीचे से अंजू का दुपट्टा लटक रहा था, मैं अविश्वास, अचंभित, किकीर्तव्यविमूढ़ का समूचा रूप बन कर पूछा अरे भाई क्या हुआ, जानते समझते भी पूछ बैठा कि कौन है—--वार्ड बॉय की आवाज़ अभी भी कानो में गूंजती है" आपकी पत्नी है" चल बसी, कोई भी दवा काम न कर सकी।
आप एम्बुलेंस में ही ले जाएं कोविड कहने पर कोई हाथ भी न लगायेगा।मैं अवाक, कुछ अस्फुट स्वर, कब एम्बुलेंस आई, किसको फोन किया कैसे घर पहुंचा पता नहीं।घर के आसपास के सभी दरवाज़े बंद , खिड़कियों से झांकती बच्चों की आँखे, सन्नाटा सिर्फ सन्नाटा चहुँ ओर- दिल दिमाग मे भी और वास्तविक अपने पड़ोसियों, मित्रो की दुनिया मे भी।कोई भी बाहर नहीं निकला, वार्ड बॉय ने ही सहारा दिया मेरी शांत निश्चल अंजू को घर के बरामदे में लिटा दिया, अरे थोड़ी देर पहले ही तो बड़ी आशा विश्वास से अपनी अंजू को अस्पताल लेकर निकला था कि बस दोपहर तक बिल्कुल अच्छी हालत में लेकर आऊंगा पर —--उसकी अधमुंदी आंखे, कमज़ोर चेहरा निश्चल बिना अंजु के अंजू का शरीर मेरे समक्ष बेजान पड़ा था।
तीन मन्ज़िल का शानदार घर जिसने इतने जतन से दिल से बनवाया था वो ही उसी घर के बरामदे में हमेशा हमेशा की नींद में सो गई थी।
ये बड़ा घर, तीन गाड़िया बैंक में लाखों रुपए, घर मे आभूषणों व नकदी कुछ भी काम न आ सके, मैं बेबस बेहाल वही बैठ गया।न मित्र न पड़ोसी न रिश्तेदार इतनी सुनी बिदाई मेरी अंजू की।
मुझसे हमेशा के लिए बिदा ले चुकी मेरी अंजू जो पड़ोस में भी जाती तो कह जाती बस अभी आई, पर वो ये भी न कह पाई, अस्पताल के बिस्तर पर, जाते समय मुझे ढूंढा तो होगा।
मेरी अंजू की देह अब बॉडी बन चुकी थी, कुछ ही घण्टे में दारुण परिवर्तन।आवाज़ नही निकल रही थी, इतना निराश, अकेला सही मायने में पीड़ित मैं कभी भी नही था, जब छोटा था तब शायद माँ के जाने पर भी।फिर भी वही ज़मीन पर बैठे बैठे ढह गया और बनारस वाले भाईसाहब को फोन लगाया थोड़ी देर में ही भैय्या व भतीजा आ गए और हम ले चले अपनी अंजू को उस शहर के उस घाट पर जहाँ से गया इंसान सीधे स्वर्ग ही और मोक्ष को प्राप्त होता है।ये विश्वास सच ही निकला, मेरी अंजू कभी मेरे स्वप्न में भी फिर नहीं आ सकी, पर मैं लौट आया अपनी कोठीनुमा घर मे–हर जगह मेरी अंजू की निशानियां, उसके पंसदीदा पर्दे, क्रॉकरी, फर्नीचर सारा सब कुछ ।उसके रात के बदले कपड़े, दवा गिलास, नागर जी के भेजी खिचड़ी तौलिया चादर , सिर घूम रहा था।घर की हर चीज़ में उसकी खुशबू, उसकी मुस्कराती सजीव आँखों से देखती उसकी तसवीर–कह रही थीं कि अब मेरे बगैर रहना सीखना होगा।
कब पलँग पर गिर पड़ा कब आंख लगी पता नही
नोकरानी ने घण्टी बजाई नींद में ही अंजू को आवाज़ दी अरे सुनती हो ज़रा दरवाज़े पर कोई है, फिर —-------.चुपचाप जा कर दरवाज़ा खोल दिया नौकरानी भी सुबकती हुई घर को थोड़ा हाथ लगा कर मेरे लिये कुछ पका कर चली गई।
