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Kanchan Kushwaha

Drama Romance Inspirational

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Kanchan Kushwaha

Drama Romance Inspirational

अदृश्य प्रेम - 1

अदृश्य प्रेम - 1

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गांव के हर लड़के का सपना होता है, शहर जाकर पढ़ना लिखना बड़ा आदमी बनना! ठीक यही सपना मेरा भी था मैंने भी बचपन से शहर में पढ़ने का सपना देखा था और अब वो पूरा हो गया...मैं अपने बोरिया बिस्तर समेत गांव के बड़े से घर से शहर के 2 मंजिल बिल्डिंग के मकान के 1 कमरे को अपना घर संसार बना लिया..!

  घर से दूर अपने सपनों के साथ आया मैं... खाना बनाने का एक्सपेरिमेंट करने लगा था, कभी जली रोटियां तो कभी खिचड़ी या दाल चावल...इन्हीं के साथ मैं यहाँ पढ़ाई में मन लगाने लगा, कुछ ही दिनों में मेरा एडमिशन भी हो गया..!!

   यहाँ आये अब महीने बीतने लगे घर की याद सताती थी, माँ, पापा, भाई सब याद आते थे, मैं अब कुछ कुछ बनाना भी सिख गया था...आज कई दिनों बाद छुट्टी मिली थी आज रविवार था सो मैं शाम को छत पे पढ़ने चला गया...मैं पढ़ने में मन लगा ही रहा था अचानक मेरे बगल वाले छत पे कुछ हलचल हुई..!

   एक लड़की अपने हाथों में किताब खोले उसी में मगन थी....मैं उसे देखा और देखता ही रह गया...गहरी काली आंखें, आधे बंधे आधे खुले उसके बाल, उसके चेहरे पे फिसलती उसी लटे...बहुत खूबसूरत थी वो या पहली नजर के पहले प्यार में मुझे खूबसूरत लगी थी वो.!

   मैं उसे देख ही रहा था कि उसकी नजरे मुझसे टकराई, एक पल के लिए दोनों सकपका गए और वो उठ कर नीचे चली गयी, मैं वही बैठा उसके लिए कवितायें लिखने लगा...पढ़ाई में अब कहाँ लगता..!

   

एक नजर मुड़कर देखा था उन्होंने मुझे..

 एक पल में ही वो मेरे दिल में उतर गए..!

 चाँदनी सा चमकता था रूप उनका...

 अचानक बादलों में वो फिर घिर गए..!!


उसके नीचे जाते ही ये 4 लाइनें मैंने तुरंत लिख डाली...ऐसे ही धीरे धीरे रोज हमारी मुलाकात छत पे होने लगी...

उन मुलाकातों में हमारी कोई बात नहीं होती...झुकी पलकों से कभी वो देखती तो कभी मैं अपने आंखों के कोने से उसे देखता....धीरे धीरे महीने गुजरे, फिर साल गुजरा और फिर कई साल गुजर गए...हाँ गुजरे सालो में मैंने एक बड़ी कामयाबी हासिल की थी वो थी उसका नाम पता करना...उसका नाम श्रद्धा था...भोली भाली शक्ल वाली वो लड़की हर रोज मेरे और करीब आ रही थी...एक रोज श्रद्धा के पिताजी ने मुझे बाहर घूमते देख मुझसे कहा,"बेटा जी" आप का दूध वाला कभी आता है कभी नहीं...आप हमारे यहाँ से दूध ले लिया करो...मैंने हामी भर दी और अब श्रद्धा के यहाँ से ही दूध लेने लगा....!!

  अब श्रद्धा के घर मुझे दूध लेने जाना होता था और जिस दिन मैं नहीं जाता उस दिन श्रद्धा आवाज देकर बुलाती...."उत्कर्ष" कहा हो...दूध नहीं लेना क्या..?

  फिर मैं जाता और दूध ले आता.. धीरे धीरे महीने गुजरने लगे इस बीच हम अच्छे दोस्त बन गए और बहुत सारी बाते करने लगे...दोनों एक दूसरे को बिना कहे चाहने लगे थे दोनों का प्रेम गहरा होता जा रहा था, एक शाम श्रद्धा ने छत से आवाज लगाई "उत्कर्ष"....

