GPS Kharti

Inspirational

4.5  

GPS Kharti

Inspirational

"अलविदा "

"अलविदा "

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रात भर विश्राम के पश्चात सूर्य अपने सफर की तैयारी में लगा हुआ था। उसको राह दिखाने के लिए पूर्व दिशा में कुछ तारे अभी भी इसी आकांक्षा से चमक रहे थे कि उनकी स्वप्निल उनींदी आंखों को अपने प्रकाश से ऊष्मित एवं ऊर्जस्वित कर सूर्य समस्त पृथ्वी वासियों को भी नई स्फूर्ति प्रदान करे। पेड़ों के झुरमुट पर पक्षियों का चहचहाना सूर्य आगमन के लिए मंगलगान प्रतीत हो रहा था। नदियों का कल कल करके बहता हुआ पानी रास्ते के राहियों की प्यास बुझाने के लिए मानों अपनी सेवाएं अर्पित करना चाहता हो। झरनों से गिरता स्वच्छ सलिल सूर्य वंदना करता करता कह रहा है - हे प्रकाश पुंज! अब इतनी देरी न करिए। चन्द्रधार पहाड़ी पर खड़े घने देवदार, चीड़ आदि वृक्षों की शाखाओं से मचलती खेलती हुई मंद, मस्त, शीतल समीर सभी को नींद से जगाती हुई प्रतीत होती है। प्रकृति के सभी उपादान सूर्य के स्वागत के लिए बहुत ही व्यग्र थे।


     सूर्य की प्रथम किरण पहाड़ की चोटी पर ऐसी पड़ी मानो उसकी छाती को स्वर्णिम हार पहना रही हो। सामने धौलाधार पर हुए हिमपात के कारण सूर्य की किरणें प्रतिबिंबित होकर आंखों को एक अलग ही तरह का सुकून दे रही थीं। सूर्य के निकलते ही पेड़ों के झुरमुट में छुपे परिन्दे दूर आसमान की ओर उड़ानें भरने लगे मानो वे सूर्य से सवाल पूछना चाहते हों या उसे अपने रात्रि स्वप्नों में साझीदार बनाना चाहते हों। नदियों, झरनों का पानी भी सूर्य को अपने आगोश में समेटे हुए यहां से वहां हिला डुला रहा था या यूं कहिए मांँ अपनी गोदी में बच्चे को दुलार रही हो।


"अखबार, आज का अखबार.." बाहर हॉकर की आवाज ने राज की निंद्रा को भंग कर दिया। राज अभी कुछ दिन पहले ही अपने घर छुट्टियां बिताने आया था। जल्दी से रजाई को पलटते हुए उठा और बरामदे में पड़ी अखबार को देखने लगा। ज्यों ही उसकी नज़र अखबार के मुख्य पृष्ठ पर पड़ी तो उसका दिल सन्न रह गया और वहीं आराम कुर्सी पर बैठ गया।


 "माँ! एक कप चाय देना।" उसकी आवाज़ में एक छुपा हुआ दर्द था। अंदर चाय की केतली का ढक्कन आंतरिक उबाल के कारण ठक ठक कर रहा था और इधर राज का दिल।


 "हैलो राज! गुड मॉर्निंग! उठ गए बेटा।" 

प्रातः कालीन भ्रमण कर लौटते ही सूबेदार ने अपने बेटे से पूछा और वहीं बैठ कर अखबार पढ़ने लगे।


 "गुड मॉर्निंग पापा! हांजी पापा उठ गया। आज रात बहुत ही बढ़िया नींद पड़ी थी। शायद ही ऐसी नींद फिर मयस्सर हो। इतने में माँ अंदर से ट्रे में चाय लेकर आ गई और वहीं बैठकर सूबेदार से कहती है - "इस वर्ष राज की शादी पक्की कर देते हैं। दीनानाथ जी भी पूछ रहे थे। राज और रजनी भी एक दूसरे को पसंद करते हैं।" चाय की प्यालियाँ मेज में रखते हुए माँ ने कहा। "रिश्ता तय किए हुए काफी दिन हो गए हैं।" "और नहीं तो क्या?" अंदर से आती हुई मीनू ने अपनी बात रखते हुए कहा। "मुझे भी भाभी का चाव है और भैया भी छुट्टी आए हुए हैं। लड़की भी देख लेंगे और भैया की पसंद नापसंद भी पता चल जाएगी। क्यों भैया?" चहकते, ठुमकते राज के गले में बांहें डाले मीनू ने कहा।