शायद अपनी अंजू की ही बात मान कर जी रहा हूँ, कोई भी इस बारे मे बात नही करता, पर इशारों में कहते है अपना ख्याल रखिये पर जिऊँ तो किसके लिए, बाल रंगू तो किसके लिए, क्यों ढंग के कपड़े पहनें क्यो ही कुछ खाऊँ पर कर रहा हूँ कुछ कुछ , सभी कुछ। घर के बाहर निकलना तो होता ही है, अपने को कब तक कमज़ोर दिखाऊँ ऐसे ही करता रहूंगा।सोचता हूँ अक्सर जब जीवन में स्पष्ट दिख रहा है कि अब कुछ शेष नही, सभी कुछ निरुद्देश्य तो क्यों जिऊँ, सरकार ऐसा कोई कानून क्यो पास नही कर सकती कि इंसान अपनी इच्छा से मृत्यु मांगे और उसे मिल भी सके।उसके चलते अंगों को जरूरत मन्दो को जो जीना चाह रहे है उन्हें दे दे, बाकी झूठी मूठी जी रही आत्मा को इस बेहाल, उदास गमगीन शरीर से आज़ादी मिले , मिल सके फिर इक मौका अपनी बिना किसी शर्त, उम्मीद के प्यार दुलार देनी वाली प्रियतमा के पास लौट जाने का , उस दुनिया मे जहां जाने का कोई टिकिट, पासपोर्ट व खर्चा नही लगता, बस मिल सकती है तो इस बेमुरव्वत दुनिया से छुट्टी ।
फिर ध्यान आये वो अंतरंग पल जब हम दोनों अकेले यूँ ही अर्ध रात्रि को जग जाते थे बहुत देर तक नींद नही आती थी तो कभी इन बातों का भी ज़िक्र आ ही जाता कि
देखो अब हमारी उम्र बढ़ रही है अगर मैं कभी तुमसे पहले चल बसी तो!!
मैं कह उठता कि मैं भी क्यों रुकूँगा बस तुम्हारे पीछे पीछे चला आऊंगा, वो मेरे मुँह पर हाथ रख देती कि नहीँ, जिन बच्चो को हम दुनिया मे लाये है कम से कम हम दोनों में से कोई एक तो उनके लिए होना ही चाहिए माना कि तुम नाना बन गए हो, बेटे की भी दाढ़ी मूंछ आ गई है वो भी तुम्हे जल्दी ही दादा बना ही देगा, तब !
बच्चे हमारे है बड़े हो गए तो क्या अंदर से तो हैं तो वही नन्हे मुन्ने, तुम्हारी गुड़िया तुम्हारा बाबू।
नहीं तुम्ही उनकी मां भी होंगे और पापा भी।
हम यूँ ही बांते करके सो जाते पर अब कभी का बोला ऐसे सच होगा सोचा न था।
बच्चे अभी भी कैसी भी परेशानी हो तो उनके लिए हर परेशानी से बचने कीअभेद्य दीवार पापा ही तो हैं
उनकी आवाज़ की टोन बता देती है कि क्या हुआ और ऐसे में मैं में क्या सोचने लगा , नही ये मेरी अंजू की जीती जागती यादें है , मुझे दी गई उसकी अमूल्य से भी अमूल्य गिफ्ट उनके लिए मुझे जीना होगा , कौन बच्चा अपने पापा को सुस्त उदास देखना चाहेगा, न अब बस! मुझे वही डैशिंग पापा बन कर रहना होगा , अपनी अंजू की खुशी की खातिर, जहां भी वो होगी मुझे देख रही होगी ।मुझसे अपने परिवार की उदासी नही देखी जाएगी ।चलूं देखूं बड़े हुए बच्चे आज क्या नाश्ता करेंगे। अंजू की फोटो को एक अर्थ भरी गहरी मुस्कान से देखा, हमेशा की तरह अंजू समझ गई और मुस्करा दी , वो मुस्कान जो सिर्फ मुझे ही दिखाई दी।
