चर्चा: मास्टर & मार्गारीटा24

चर्चा: मास्टर & मार्गारीटा24

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अध्याय 24


मास्टर की वापसी


 वोलान्द के शयनकक्ष में सब कुछ वैसा ही था जैसा कि नृत्योत्सव से पहले था. अब

वे सब भोजन करने वाले थे.

मार्गारीटा बेहद थक गई थी. वोलान्द अपने पास बिठाता है और पूछता है कि क्या

वह बहुत थक गई है. उसे पीने के लिए स्प्रिट दिया जता है जिसे पीकर उसका

चैतन्य वापस लौट आता है.

मार्गारीटा द्वारा किए गए बेहतरीन काम की सब प्रशंसा करते हैं.

हँसी मज़ाक और बातचीत के बीच भोजन बड़ी देर तक चलता है.

मार्गारीटा कहती है कि उसके वापस जाने का समय हो गया है...

 “आपको कहाँ की जल्दी है?” वोलान्द ने प्यार से मगर कुछ रुखाई से पूछा. बाकी

सब चुप रहे, यह दिखाते हुए कि वे सिगार के धुएँ के छल्लों वाले खेल में मगन हैं.

 “हाँ, समय हो गया है,” इस सबसे झेंपकर मार्गारीटा बोली और वह मुड़ी, मानो अपना

लबादा या रेनकोट ढूँढ़ रही हो. अचानक अपनी नग्नता से वह सकुचा गई. वह मेज़

से उठी. वोलान्द ने चुपचाप अपना गन्दा, धब्बेदार हाउस कोट उठाया और कोरोव्येव

ने उसे मार्गारीटा के कन्धों पर डाल दिया.

 “धन्यवाद, महोदय,” हौले से मार्गारीटा ने कहा और प्रश्नार्थक नज़रों से वोलान्द की

ओर देखने लगी. वह जवाब में बड़ी शिष्टता और उदासीनता से मुस्कुराया. मार्गारीटा

के दिल को गम की काली घटा ने ढाँक लिया. उसे लगा कि उसे धोखा दिया गया है.

नृत्योत्सव के दौरान अर्पित की गई सेवाओं का उसे न तो कोई इनाम मिलने वाला था

और न ही कोई उसे रोकना चाह रहा था. साथ ही उसे यह भी साफ तौर से पता था

कि वह यहाँ से कहीं भी नहीं जा सकती. एक ख़याल उसके दिमाग को छू गया, कि

कहीं वापस अपने आलीशान घर में न जाना पड़े. और, वह उदास हो गई. क्या खुद ही

निर्लज्ज होकर उस बात के बारे में पूछ ले, जिसका वादा अज़ाज़ेलो ने

अलेक्सान्द्रोव्स्की पार्क में किया था? नहीं, किसी कीमत पर नहीं – उसने अपने आप से

कहा.


 “आपको शुभ कामनाएँ, महोदय,” वह प्रकट में बोली, और स्वयँ अपने आप में सोचने

लगी, ‘बस, यहाँ से निकल जाऊँ, फिर तो नदी में जाकर डूब मरूँगी.”

 “बैठिए तो,” अचानक आज्ञा देते हुए वोलान्द ने कहा. मार्गारीटा के चेहरे का रंग

बदल गया, और वह बैठ गई.

 “शायद जाते-जाते मुझसे कुछ कहना चाहती हैं?” वोलान्द ने पूछा.

 “नहीं, कुछ नहीं, महाशय,” मार्गारीटा ने स्वाभिमानपूर्वक कहा, “बस यही कि यदि

आपको अब भी मेरी ज़रूरत हो तो मैं खुशी-खुशी आपकी इच्छा का पालन करूँगी.

मैं नृत्योत्सव में ज़रा भी नहीं थकी और मुझे बहुत मज़ा आया. मतलब, यदि वह और

भी चलता रहता तो मैं खुशी-खुशी अपना घुटना आगे करती, ताकि हज़ारों जल्लाद

और खूनी उसे चूम सकें,” मार्गारीटा ने वोलान्द की ओर मानो झरोखे से देखा, उसकी

आँखों में आँसू भर आए.

 “सही है! आप एकदम ठीक कह रही हैं!” भयानकता से वोलान्द चिल्लाया, “ऐसा ही

होना चाहिए!”

 “ऐसा ही होना चाहिए!” उसने साथियों ने इस गूँज को दुहराया. “हम आपको परख

रहे थे,” वोलान्द कहता रहा, “कभी भी, कुछ भी मत माँगिए! कभी भी नहीं, कुछ भी

नहीं, खासतौर से उनसे जो आपसे शक्तिशाली हैं. वे खुद ही प्रस्ताव रखेंगे और खुद

ही सब कुछ दे देंगे! बैठ जाओ, स्वाभिमानी महिला!” वोलान्द ने मार्गारीटा के कन्धों

से भारी-भरकम हाउसकोट खींच लिया. वह फिर से उसके निकट पलंग पर बैठी नज़र

आई, “तो, मार्गो,” वोलान्द ने अपनी आवाज़ को नर्म बनाते हुए कहा, “आज आपने

मेरे लिए मेज़बान का काम किया, उसके लिए आपको क्या चाहिए? नग्नावस्था में

नृत्योत्सव का संचालन करने के बदले में क्या चाहती हैं? अपने घुटने की क्या कीमत

लगाती हैं? मेरे मेहमानों के कारण जिन्हें अभी-अभी आपने जल्लाद और खूनी कहा,

आपको क्या हानि हुई? कहिए! अब बिल्कुल निःसंकोच होकर कहिए, क्योंकि प्रस्ताव

मैंने रखा है.”