"आं... हां .....! क्या कहा तुमने।" विचार तंद्रा में व्यवधान पढ़ते ही राज ने पूछा।


"अरे भाई तुम्हारी शादी की बात हो रही है और तुम न जाने किस जहां में खोए हो।" मीनू ने दूर हटते हुए कहा और बाहर चली गई। "अच्छा! अभी थोड़ी देर में उत्तर देता हूं।" राज ने चाय की प्याली खत्म करते हुए कहा। माँ ने भी चाय के बर्तन समेटे और किचन की तरफ चली गई।


 "तुमने आज का अखबार पढ़ा पापा?"

"हां, बेटा। लगता है वही पुरानी स्थिति आ गई है जो 1965 एवं 1971 में थी।"


 "हां पापा! दोनों देशों की सेनाएं सीमा पर आमने-सामने खड़ी हैं। घुसपैठिए भी घुसकर गड़बड़ी कर रहे हैं। इंतजार सिर्फ आदेश का है और शायद मेरी छुट्टी भी रद्द हो जाए। मुझे भी मोर्चे पर जाना होगा।" मानों दुश्मन उसकी आंखों के सामने ही हो। राज ने दृढ़तापूर्वक कहा --- और वहां से उठकर गांव में टहलने और अपने दिल का बोझ हल्का करने के लिए गांव के प्राचीन मंदिर को चला गया। 


मंदिर के प्रांगण में बने चबूतरे पर बैठा राज उधेड़बुन में लगा था कि उसे अपने सुहाने बचपन के दिन याद आने लगे। बात उन दिनों की है जब राज दसवीं कक्षा का होनहार छात्र था। किताबों में उसकी बड़ी रुचि थी। देशभक्ति से परिपूर्ण किताबें उसके जीवन का अभिन्न हिस्सा थीं। इन्हीं किताबों में देश प्रेम से भरे वाक्यों ने ही राज के मन में देश के लिए कुछ कर गुजरने का ज़ज्बा भर दिया। राज के पिताजी चाहते थे कि उनका बेटा पढ़ लिखकर सिविल सेवा में जाए, लेकिन भाग्य की विडंबना कुछ और ही थी। प्लस टू की परीक्षा के पश्चात जब राज इस मंदिर के प्रांगण में आया था तो यहां सेना का कैंप लगा हुआ था। वर्दी में सजे अनुशासित सिपाही उसके मन में अमिट छाप छोड़ गए और उसने इसी मंदिर में भगवान के सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं भी फौज को ही अपना कर्मक्षेत्र बनाऊंगा। इस प्रतिज्ञा को अंजाम तक पहुंचाया उसके अभिन्न मित्र अभिनव के दिशा निर्देशों ने। अभिनव उससे 3 वर्ष बड़ा था तथा सेना में ही कार्यरत था। प्लस टू की परीक्षा का परिणाम आ गया था और पिताजी ने उसे आगे की पढ़ाई के लिए गांव से बाहर शहर भेज दिया। स्नातक डिग्री के बाद मास्टरर्ज़ डिग्री करते हुए एक दिन उसने फौज में अफसर रैंक वाली भर्ती की विज्ञप्ति पढ़ी और राज ने फार्म भर दिया। किस्मत ने साथ दिया और वह सेना में ऑफिसर भर्ती हो गया। उसने पिता से सेना में जाने के लिए इजाजत मांगी और पिताजी ने भी उसे प्यार से स्वीकार कर लिया। ट्रेनिंग के दौरान अपनी बड़ी लगन और कड़ी मेहनत से वह बहुत ही सुलझा एवं साहसी ऑफिसर बन गया। यूनिट में अपने मृदु व्यवहार से उसने सभी का दिल जीत लिया और वह सर्वप्रिय हो गया। मंदिर में लगी घंटी की आवाज़ ने उसकी तंद्रा को भंग किया। सामने देखा तो रजनी आरती का थाल सजाए मंदिर में पूजा अर्चना के लिए आई थी। पूजा के पश्चात जब वह घर जाने के लिए मुड़ी तो---

   "अरे राज! तुम यहां कब से बैठे हो और कितनी छुट्टियां शेष रही हैं?" प्रसाद देकर वहीं राज के सलोने मुखड़े को निहारने लगी। प्रसाद आंखों से छुवाकर फिर मुंह में एक-एक दाना डालते हुए राज कहने लगा -- "सुबह टहलता हुआ यहां आया था और अपनी मधुर स्मृतियों में खो गया था और रही छुट्टी की बात तो पता नहीं कब बुलावा आ जाए?"


