अधूरी

अधूरी

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माँ को सब बाँझ कहते थे जबतक मैं नहीं हुई थी। मेरे होने के बाद उसे किन्नर की माँ। इससे अच्छा वो बाँझ ही रहती। 

माँ ने बारह साल मुझे सीने से लगाये रखा। एक माँ के लिए उसका बच्चा सिर्फ बच्चा होता है और कुछ नहीं। पापा हर वक़्त ज़लील होते जब जब मैं उनके सामने आती या वो शब्द जब जब उनके कानों में किसी के द्वारा कहा जाता। माँ की दुर्दशा मेरे होने के बाद बढ़ गई थी। मुझे माँ की ये दशा नहीं देखी जा रही थी और माँ को, मेरी हालात जब ऐसी हो तो ममता से आसान मजबूरी चुनना हो जाता है। मैं अधूरी तो थी ही..माँ से अलग होकर मुझ में कुछ बचा ही नहीं। जब भी अपना वजूद जमाने में ढूंढती तो घृणा और दया.. यही मिलता रहा। जब हिस्से में यही लिखा हो ये समझ आ जाये तो जीना आसान हो जाता है। मैंने मुझ जैसों के साथ जीना सीख लिया। 

सुना है आज उस घर में मेरा भाई हुआ है। मेरे चाचा का लड़का। सब दुआएँ देने जा रहे हैं और बदले में बख्शीश लेने। मैं भी साथ चल दी अपना हक़ लेने, भाई को देखने का उसे दुआ देने का। सब बहुत खुश हैं घर में, दादी,चाचा-चाची, पापा सब। क्यूँ ना हो कितने सालों बाद इस घर में एक पूरा जो पैदा हुआ है। हमारे समूह की सिवानी सबसे पहले गईं

"इक्कीस हज़ार से कम ना लूँगी" पापा को देख मैं बानो के पीछे छुप गई

"हाँ बिलकुल देंगे, पहले थोड़ा गाना और अच्छे से ढोलक बजा कर दुआ तो दो"

पापा बहुत खुश थे। बारी बारी से सब भाई को गोद में लिए दुआ दिलाते और पैसे देते। पहले दादी, फिर पापा फिर चाचा फिर चाची। जैसे ही माँ दिखी मेरे आँखों से आँसू बह निकला "अरे मनहूस! तू हाथ मत लगा, बाँझ औरत..दूर हो जा" पापा और दादी आज भी माँ के साथ इस तरह बर्ताव करते हैं। मुझसे देखा ना गया। मैं बानो के पीछे से निकल कर आई "ये बाँझ नहीं है!..मेरी माँ है" मैं रोते हुए माँ से लिपट गई। पापा का चेहरा मुझे देख सफेद पड़ गया था। वो माँ को इसलिए आज भी बाँझ कहते हैं क्योंकि उन्होंने कभी मुझे अपनी ज़िंदगी का हिस्सा समझा ही नहीं। माँ मुझसे लिपटी हुई थी। तभी तालियां बजनी शुरु हुई। सिवानी, बानो और सबने हमें घेर लिया

"ये सिर्फ तेरी माँ नहीं हम सबकी माँ है..आज तो दुआएं देने आए थे हम, पर इस माँ की आँखों में कभी आँसू आया तो हम सब फिर आएंगे पर दुआ देने नहीं...याद रखना!"

सच कहूँ तो माँ के गले लग कर कभी लगता ही नहीं कि मैं....अधूरी हूँ..!




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