मार्गारीटा का दिल ज़ोर से धड़का, एक गहरी साँस लेकर वह कुछ सोचने लगी.

 “बोलिए, बेधड़क कहिए!” वोलान्द ने उसकी हिम्मत बढ़ाई, “अपनी विचारशक्ति पर,

कल्पनाशक्ति पर ज़ोर डालिए, उसे पैना कीजिए! सिर्फ उस बेहूदे, इतिहास में जमा

सामंत की हत्या के वक़्त उपस्थित रहने पर ही किसी भी आदमी को पुरस्कार मिलना

चाहिए, यदि वह व्यक्ति औरत हो, तो फिर बात ही क्या है. तो?”

मार्गारीटा की ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई. वह मन में सोचे गए

अच्छे, बढ़िया शब्दों से अपनी बात कहने जा रही थी कि अचानक वह पीली पड़ गई.

उसका मुँह खुला रह गया. आँखें बाहर निकल आईं. “फ्रीड़ा! फ्रीड़ा! फ्रीड़ा!” – किसी की

चिरौरी करती-सी आवाज़ उसके कानों में गूँजने लगी, “मेरा नाम फ्रीड़ा है!” और

मार्गरीटा अटकते हुए बोली, “हाँ, क्या मैं एक चीज़ के लिए प्रार्थना कर सकती हूँ?”

 “माँगिए, माँगिए, मेरी जान,” वोलान्द ने जवाब दिया, वह मानो कुछ समझते हुए

मुस्कुराया, “एक चीज़ की माँग कीजिए!”

ओह, कितनी सफ़ाई और स्पष्टता से वोलान्द ने ज़ोर देकर मार्गारीटा के ही शब्द

दुहरा थे, “एक चीज़!” मार्गारीटा ने फिर साँस ली और कहा, “मैं चाहती हूँ कि फ्रीड़ा

को वह रूमाल देना बन्द कर दिया जाए, जिससे उसने अपने बच्चे का दम घोंट दिया

था.”

 बिल्ले ने आकाश की ओर आँखें उठाईं और ज़ोर से साँस ली, मगर कहा कुछ नहीं;

कोरोव्येव और अज़ाज़ेलो भी चौंक गए.

वोलान्द कहता है कि फ्रीडा को माफ़ करना मार्गारीटा के अपने ही वश में है और

मार्गारीटा फ्रीडा को क्षमा कर देती है.

 “धन्यवाद, अलबिदा,” मार्गारीटा ने कहा और वह उठने लगी.

 “तो, बेगेमोत,” वोलान्द ने बोलना शुरू किया, “उत्सव की रात को एक नासमझ

व्यक्ति के बर्ताव पर ध्यान नहीं देंगे,” वह मार्गारीटा की ओर मुड़ा, “तो इसकी गिनती

नहीं होगी, क्योंकि मैंने कुछ भी नहीं किया है. आप अपने लिए क्या चाहती हैं?”

खामोशी छा गई जिसे मार्गारीटा के कान में फुसफुसाते हुए कोरोव्येव ने

तोड़ा, “बहुमूल्य सम्राज्ञी, इस बार मैं सलाह दूँगा, कि आप अकल से काम लें! कहीं

ऐसा न हो कि सुअवसर हाथ से निकल जाए!”

 “मैं चाहती हूँ कि इसी समय, इसी क्षण मेरा प्रियतम, मास्टर मुझे लौटा दिया

जाए,” मर्गारीटा ने कहा और उसके चेहरे की रेखाएँ थरथराने लगीं.

 तभी कमरे में हवा घुस आई, जिससे मोमबत्तियों की लौ लेट गई, खिड़की का भारी

परदा हट गया, खिड़की फट् से खुल गई और दूर ऊँचाई पर पूरा; प्रातःकालीन नहीं,

बल्कि अर्धरात्रीय चन्द्रमा दिखाई दिया. खिड़की की सिल से होकर फर्श पर रात के

प्रकाश का हरा-सा रूमाल अन्दर आया, उस प्रकाश में प्रकट हुआ इवानूश्का का रात

का मेहमान, जो अपने आपको मास्टर कहता था. वह अस्पताल के मरीज़ों के कपड़े

पहने था – गाउन, जूते और काली टोपी, जिसे वह अपने से दूर नहीं करता था. उसका

दाढ़ी बढ़ा चेहरा विकृत हावभावों से काँप रहा था. उसने पागलों जैसी घबराहट से

मोमबत्तियों की रोशनी को देखा. चाँद का प्रकाश उसके चारों ओर उबल रहा था.   