 "क्यों राज! अभी तो तुम्हें आए हुए दस दिन ही हुए हैं।" "हां...आं.......! लेकिन हालात बहुत बदल गए हैं। सीमाओं पर तनाव बढ़ चुका है। छुट्टियां रद्द की जा रही हैं।" "ओह नो! राज यह क्या हो रहा है? तुम्हें पता है, मैंने कितने सुनहरे सपने सजाए हैं?"


 "स्वप्न तो मैंने भी बहुत से पाले हैं। मेरी भी बहुत सी उम्मीदें हैं। किंतु यथार्थ ---- यथार्थ में स्वप्न झुलस जाते हैं रजनी, माय डियर।" आंसुओं के सैलाब को राज ने आंखों में ही सुखा दिया। मन था कि फूट-फूट कर रोए, ताकि मन का बोझ हल्का हो जाए। किंतु बहादुरों की आंखें आंसुओं के लिए नहीं होती और वहीं मंदिर की मूर्ति को एकटक निहारने लगा।


 "घर नहीं चलना है राज?" "हूं---- नहीं, अभी नहीं। आज जी भर कर इस पवित्र स्थल को देख लेने दो।" उत्तर सुनते रजनी अपनी रुलाई पर काबू पाते हुए वहां से घर की तरफ निकल गई। जो राज उसके दिल के खाली सिंहासन में राज करने वाला था, वह आज कितना तन्हा, कितना अकेला था। उसके मन के अंतर्द्वंद्व को कोई नहीं जान पा रहा था। अचानक राज ने देखा कि दो चिड़ियां पांच छः कौओं की तरफ आक्रोश से चीं चीं कर रही थीं। गौर से देखा तो ज्ञात हुआ कि कौए चिड़िया के घोंसले को उजाड़ना चाहते हैं, उनके बच्चों को खाने के लिए झपट रहे हैं। और चिड़ियां विरोध कर रही हैं और अपनी जान की बाजी लगाकर अपने बच्चों सहित रैन बसेरे को बचाने की कोशिश कर रही हैं। 


"राज ने एक ढेला कौओं की तरफ मारा तो वे दूर हट गए। वाह रे विधाता!" राज बुदबुदाया और उठ कर वहां से चला आया। गांव की पगडंडियों से गुजर रहा था तो वहां खेलते हुए बच्चे ताली बजा बजा कर कहने लगे -- 

"फौजी चाचा फौजी चाचा 

देश बचाते फौजी चाचा 

दुश्मन भगाते फौजी चाचा 

देश की आन फौजी चाचा 

देश की शान फौजी चाचा।"


मन हुआ कि उन बच्चों को गले से लगा लूं। थोड़ी देर के लिए इनके साथ मैं भी बच्चा बन जाऊं। लगा कि कोई पीछे से खींच रहा है। पीछे मुड़कर देखा तो---

"ये लो फौजी ताता" ---- एक बहुत ही छोटा सा बच्चा अपनी तो तुतलाती बोली में कहता हुआ अपने हाथ में छोटा सा तिरंगा लिए राज को सप्रेम भेंट दे रहा था। उसकी आंखों में आंसू थे। राज झुका और बड़े ही अदब से तिरंगा लिया और बच्चे को अपने सीने से लगाते हुए कहा - "थैंक्यू बेटा!" राज ने सोचा कि जिस देश के बच्चों में मातृभूमि के लिए इतनी श्रद्धा है, उस देश का कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। घर पहुंचा तो सभी बड़ी बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।


 "आज बड़ी देर लगा दी बेटा! क्या बात है?" आते ही माँ ने पूछा।


 "कुछ नहीं माँ, बस ऐसे ही....... हां! मंदिर में बैठ गया था।" हाथ मुंह धोते हुए राज ने कहा। "जल्दी से खाना डालो माँ, बड़ी जोर से भूख लगी है। खाना खाकर कुछ देर विश्राम करने के पश्चात राज उठा और अपना सामान पैक करने लग पड़ा। तभी पिताजी आते हैं ---"यह क्या बेटा, सामान क्यों पैक कर रहे हो?"


