अंतिम दर्शन
अंतिम दर्शन
घर में अच्छी खासी चहल-पहल थी। छह बहनें और चार भाइयों का भरा पूरा परिवार और उनकी संतानों की चीख पुकार से पूरा घर त्राहि-त्राहि कर रहा था। सबका आना भी ज़रूरी था, आख़िर सबकी माताजी की और घर की सबसे बुज़ुर्गा के अंतिम दर्शनों की बात थी। वे बिस्तर पर थीं और जीवनभर उन्होंने सारे परिवार के लिए वह सब किया जो एक समर्पित माँ को करना चाहिए। बात सही भी है, आख़िर 10 बच्चों को पालना, उनकी पढ़ाई, सबकी शादी और फिर उनकी अलग-अलग सोच वाले पति-पत्नियों को बांधे रखना इतना आसान काम नहीं होता। इसके लिए धरती से कुछ ज़्यादा ही धैर्य की ज़रूरत होती है, जो उनमें सच में था। माताजी की पति की मौत दो साल पहले ही हुई थी, 90 साल की उम्र में माताजी का परिवार के लिए जज़्बा सचमें काबिलेतारीफ़ था। स्वाभाविक था कि ऐसी माँ के अंतिम दर्शन का मौका कोई चूकना नहीं चाहता था। सब दूर-दूर से अपने अपने परिवार के साथ यहां मौजूद थे।
स्वाभाविक था कि अपने स्वभाव के अनुसार माँ को अपनी क़रीब आती मौत से ज़्यादा हमेशा की तरह परिवार की चिंता ज़्यादा थी। बिस्तर पर लेटे-लेटे भी बड़ी बहू ने नाश्ता किया या नहीं, छोटी को खाना दे दो, मंझला कहाँ गया, ... की उनकी बेचैनी छलक-छलक ही जाती थी। हालांकि परिवार को उनकी यह बेचैनी बेकार ही लगती थी और वो दूर से चिल्लाकर कह देते थे -' अम्मा तुम परेशान मत हो, हम सब कर लेंगे, तुम आराम करो।' हालांकि इसमें उनका प्यार कम झल्लाहट ज़्यादा झलकती थी। जिन बहुओं को सास कभी नहीं सुहाई वे अंतिम समय में सास की इतनी सेवा में लगीं थीं कि मानों सारे पुराने पापों को काटकर पूरा पुण्य कमा लेना चाहती हों। माताजी की बेटियाँ जानती थीं कि माँ के पास पुराने गहनों का डिब्बा है, जो उनकी अलमारी में है, सबकी नज़र अलमारी पर भी थी। अलमारी की आवाज़ आते ही सब इस कमरे में किसी न किसी बहाने आ ही जाते थे। सच है जो करे सेवा उसे मिले मेवा।
इतने गंभीर और दुखद घड़ी में भी पूरा परिवार हंसी-ठिठौली करने से बाज नहीं आता था। हर शाम-दोपहर पारिवारिक पंचायत बैठती और पुरानी घटनाओं को फ़िर-फ़िर याद किया जाता। कोई अजनबी अगर आ जाए तो उसे लगता कि वह शादी वाले परिवार में आ गया हो। हालांकि परिवार का ये प्यार ऊपरी-ऊपरी हो होता था, मन ही मन हर कोई अपने-अपने परिवार की चिंता में कुछ इस क़दर मशगूल हो जाता था कि कई बार नाश्ता कौन बनाये और खाना देर से बना, पर तू-तू-मैं-मैं तक की नौबत भी आ जाती थी। जो भी हो...सब जानते थे कि दो चार दिन की बात है, इसलिए सब कुछ 'एडजस्ट' कर लिया जाता था।
पर दिन गिनते-गिनते एक सफ्ताह हो चुका था। घर के पुरुष सदस्य रोज़ देर से नहाते, क्या पता दुबारा न नहाना पड़ जाए। घर में नाश्ता जल्दी कर लिया जाता, क्या पता ख़ाना फिर कब मिले। सबने अपनी-अपनी पेटी में उस दिन के पहनने के लिए लाए पुराने कपड़े को, जो सबसे ऊपर रख रखे थे नीचे कर लिया था। घर की बहुओं ने सारी शॉपिंग पहले ही निपटा ली थी। …. पर माताजी के कमरे में लगा पुराना पंखा धीमे ही सही पर अपनी रफ़्तार से अभी भी चल रहा था। बात भी सही है, सबके अपने-अपने काम हैं, कोई कब तक इंतज़ार करे।