मास्टर की वापसी के बाद अब घटनाएँ सकारात्मक दिशा में चलने लगती हैं. वोलान्द

समझ जाता है कि मास्टर के साथ क्या-क्या हुआ था, उसे किस-किस ने सताया था

और वह उन सबको एक एक करके सज़ा देना शुरू करता है.

 चलिए, देखते हैं कि वोलान्द यह सब कैसे करता है.

मास्टर मार्गारीटा को पहचान जाता है, मगर जब वह स्वयँ को अनजान लोगों से घिरे

पाता है तो घबरा जाता है. वह मार्गारीटा को दूर धकेलता है जो रोते हुए उससे लिपट

गई थी. मार्गारीटा उससे कहती है कि वह किसी भी चीज़ से न डरे.

वोलान्द मास्टर की ओर देखकर कहता है कि उसे खूब सताया गया है. यह उस समय

की वास्तविकता थी. एक तरह से वह पाठकों को बतलाता है कि उस रात जब वह

ग़ायब हो गया था तो उसे यातनागृह ले जाया गया थी जहाँ उसे असीम यातनाएँ दी

गई थीं.

 मास्टर को पीने के लिए एक द्रव दिया जाता है, जिसके तीन ग्लास पीकर वह अपनी

सामान्य स्थिति में लौट आता है.

वोलान्द उससे पूछता है, “अभी आप कहाँ से आए हैं?” और जब मास्टर कहता है कि

वह मानसिक रुग्णालय से आया है तो मार्गारीटा रो पड़ती है. वह वोलान्द से कहती है

कि वह ‘मास्टर’ है और वोलान्द द्वारा ठीक किए जाने की योग्यता रखता है.

मास्टर समझ जाता है कि वह किससे बात कर रहा है.

जब वोलान्द मास्टर से पूछता है कि मार्गारीटा उसे ‘मास्टर’ क्यों कहती है, तो वह

येशू और पोन्ती पिलात वाले उपन्यास के बारे में बताता है...वोलान्द उपन्यास देखना

चाहता है और जब मास्टर उसे बताता है कि वह उपन्यास को जला चुका है तो

वोलान्द कहता है, “माफ़ कीजिए, मैं इस पर विश्वास नहीं करता,” वोलान्द

बोला, “ऐसा हो ही नहीं सकता. पांडुलिपियाँ कभी जलती नहीं.” वह बेगेमोत की ओर

मुड़ा और बोला, “अरे, बेगेमोत, उपन्यास इधर दो.”

बिल्ला फौरन कुर्सी से उछला, और सबने देखा कि वह पांडुलिपियों के एक ऊँचे ढेर पर

बैठा है. सबसे ऊपर की पांडुलिपि उसने झुककर अभिवादन करते हुए वोलान्द की ओर

बढ़ा दी. मार्गारीटा काँप गई और चीख पड़ी, घबराहट से उसकी आँखों में फिर से आँसू

भर आए.

 “यही है, पांडुलिपि! यही है!”

वह वोलान्द के सामने झुकी और प्रसन्नता से बोली, “सर्व शक्तिमान! सर्व

शक्तिमान!”

अब वोलान्द मार्गारीटा से पूछता है कि वह उससे क्या चाहती है.

 मार्गारीटा की आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं. वह विनती करते हुए वोलान्द से बोली, “मुझे

उसके साथ बात करने देंगे?”

वोलान्द ने सिर हिलाकर ‘हाँ’ कहा, तो मार्गारीटा ने मास्टर के कान से लगकर

फुसफुसाते हुए कुछ कहा. साफ सुनाई दिया कि मास्टर ने कहा, “नहीं, बहुत देर हो

चुकी है. मुझे ज़िन्दगी में अब कुछ नहीं चाहिए. सिवाय इसके कि तुम मेरे सामने

रहो. मगर तुम्हें मैं फिर सलाह दूँगा – मुझे छोड़ दो. मेरे साथ तुम्हारा भी नुकसान

होगा.”

 “नहीं, नहीं छोडूँगी,” मार्गारीटा ने जवाब दिया और वह वोलान्द की तरफ मुड़ी, “मैं

प्रार्थना करती हूँ कि हमें दुबारा अर्बात वाले उसी घर में भेज दिया जाए; टेबुल पर

लैम्प जलता रहे और सब कुछ वैसा ही हो जाए जैसा पहले था.”

अब मास्टर हँस पड़ा और मार्गारीटा की घुँघराले बालों वाला मुख अपने हाथों में लेकर

बोला, “ओह, इस गरीब औरत की बात न सुनिए, महोदय! उस घर में कब से कोई

दूसरा आदमी रहता है, और ऐसा कभी होता नहीं है कि सब कुछ वैसा ही हो जाए,

जैसा पहले था.” उसने अपना गाल मार्गारीटा के सिर से सटाकर मार्गारीटा को अपनी

बाँहों में भर लिया, और बड़बड़ाने लगा, “बेचारी, बेचारी...”