  "पापा जी! सैनिकों की छुट्टियां रद्द हो रही हैं और मैं नहीं चाहता कि मुझे भी इस तरह का आश्रय लेना पड़े। मैं सुबह ही अपनी यूनिट में वापस लौट जाऊंगा।" वार्तालाप सुन कर मीनू और माँ भी वहां आ पहुंचे। "माँ तुमने कहा था कि इस बार शादी पक्की कर लेते हैं, पर माँ मैंने शादी कर ली है। तुम्हें पता है मेरी दुल्हन कौन है? माँ प्रश्नसूचक निगाहों से निहितार्थ खोजने लगी। तब राज माँ के चेहरे की भाव भंगिमा को पढ़ते हुए कहने लगा--"अरे वही मेरी बंदूक...... जो हर पल मेरे साथ रहती है और जब कहीं खतरा महसूस होता है तो मुंह से आग उगल कर दुश्मन का सीना छलनी कर देती है।" माँ ने बड़े ही चिंतित एवं कातर स्वर में कहा- "पर बेटा मैं तेरी माँ हूं। ममता का आँचल क्यों सुना किए जा रहे हो।" राज अपनी माँ के आंसू पोंछते हुए उसे ढांढस बंधाते हुए कहता है - "मुझ पर तेरा अधिकार है, माँ। लेकिन उस माँ का क्या होगा, जो बोलती कुछ नहीं, बस सब कुछ सहन करती है। आज उस माँ को मेरी जरूरत है। अपनी बाहें फैलाए मुझे बुला रही है। वह घिर चुकी है दुश्मनों से। उसके सीने को छलनी किया जा रहा है और माँ......! ..माँ तुम चाहती हो कि उसके बेटे दूध का कर्ज चुकाने के लिए अपनी माँ के आँचल में छिपे रहें। नहीं, माँ नहीं। भावनाओं के आवेग में मैं अपनी मातृभूमि को विस्मृत कर दूं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता।" राज की आंखों से जैसे अंगार बरसने लग पड़े हों।

"पर भैया! क्या केवल तुम ही उस माँ के बेटे हो?" 

"कैसी बातें कर रही हो मीनू, सोचो अगर सभी लोगों की सोच तुम्हारे जैसी हो जाए तो कौन जाएगा सीमाओं पर। मेरी बहन इतनी स्वार्थी तो न बनो।"


 "हां बेटी, फौजी का सबसे पहला कर्तव्य अपनी मातृभूमि की रक्षा करना होता है। उसका सच्चा और पक्का रिश्ता अपने देश से ही होता है और बाकी रिश्ते गौण हो जाते हैं।" यह कहकर पिता निराश एवं बुझते मनों में स्फूर्ति डालकर अंदर चले गए। माँ और मीनू भी बोझिल कदमों से आँचल मुंह में दबाए वहां से निकल गईं। राज अपने सामान को निहारते हुए सोचने लगा - "माँ हम एक कोने में भावुकता भी रखते हैं लेकिन इस भावुकता को जग जाहिर नहीं होने देते। हमें भी पता होता है कि फुलवारी के पौधों को माली एक जैसा प्यार-दुलार देता है ताकि समय आने पर परिपक्व होकर माली के सुख-दुखों को साझा कर सकें। माँ एक वीर सैनिक की माँ बनना बड़े ही सौभाग्य की बात है। वह पूरे गांव, पूरे राष्ट्र की माँ बन जाती है, जग जननी हो जाती है। उसके बेटे तो बहुत बन जाते हैं और माँ की ममता हमेशा निर्झरिणी बनी रहती है।" राज अपने ख्यालों में खोया था कि उसे अचानक याद आया कि वह सामान पैक कर रहा है। एक बार उसने सारे सामान पर नजर डाली और आश्वस्त हो गया कि उसका सारा सामान सामने है। एक-एक करके उसने सारा सामान बक्से में डाला, साथ ही बिस्तर भी बांध लिया। मन में यही उत्कंठा थी कि कब अपनी पलटन में पहुंचे और देश सेवा के लिए अपना योगदान दे सके।