आख़िर सबके सब्र का बाँध भर गया और सबको अपने-अपने ज़रूरी काम याद आने लगे। पारिवारिक मंत्रणा में तय हुआ कि सब चले जाएं और कोई बात हो तो तुरंत सूचित किया जाए। धीरे-धीरे घर में फ़िर सन्नाटा पसर गया। घर की छोटी बहू और बेटे जिनके जिम्मे माँ थी फ़िर अपने-अपने काम में लग गए। उनके लिए तो यह सेवा नहीं जिम्मेदारी थी, इसलिए वो इसी भाव से काम करते थे। माताजी की जो टूटती साँसे पूरे परिवार के जुटने से वापस जुड़ गईं थीं फिर टूटने लगीं। कोई इस बात को समझ ही नहीं पा रहा था कि परिवार के आने से माताजी को नया जीवन मिल गया था। दो माह बीतते-बीतते माताजी की साँसें फिर उखड़ने लगीं। सब लोग पुराने कपड़ों की एक जोड़ी के साथ फिर जुट गए।...लेकिन परिवार की हंसी-ठिठौली ने उन्हें फिर जीवनदान दे दिया। माताजी के कमरे का पुराना पंखा भले हवा न देता हो पर पर चर्र चूँ ज़रूर करता है। हफ़्ता बीतते- बीतते सब फिर अपनी-अपनी पुराने कपड़ों को जोड़ी को अंदर रख, नए कपड़े पहन वापसी करने लगे। इस बार छोटे बेटे को साफ़ ताक़ीद की गई कि अब ज़्यादा तबियत बिगड़े तभी बुलाना।
तीन महीने बाद फ़िर सबको तुरन्त सूचना दी गई कि अब माताजी की दैनिक क्रिया भी बिस्तर पर ही हो रही, डॉक्टर ने भी जवाब दे दिया, कहा है सबको ख़बर कर दो। अपने पुराने कपड़ों की जोड़ी और पूरे भरोसे के साथ सब फ़िर जुट गए। माताजी की हालत सच में बहुत ख़राब थी।...पर अब बहुएं माताजी के पास कम ही आती थीं कि कोई ऐसा काम न करना पड़ जाए, जिससे उन्हें उल्टी आ जाये। माताजी की बेटियां गहने तो चाहती थीं पर माताजी की दैनिक क्रिया के नाम से सबके अपने कोई न कोई बहाने थे। छोटी बहू ने भी अपने को घर के काम में व्यस्त कर लिया था। छोटा बेटा ही अपनी माँ के वह सब काम करता था जो शायद माताजी उससे कभी न कराना चाहती हों, पर क्या करें..अब बोल भी नहीं सकतीं, क्योंकि उनका बोलना बंद हो चुका था। आँखों की दोनों पोरों से ढलके अश्रु बिंदु ज़रूर बहुत कुछ कह जाते, लेकिन इन्हें देखे कौन और समझे कौन। शायद इन्हीं दिनों के लिए बेटी के जन्म को सार्थक माना गया हो, शायद इन्हीं दिनों के लिए विवाह जैसी परंपराओं का जन्म हुआ हो, ...पर अब तो सब कुछ इतनी तेज़ी से बदल गया मानों अब किसी पे ये दिन आना ही न हो।
बहरहाल, माताजी फ़िर जी गईं। शायद अभी और भी कुछ देखना बाकी हो। उनकी आँखों से बहते हर आँसूँ की अपनी कहानी है। शायद, वो विचारती हों कि इस जनम में तो सब कुछ अच्छा ही किया है, शायद पिछले जनम का कोई क़र्ज़ बाकी रह गया हो। कितनी अजीब बात है न कि अब भी माताजी दोष अपने बच्चों की बजाय अपने आप में ढूंढ रहीं थीं, आख़िर माँ, माँ ही होती है। इस बार सबके सब्र का बाँध टूट गया। सब दो दिन से अधिक इंतज़ार नहीं कर सके और विदा हो गए। कई तो इस बार माताजी के पास तक जाने की जहमत नहीं उठा पाए। कमरे के पुराने पंखे की ओर ताकती माँ की आंखें न जाने कितने किस्सों को याद करती होंगीं। दोनों ही सुख-दुख की साथी थीं। पंखा भी जानता था कि अगर वो बंद हुआ तो बदल दिया जाएगा, उसने माताजी की नियती देखी थी।
...उस दिन सुबह सब उठे,... देखा तो कमरे का पंखा बंद था। बेटे ने देखा, माताजी की आंखें पंखे पर स्थिर थीं। न पंखा चल रहा था न साँसें। तुरंत डॉक्टर को बुलाया गया। सबको ख़बर की गई, लेकिन कोई नहीं आया, सबकी अपनी-अपनी मजबूरियों की कहानी थी। दस बच्चों की माँ की अर्थी चार पड़ोसियों के कांधे पर शमशान गईं। तेरहवीं पर फ़िर सब जुटे...शाम को फिर हंसी ठिठौली हुई..., । कमरे का पुराना पंखा कबाड़ वाले को बेचा जा चुका था। कमरे में माताजी की तस्वीर पर प्लास्टिक के फूलों की बड़ी सी माला लटक चुकी थी। कमरे में नए मॉडल का तेज़ चलने वाला पंखा लटक चुका था।