 “आप कहते हैं कि नहीं हो सकता?” वोलान्द ने कहा, “यह सही है. मगर हम कोशिश

करेंगे...” और उसने कहा, “अज़ाज़ेलो!”


उसी समय छत से अवतीर्ण हुआ घबराया हुआ और लगभग पगला गया एक

नागरिक, जिसने सिर्फ कच्छा पहन रखा था, मगर न जाने क्यों उसके हाथ में एक

सूटकेस था और सिर पर थी टोपी. डर के मारे वह आदमी काँप रहा था और वह धम्

से नीचे बैठ गया.

 “मोगारिच?” अज़ाज़ेलो ने उस आसमान से टपके प्राणी से पूछा.

 “अलोइज़ी मोगारिच,” उसने काँपते हुए जवाब दिया.

 “आप वही हैं, जिसने इस आदमी के उपन्यास के बारे में लिखा लातून्स्की का लेख

पढ़कर उसकी यह कहते हुए शिकायत की थी कि उसने गैरकानूनी साहित्य अपने घर

में छिपा रखा है?” अज़ाज़ेलो ने पूछा.

 नए आए नागरिक का बदन नीला पड़ गया और उसकी आँखों से पश्चात्ताप के आँसू

बहने लगे.

 “आप इसके कमरों को हथियाना चाहते थे?” अज़ाज़ेलो ने यथासम्भव सहृदयता

दिखाते हुए पूछा.

 मोगारिच को खिड़की से बाहर फेंक दिया जाता है, मास्टर के फ्लैट की किराए की

पुस्तिका में मास्टर का नाम लिख दिया जाता है और उसे मकान मालिक की मेज़ की

दराज़ में रख दिया जाता है. मास्टर की बीमारी के केस-पेपर्स नष्ट कर दिए जाते हैं,

जिससे स्त्राविन्स्की के क्लिनिक के कमरा नं. 118 के मरीज़ का कोई नामो निशान

बाक़ी नहीं बचता.

वोलान्द का काम एकदम साफ़-सुथरा है.


अब नताशा प्रविष्ट होती है निकोलाय इवानोविच के साथ. वह प्रार्थना करती है कि

उसे चुडैल ही रहने दिया जाए. नृत्योत्सव में मि. जैक ने उससे विवाह का प्रस्ताव

किया था. उसकी प्रार्थना मान ली जाती है.

निकोलाय इवानोविच घर वापस जाना चाहता है. वह एक सर्टिफिकेट की मांग करता

है जो यह सिद्ध कर सके कि पिछली रात उसने कहाँ गुज़ारी. उसे सर्टिफिकेट दे

दिया जाता है.


फिर आता है वारेनूखा. वह स्वीकार करता है कि वह पिशाच नहीं बन पाया. उस

समय हैला के साथ उसने रीम्स्की को लगभग समाप्त ही कर दिया था, मगर वह खून

का प्यासा नहीं है.

अज़ाज़ेलो उसे चेतावनी देता है कि वह टेलिफोन पर झूठ न बोले. वारेनूखा भी अदृश्य

हो जाता है.

एक बड़े सूटकेस में मास्टर के उपन्यास की पांडुलिपियाँ भर दी जाती हैं. फिर आती है

बिदाई की बेला. बुल्गाकोव बड़ी सुन्दरता से वोलान्द की मास्टर के भविष्य की

कल्पना को चित्रित करते हैं.

वोलान्द के ये वाक्य पत्थर की लकीर बन गए. देखिए, अपने कथन ‘पांडुलिपियाँ कभी

नहीं जलतीं,’ के अलावा वोलान्द ने और क्या कहा था:

 कुछ देर की खामोशी के बाद वोलान्द मास्टर से मुख़ातिब हुआ.

 “तो, अर्बात के तहखाने वाले कमरे में? और लिखेगा कौन? और सपने? प्रेरणा?”

 “मेरे पास अब कोई सपना नहीं है, प्रेरणा भी नहीं है.” मास्टर ने जवाब दिया, “मुझे

अब किसी चीज़ में कोई दिलचस्पी नहीं है, सिर्फ इसे छोड़कर,” उसने फिर मार्गारीटा के

सिर पर हाथ रखा, “मुझे उन्होंने तोड़ दिया है, मैं उकता गया हूँ और मैं वापस

तहख़ाने में जाना चाहता हूँ.”

 “और आपका उपन्यास, पिलात?”

 “मुझे नफरत है उस उपन्यास से,” मास्टर ने जवाब दिया, “उसके कारण मुझे बहुत

दुख झेलना पड़ा है.”