 सुबह उठा तो माता-पिता और मीनू उसकी विदाई के लिए तैयार थे। वे नहीं चाहते थे कि इस गहराते समय में उनके मन के सुप्त कोने से कोई चीत्कार हावी हो जाए। तैयार होकर चला तो पिताजी ने उसका बक्सा उठा लिया और उसे छोड़ने के लिए स्टेशन की तरफ चल पड़े। बहन मीनू से विदा लेने चला तो-- "मीनू ओ...मीनू! सुन जरा.... मैं जा रहा हूं मेरी प्यारी बहना।" ऐसा कहते हुए वह दरवाजे की तरफ लपका तो....रेशम की डोरी हाथ में, थाली में कुमकुम लेकर मीनू दरवाजे से बाहर आई। माथे पर तिलक लगाने के पश्चात...... "अपना हाथ दो भैया! यह राखी बांध रही हूं, जो हर वक्त तुम्हारी हिफाजत करेगी और हां यह कभी मत भूलना कि इसमें केवल मेरा ही प्यार है, बल्कि उन तमाम बहनों का प्यार है जिनके वीर भाई सीमा पर तैनात हैं और चौकसी रखे हुए हैं।" ऐसा कहकर मीनू राज की कलाई में राखी बांधने लगी। 


 "हां मीनू! वे लोग बहुत ही खुशनसीब होते हैं, जिन्हें सारा देश याद रखता है और यही भावना हमें दृढ़ बनाए रखती है, कर्तव्य पथ से डिगाती नहीं। अच्छा.....मेरी प्यारी गुड़िया........अलविदा।"


 राज मीनू से विदा लेकर माँ की तरफ मुड़ा तो ममता का आँचल उड़ा और राज के सिर पर अटक गया मानों सारे जीवन काल का प्यार और दुलार चंद लम्हों में अर्पित होना चाहता हो। राज के चेहरे को अपने दोनों हाथों में लेकर माँ ने क्षात्र धर्म को निभाते हुए कहा---- "राज, हम वीर प्रसवनियां हैं। हमारे दूध को कलंकित मत होने देना। बेटे आज केवल मैं तेरी ही माँ नहीं हूं, बल्कि पूरे राष्ट्र की मातृशक्ति मेरे में समाहित हो गई है और सारे देश के बच्चों पर मेरा अधिकार है। बेटे जब कभी तेरे मन का कोई कोना कमजोर होकर तुझे कर्तव्य पथ से डिगाए, आंसुओं का सैलाब उमड़ आए तो तू अपनी माँ के आज के इस रूप को याद कर लेना।" अपने हाथ से विजयी तिलक लगाकर, पीठ थपथपा कर माँ ने कहा -- "विजयी भव।" 


 "ऐसा ही होगा माँ!" चरण स्पर्श करते हुए राज ने कहा। धन्य हैं इस देश की नारियां, वक्त आने पर अपना खून तक दे दें, परन्तु उफ्फ-आह तक न करें। "माँ मुझे सौगंध है तेरे चरण कमलों की, जो दुश्मनों के नापाक इरादों को अपने जीते जी पूरा होने दूं। अच्छा माँ! अलविदा....!"


 "अलविदा मेरे बच्चे! ईश्वर तेरा सदा सहाई हो।" माँ और मीनू राज को छोड़ने गांव तक साथ हो लीं। वहीं रास्ते में उनकी भेंट रजनी से हो गई। हाल वृतांत के पश्चात जब राज और रजनी की आंखें एकाकार हुईं तो वाणी वर्णों का आलंबन नहीं ले सकी। दोनों के दिलों का भयंकर तूफान किसी रास्ते बाहर आने को आतुर था, लेकिन जिस प्रकार तीव्रगामी आंधियों से पहले वातावरण शांत हो जाता है, वैसा ही कुछ-कुछ यहां भी हुआ। प्रेम की भाषा केवल मूक भावों तक ही सीमित रह गई। इस खामोशी के आलम को तोड़ा राज ने.... "अच्छा माय डियर रजनी! खुशी-खुशी मुस्कुराते हुए विदा करो न मुझे......हूं......."