मैंने कहा आ रहा हूं, मैं ऊपर पहुँचा तो वो पागल लड़की थाली पकड़े मेरे लिए खाना लाई थी...उसने कहा की तुम पढ़ाई पे ध्यान दिया करो खाना बनाने पे नहीं..वो खाना देकर चली गयी..मशरूम की सब्जी चावल रोटी आज महीनों बाद अच्छा घर का खाना मिला, मैंने भर पेट खाया था...आज मौसम भी बेईमान था ,हल्की रिमझिम बारिश, सुहानी ठंडी हवा, सांझ का वक्त था श्रद्धा अपने छत पे खड़ी मौसम का लुफ्त उठा रही थी लेकिन उसके बल तेज हवाओं से उसके चेहरे पे आकर उसे परेशान कर रहे थे और वो बार बार अपने बाल हटाती, उसे देख मेरी होंठों पे अपने आप मुस्कान आ गयी...और मैंने फिर अपनी "श्रद्धा" के लिए एक कविता लिखा....


सूरज की किरणें फीकी, पड़ गई शाम नई शरमाई।

मस्त घटा ने अम्बर संग, लहरा कर ली अंगड़ाई।

मैं छत पर निपट अकेला था, आँखों में मेरे तन्हाई।

मेरे ग़म को धोने अम्बर, से बदली आई,

हवा के एक झोंके ने, मुझको यूँ झकझोर दिया।

जब सामने वाली लड़की ने, खिड़की का मुँह खोल दिया।

मेरी नजरों ने उसका, जैसे ही दीदार किया।

मेरे दिल ने उस पगली, लड़की से प्यार किया।

यौवन के प्यासे नयनों ने, उस पगली को तक लिया।

छत के ऊपर से ही उसके, दिल के अंदर झाँक लिया।

घटा सी काली जुल्फ़े उसकी, यूँ ही झूम रहीं थीं।

बार बार लहरा कर उसका, यौवन चुम रहीं थीं।

झील सी नीली आँखे उसकी, जाने क्या क्या बोल रही थीं।

मेरे दिल के दरवाज़े वो, धीरे धीरे खोल रही थी।

मुझे अकेला देखकर वो ,पगली छत पर आ गई।

उसका सुन्दर रूप देखकर, चाँदनी शर्मा गई।


कविता लिख के मैं श्रद्धा को आवाज दिया..."श्रद्धा" तुम्हारे लिए कुछ है मेरे पास..वो बलखाती हुई पास आई और मैंने उसे कागज पे लिखी वो कविता उसे थमा दी...मैंने उसकी नजरों में देखा कविता पढ़ते हुए उसकी आंखे नम हुई थी..!

जो एहसास मुझे था शायद वही एहसास उसे भी था, श्रद्धा कुछ कह पाती उससे पहले उसकी माँ ने आवाज दी और वो नीचे चली गयी..! पूरी रात मैं परेशान रहा, सोचता रहा कहीं श्रद्धा बुरा न मान जाए...क्या वो भी मुझे पसन्द करती है यही सोचते सोचते मैं सो गया, अगली सुबह जब मैं कॉलेज से लौट कर शाम को छत पे गया तो अचानक श्रद्धा आ गयी...उसने मुझे कहा "उत्कर्ष" मुझे कुछ कहना है फिर वो चुप हो गयी, बहुत देर तक एक दूसरे को देखते रहने के बाद उसने मुझे अपनी बांहों में भींच लिया...बिना कहे हम दोनों ने एक दूसरे को अपने प्यार का इजहार कर दिया...और फिर मेरे मन ने कविता लिखना शुरू किया..!

    

साथ दूँगा तुम्हारा सदा के लिए..

तुम बनोगी क्या मेरी सदा के लिए...!

तुम्हारे कदमों में रख दूं खुशियां मैं सारी...

तुम अलविदा न कहो, सदा के लिए..!!


क्रमशः

आगे की कहानी पार्ट - 2 में....


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