 “मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ती हूँ,” मार्गारीटा ने दुखी होकर कहा, “ऐसा मत कहो. तुम

मुझे क्यों सता रहे हो? तुम्हें अच्छी तरह मालूम है कि तुम्हारे इस काम में मैंने

अपनी सारी ज़िन्दगी दाँव पर लगा दी है.” मार्गारीटा ने अब वोलान्द की ओर मुड़कर

कहा, “आप इसकी बात न सुनिए, महाशय! यह बहुत दुखी है.”

 “मगर कुछ तो लिखना ही होगा न?” वोलान्द ने कहा, “अगर आप न्यायाधीश के बारे

में लिख चुके हैं, तो कम से कम इस अलोइज़ी के बारे में ही लिख डालिए...”

मास्टर मुस्कुराया.

 “उसे तो लाप्शोन्निकोवा छापेगी नहीं और फिर वह दिलचस्प भी नहीं है.”

 “मगर आप ज़िन्दा कैसे रहेंगे? भीख माँगनी पड़ सकती है.”


 “खुशी से, खुशी से,” मास्टर ने कहा और मार्गारीटा को खींचकर अपने आलिंगन में ले

लिता, “वह समझ जाएगी, मुझसे दूर चली जाएगी...”

 “मैं ऐसा नहीं सोचता,” वोलान्द मुँह ही मुँह में बुदबुदाया और आगे बोला, “पोंती

पिलात का इतिहास लिखने वाला आदमी तहखाने में जाएगा, इस उद्देश्य से कि वह

लैम्प के पास बैठा रहे और भूखा मरे.”

मास्टर से दूर हटकर मार्गारीटा गुस्से से बोली, “मैंने वह सब किया, जो कर सकती

थी. और मैंने उसके कानों में सबसे अधिक आकर्षक चीज़ के बारे में भी कहा. मगर

इसने इनकार कर दिया.”

 “जो आपने उसके कान में फुसफुसाकर कहा, वह मैं जानता हूँ,” वोलान्द ने प्रतिवाद

करते हुए कहा, “मगर वह आपसे ज़्यादा आकर्षक तो नहीं है. मैं आपसे कहता

हूँ...” मुस्कुराते हुए उसने मास्टर से कहा, “कि आपका यह उपन्यास आपके लिए अनेक

आश्चर्य लायेगा.

 “यह तो बहुत दुःख की बात है,” मास्टर ने जवाब दिया.

 “नहीं, नहीं यह दुःख की बात नहीं है,” वोलान्द बोला, “अब कोई भी दुःखद घटना नहीं

घटॆगी. तो...मार्गारीटा निकोलायेव्ना, सब कुछ किया जा चुका है. आपको मुझसे कोई

शिकायत है?”

 “आप कैसी बात कर रहे हैं, महाशय!”

 “तो, यह लीजिए, मेरी ओर से यादगार के तौर पर...” वोलान्द ने कहा और तकिए के

नीचे से एक छोटी-सी हीरे जड़ी सोने की नाल निकाली.

 “नहीं, नहीं, नहीं, यह किसलिए!”

 “आप मुझसे बहस करना चाहती हैं?” मुस्कुराते हुए वोलान्द ने पूछा.

मार्गारीटा ने इस भेंट को रूमाल में रखकर उसकी गाँठ बाँध ली, क्योंकि उसके कोट में

कोई जेब नहीं थी.  

क्या आपको अन्नूश्का की याद है? वही जिसने रेल की पटरियों पर सूरजमुखी का तेल

बिखेर दिया था और उस पर फिसल कर बेर्लिओज़ ट्राम की पटरियों पर गिर गया था?

अब बुल्गाकोव बताते हैं कि यह अन्नूश्का कौन थी और वह क्या करती थी.


जब मार्गारीटा सीढ़ियों से नीचे उतर रही थी तो हीरे जड़ी घोड़े की नाल सीढ़ियों पर

गिर पड़ी. अन्नूश्का ने लपककर उसे उठा लिया. देखिए, कैसी धृष्ठ और चालाक है:

 “...माजरा यह था कि मास्टर और मार्गारीटा के अपने साथियों समेत निकलने के

कुछ देर पहले फ्लैट नं. 48 से, जो कि जवाहिरे की बीवी के फ्लैट के ठीक नीचे

था, एक सूखी-सी औरत हाथ में एक बर्तन और पर्स लिए बाहर सीढ़ियों पर आई. यह

वही अन्नूश्का थी, जिसने बुधवार को, बेर्लिओज़ के दुर्भाग्य से, सूरजमुखी का तेल

घुमौने दरवाज़े के पास बिखेर दिया था.

कोई नहीं जानता था, और न ही शायद कभी जान पाएगा कि मॉस्को में यह औरत

करती क्या थी, और कैसे ज़िन्दा रहती थी. उसके बारे में सिर्फ इतना पता था कि उसे

प्रतिदिन या तो बर्तन लिये, या पर्स लिये, या फिर दोनों साथ में लिये या तो तेल की

दुकान पर, या बाज़ार में, या उस घर के प्रवेश द्वार के पास, जिसमें वह रहती थी, या

सीढ़ियों पर देखा जा सकता था; मगर अक्सर वह दिखाई देती थी फ्लैट नं. 48 के

रसोईघर में, जहाँ वह रहती थी. इसके अलावा यह भी सर्वविदित था, कि जहाँ भी वह

मौजूद रहती या प्रकट होती थी – वहाँ फौरन हंगामा खड़ा हो जाता था और यह भी

कि लोगों ने उसका नाम ‘प्लेग’ रख दिया था.