 ख्यालों में खोई रजनी के कानों में जब राज के मार्मिक अल्फाज़ पड़े तो उसकी तंद्रा भंग हुई। "आं..... हां......" रजनी के चेहरे पर मुस्कान तो आ गई, विदाई के लिए हाथ भी उठ गए, किंतु हाय रे भाग्य की विडंबना ..... शब्द ही साथ छोड़ गए।


 एक नज़र तीनों के चेहरे पर डालकर, कुछ क्षण अपनी जन्मभूमि के विहंगम दृश्यों को निहारता रहा, मानों वह अपनी आंखों में अपने गांव के यादगारी स्थलों को और उन में रची बसी खट्टी मीठी यादों को समेट कर ले जाना चाहता हो। वहीं से मुट्ठी भर माटी उठाकर, शीश नवाकर, रुमाल में बांधकर अपने बैग में डाली। माँ के गले मिलता हुआ राज माँ से पुनः कहता है-- "अच्छा माँ! अब तुम वापस जाओ। पापा स्टेशन पर मेरा इंतजार कर रहे होंगे।" "नहीं मेरे बच्चे! तुम निकलो। हम यहां कुछ देर बैठना चाहते हैं और तब तक तेरे पिताजी भी आ जाएंगे। फिर साथ ही चलेंगे।"


 "ठीक है माँ!" राज ने अपना बैग और बिस्तर उठाया और सर्पीली राहों से होते हुए स्टेशन की तरफ चला गया। राज के जाते ही माँ-बेटी एक दूसरे को तसल्ली देने की कोशिश करने लगीं। ज्यों-ज्यों राज उनकी नजरों से दूर होता गया त्यों-त्यों उनके सब्र का बांध टूटता गया। दिल की कसक बढ़ती गई। आंखों से अश्रु धारा प्रवाहित होने लगी और अंततः दोनों मां-बेटी फफक कर रोने लगीं। अपने आंसुओं पर काबू पाए हुए रजनी उन्हें संभालने लगी।


 "बड़ी देर लगा दी बेटा, क्या बात हो गई?" स्टेशन पर पहुंचते ही पापा ने राज से पूछा। "ऐसी तो कोई बात नहीं पापा, पर हां मीनू और मम्मी गांव तक आ गई थीं और वहीं बैठी हुई आपका इंतजार कर रही हैं।" अपना बिस्तर और बैग उतारते हुए राज ने कहा।


"बेटा! मुझे पूरा विश्वास है कि तुम मेरा, मेरे गांव का और इस प्यारे से देश का नाम अवश्य रोशन करोगे, करोगे न......."

 "हां पापा! मैं आपके विश्वास को कभी नहीं डगमगाने दूंगा, नहीं टूटने दूंगा आपके विश्वास को। पापा मुझे पता है कि मेरे इस तरह अचानक चले जाने से आप लोगों के मन में क्या गुजरेगी। पापा जी आप मम्मी और मीनू को कभी भी कमजोर मत होने देना। पापा जी एक बात बोलूं, हम पुरुषों की छाती शायद परुष होती है, ये इसलिए कि बड़े से बड़ा आघात भी हम सहजता से सह सकें। और हां पापा! केवल मेरी खैरियत के लिए दुआ मत मांगना, दुआ करना कि इंसानों के दिलों से, मानव के मनों से कलुषता मिट जाए और एक दूसरे की भावनाओं की कद्र हो ताकि मानवता के बीज कभी ख़त्म न हों। माताएं अपने बच्चों को असमय युद्ध भूमि में भेजने को विवश न हों, बहनें राखी के लिए वीरों का रास्ता न निहारती रहें। खैर! होना तो वही है जो विधाता ने लिख दिया।" चरण स्पर्श करते हुए राज ने कहा-- "अच्छा पापा जी, अलविदा!" गाड़ी की सीटी ने संकेत दिया। दोनों बाप-बेटा एक दूसरे के गले मिले और राज गाड़ी में चढ़ गया। पापा के हाथ स्वतः ही ऊपर उठ गए......अपने जाते हुए बेटे के लिए........।


 "अलविदा बेटा!" कहकर सूबेदार शिवप्रसाद सिंह वापस लौट चले।


और राज ...... राज बढ़ता गया,....... बढ़ता ही गया ..... गाड़ी के साथ ........ अपनी मंजिल के करीब..... और करीब....। साथ में ले गया....... ममतामयी माँ की खुशियां.......छोड़ गया सूनापन.......। वृद्धावस्था की तरफ बढ़ते बाप की लाठी..........। बहन के साथ गुजारीं बचपन की मधुर स्मृतियां.............. छीना झपटी...... और ...........और........... हृदयवल्लभा ............... रजनी के ओंठों की रं......ग.......त.... आं......खों...... का .....का.....ज.....ल, ..... शरीर से श....रा.....र......त और उनसे भी अमूल्य रातों की नींदें.................।



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