 ‘प्लेग’ – अन्नूश्का न जाने क्यों सुबह बड़ी जल्दी उठ जाया करती, और आज न जाने

क्यों, मानो किसी अज्ञात शक्ति ने उसे अँधेरे-उजाले के झुरमुटे के पहले ही बारह बजे

के कुछ बाद जगा दिया था. दरवाज़े में चाबी घूमी, अन्नूश्का की पहले नाक और बाद

में वह समूची बाहर निकली और अपने पीछे दरवाज़ा खींचकर कहीं बाहर जाने की

तैयारी करने ही लगी थी, कि ऊपरी मंज़िल का दरवाज़ा बजा, कोई लुढ़कता हुआ नीचे

आया और अन्नूश्का से टकराते हुए उसे इतनी ज़ोर से एक किनारे पर धकेला कि

उसका सिर दीवार से जा टकराया.

 “यह सिर्फ एक कच्छे में तुम्हें शैतान कहाँ लिये जा रहा है?” अपना सिर पकड़ते हुए

अन्नूश्का गरजी. कच्छा पहना आदमी हाथ में सूटकेस लिए और टोपी सिर पर

डाले, बन्द आँखों से खराश भरी उनींदी आवाज़ में बोला:

 “बॉयलर! गंधक का तेज़ाब! सिर्फ पुताई ही कितनी महँगी पड़ी!” और रोते हुए

भिनभिनाया, “चली जाओ!” अब वह फिर ज़ोर से फेंका गया, मगर आगे नहीं, सीढ़ियों

पर नीचे नहीं, अपितु पीछे – ऊपर, वहाँ जहाँ अर्थशास्त्री के पैर से टूटा खिड़की वाला

शीशा था, और इस खिड़की से उल्टा लटकते हुए वह तीर की तरह बाहर फेंक दिया

गया. अन्नूश्का अपने सिर की चोट के बारे में बिल्कुल भूल गई, “आह” करते हुए वह

खिड़की की तरफ लपकी. वह पेट के बल लेट गई और खिड़की से बाहर सिर

निकालकर आँगन में देखने लगी, इसी अपेक्षा से कि उसे रोशनी में सड़क पर सूटकेस

वाले आदमी का क्षत-विक्षत शरीर देखने को मिलेगा. मगर आँगन में और सड़क पर

कुछ भी नहीं था.

बस यही मानकर सन्तोष कर लेना पड़ा कि वह विचित्र, उनींदा प्राणी पंछी की

तरह, बिना कोई निशान छोड़े घर से उड़ गया. अन्नूश्का ने सलीब का चिह्न बनाते

हुए सोचा, “हाँ, सचमुच ही फ्लैट का नंबर पचास है! लोग फालतू में ही नहीं कहते!

अजीब है यह फ्लैट! फ्लैट है या बला!”

वह इतना सोच ही पाई थी कि ऊपरी मंज़िल का दरवाज़ा फिर से खुला और दूसरी

बार कोई दौड़ता हुआ नीचे आया. अन्नूश्का दीवार से चिपक गई. उसने देखा कि कोई

काफी इज़्ज़तदार, दाढ़ीवाला मगर कुछ-कुछ सुअर जैसे चेहरे वाला आदमी अन्नूश्का

की बगल से तीर की तरह गुज़रा, और पहले वाले ही की तरह वह खिड़की के रास्ते

घर से बाहर गया, वैसे ही फर्श पर चूर-चूर हुअ बिना. अन्नूश्का भूल गई कि वह

किसलिए बाहर निकली थी, और वह वैसे ही सलीब का निशान बनाते सीढ़ियों पर

खड़ी “ओह...ओह” करती अपने आप से बातें करती रही.

 तीसरी बार निकला, बिना दाढ़ी के गोल, चिकने चेहरे वाला, कोट पहने आदमी; वह

भागता हुआ आया और ठीक वैसे ही खिड़की फाँद गया.

अन्नूश्का की तारीफ़ में इतना कहना होगा, कि वह काफी जिज्ञासु थी. यह देखने के

लिए कि आगे कौन से नये चमत्कार होने वाले हैं, उसने कुछ देर वहीं ठहरने का

फैसला कर लिया. ऊपर का दरवाज़ा फिर खुला और इस बार एक पूरा झुण्ड सीढ़ियाँ

उतरने लगा, भागकर नहीं, अपितु आम आदमियों की तरह. अन्नूश्का दौड़कर खिड़की

से दूर हट गई, वह नीचे अपने फ्लैट तक उतरी, दरवाज़ा फट् से खोलकर उसके पीछे

छिप गई, और दरवाज़े की दरार से उसकी उत्सुकता भरी आँख सट गई.

कोई एक बीमार-सा, अनबीमार-सा मगर अजीब, पीतवर्ण, बढ़ी हुई दाढ़ी वाला, काली

टोपी और कोई गाऊन-सा पहने डगमगाते कदमों से नीचे उतर रहा था. आधे अँधेरे में

अन्नूश्का ने देखा कि उसे सँभालती हुई ले जा रही थी कोई महिला, जिसने काला-सा

चोगा पहना था, शायद उस महिला के पैर या तो नंगे थे, या फिर उसने

पारदर्शी, विदेशी, फटे हुए जूते पहन रखे थे. छिः छिः! जूतों में क्या है! मगर औरत तो

नंगी है! हाँ उस चोगे से उसने अपने तन को केवल ढाँककर ही रखा था! ‘फ्लैट है या

बला!’ अन्नूश्का का दिल इस खयाल से हिलोरें ले रहा था कि कल पड़ोसियों को

सुनाने के लिए उसके पास काफी मसाला है.

इस विचित्र लिबास वाली औरत के पीछे थी एक पूरी निर्वस्त्र महिला, उसने हाथ में

सूटकेस पकड़ रखा था, उस सूटकेस के साथ-साथ चल रहा था एक विशालकाय काला

बिल्ला. अन्नूश्का आँखें फाड़े देख रही थी, उसके मुँह से सिसकारी निकलते-निकलते

बची.

इस जुलूस के पीछे-पीछे था नाटे कद का विदेशी, वह लँगड़ाकर चल रहा था, उसकी

एक आँख टेढ़ी थी, वह सफेद जैकेट पहने, टाई लगाए था, मगर कोट नहीं पहने था.

यह पूरा झुण्ड अन्नूश्का के करीब से होकर नीचे जाने लगा. तभी खट् से कोई चीज़

फर्श पर गिर पड़ी. यह अन्दाज़ करके कि कदमों की आहट दूर होती जा रही

है, अन्नूश्का साँप की तरह रेंगकर बाहर आई. बर्तन दीवार के निकट रखकर वह पेट

के बल फर्श पर लेट गई और हाथों से चारों ओर टटोलने लगी. उसके हाथों में आया

एक रूमाल, जिसमें कोई भारी चीज़ बँधी हुई थी. अन्नूश्का की आँखें विस्फारित होकर

माथे पर चढ़ गईं, जब उसने रूमाल में बँधी हुए चीज़ को देखा! अन्नूश्का अपनी

आँखों तक उस बहुमूल्य वस्तु को ले आई; अब उसकी आँखें भेड़िए की आँखों जैसी

दहकने लगीं. उसके मस्तिष्क में एक तूफान साँय-साँय करने लगा, ‘मैं कुछ नहीं

जानती! मैंने कुछ नहीं देखा!... भतीजे के पास? या इसके टुकड़े कर दिए जाएँ...हीरों

को तो उखाड़ कर निकाला जा सकता है...और एक-एक करके...एक पेत्रोव्का को, दूसरा

स्मोलेन्स्क को...और – मैं कुछ नहीं जानती, मैंने कुछ नहीं देखा!’

अन्नूश्का ने उस चीज़ को शमीज़ के अन्दर सीने के पास छिपा लिया. बर्तन उठाकर

रेंगते हुए वह वापस अपने फ्लैट में जाने ही वाली थी कि उसके सामने प्रकट

हुआ, शैतान ही जाने वह कहाँ से आया था, वही सफेद जैकेट , बगैर कोट वाला और

हौले से फुसफुसाकर बोला, “रूमाल और नाल निकालो.”


 “कैसा रूमाल, कैसी नाल?” अन्नूश्का ने बड़े बनावटी ढंग से पूछा, “मैं कोई रूमाल-

वुमाल नहीं जानती. नागरिक, क्या तुमने पी रखी है?”

सफेद जैकेट वाले ने अपनी बस के ब्रेक जैसी मज़बूत और वैसी ही सर्द उँगलियों से

बिना कुछ बोले अन्नूश्का का गला इस तरह दबाया, कि उसके सीने में हवा का जाना

एकदम रुक गया. अन्नूश्का के हाथों से बर्तन छिटककर फर्श पर जा गिरा. कुछ देर

तक अन्नूश्का को बिना हवा दिए जकड़कर, सफेद जैकेट वाले विदेशी ने उसकी गर्दन

से उँगलियाँ हटा लीं. हवा में साँस लेकर अन्नूश्का मुस्कुराई.

 “ओह, नाल,” वह बोली, “अभी लो! तो यह आपकी नाल है? मैंने देखा, कि रूमाल में

कुछ बँधा पड़ा है...मैंने जान-बूझकर उठाया, जिससे कोई दूसरा न उठा ले, और फिर

ढूँढ़ते फिरो!”

रूमाल और नाल लेकर विदेशी उसका झुक-झुककर अभिवादन करने लगा. वह उसका

हाथ अपने हाथों में लेकर विदेशी लहजे में बार-बार उसे धन्यवाद देने लगा.

 “मैं आपका तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ! मुझे यह नाल किसी की यादगार होने के कारण

बहुत प्रिय है. इसे सँभालकर रखने के लिए मुझे आपको दो सौ रूबल देने की आज्ञा

दें.” और उसने फौरन अपनी जेब से पैसे निकालकर अन्नूश्का को थमा दिए.

वह बेसुध होकर मुस्कुराने लगी और चिल्लाकर कहने लगी, “ओह, मैं दिल से आपका

शुक्रिया अदा करती हूँ! धन्यवाद! धन्यवाद!”

वह निडर विदेशी एक ही छलाँग में पूरी सीढ़ी फाँद गया, मगर ओझल होने से पहले

वह नीचे से साफ-साफ चिल्लाया, “तुम, बूढ़ी चुडैल, अगर आइन्दा पराई चीज़ को हाथ

भी लगाओ तो उसे पुलिस में दे देना! अपने सीने से छिपाकर मत रखना!”

आँगन में अब कार तैयार थी. मार्गारीटा को वोलान्द की भेंट वापस देकर अज़ाज़ेलो

उससे बिदा लेने लगा. उसने पूछा कि उसे बैठने में कोई तकलीफ तो नहीं हो रही.

हैला ने मार्गारीटा का प्रदीर्घ चुम्बन लिया. बिल्ला उसके हाथ के निकट लोट गया.

बिदा देने वालों ने हाथ हिलाकर कोने में बेजान-से, निश्चल-से लुढ़के मास्टर से विदा

ली, चालक कौए की ओर देखकर हाथ हिलाया और फौरन हवा में पिघल गए. उन्होंने

सीढ़ियों पर चढ़कर जाने का कष्ट उठाना मुनासिब नहीं समझा. कौए ने बत्तियाँ जलाईं

और मुर्दे की तरह सोए पड़े आदमी की बगल से होकर गाड़ी प्रवेश द्वार से बाहर

निकाली. और बड़ी काली कार की बत्तियाँ चहल-पहल और शोरगुल वाले सादोवाया की

बत्तियों में मिल गईं.

एक घण्टे बाद अर्बात की एक गली के तहखाने में स्थित उस छोटे-से मकान के

अगले कमरे में, जहाँ सब कुछ ठीक वैसा ही था, जैसा पिछले साल की जाड़े की उस

भयानक रात के पहले हुआ करता था, मखमली टेबुल क्लॉथ से ढँकी मेज़ पर शेड

वाला लैम्प जल रहा था, पास में ही फूलदानी लिली के फूलों से सजी हुई

थी, मार्गारीटा खामोशी से बैठी खुशी और झेली गई तकलीफों के दुःख के मारे रो रही

थी. आग में झुलसी पाँडुलिपि उसके सामने पड़ी थी, साथ ही साबुत पांडुलिपियों एक

ऊँचा गट्ठा भी पास में पड़ा था. बाजू वाले सोफे पर अस्पताल के गाउन में ही लिपटा

मास्टर गहरी नींद में सो रहा था. उसकी साँसें भी बेआवाज़ थीं.

जी भरकर रो लेने के बाद मार्गारीटा ने साबुत पांडुलिपि उठाई. उसने वह जगह ढूँढ़

ली जिसे वह क्रेमलिन की दीवार के पास, अज़ाज़ेलो से मुलाक़ात होने के पहले पढ़

रही थी. मार्गारीटा को नींद नहीं आ रही थी. उसने पांडुलिपि को इतने प्यार से

सहलाया मानो अपनी प्रिय बिल्ली को सहला रही हो. उसे हाथों में लेकर उलट-

पुलटकर देखने लगी, कभी वह प्रथम पृष्ट को देखती, तो कभी अंतिम पृष्ट को.

अचानक उसे एक ख़ौफ़नाक खयाल ने दबोच लिया, कि यह सब केवल जादू है, कि

अभी पांडुलिपियाँ गायब हो जाएँगी, कि वह आँख खुलते ही अपने आपको अपने

शयनकक्ष में पाएगी और उसे अँगीठी सुलगाने के लिए उठना पड़ेगा. मगर यह उसके

कष्टों की, लम्बी यातनामय परेशानियों की प्रतिध्वनि मात्र थी. कुछ भी गायब नहीं

हुआ, महाशक्तिमान वोलान्द सचमुच सर्वशक्तिमान था, और मार्गारीटा कितनी ही

देर, शायद सुबह होने तक, पांडुलिपि के पन्नों को सहलाती रही, जी भरकर देखती

रही, चूमती रही, और बार-बार पढ़ती रही:

 “भूमध्य सागर से मँडराते अँधेरे ने न्यायाधीश की घृणा के पात्र उस शहर को दबोच

लिया...हाँ, अँधेरा...

  


अब समय हो गया है पोंती पिलात और येरूशलम लौटने का!


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