Dr.rekha Saini

Inspirational

4.5  

Dr.rekha Saini

Inspirational

आत्मसम्मान

आत्मसम्मान

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सुधा को राष्ट्रीय मंच पर पुरस्कार प्राप्त करने के लिए आमंत्रित किया गया। समाज सुधार के प्रयास और समाज की सेवा का जो कार्य उसने किया उसके लिए नामांकित किया गया था। मंच पर सुधा को शाल व प्रशस्ति पत्र के साथ ट्रॉफी से सम्मानित किया गया। मंच को धन्यवाद देकर जैसे ही सुधा अपने स्थान पर बैठी उसने देखा सभागार में उसकी सीट से 2 सीट छोड़कर बैठा आदमी उसे लगातार देख रहा था। उसकी आँखों में पश्चाताप के आँसू भरे थे। वह आदमी कोई और नहीं सुधा का पति था, परंतु सुधा उसे अनदेखा कर मंच पर सामने देखने लगी। धीरे-धीरे सुधा के सामने चलचित्र की भांति एक के बाद एक घटनाएं चलने लगी और सुधा पूर्णतया अतीत में खो गई। 

  कैसी स्याह घनी रात के अंधेरे में महेश शराब पी कर लौटे थे। मैं उनके इंतजार में बिना खाए टेबल पर ही सिर झुकाए बैठी थी। तभी डोरबेल ने मेरी तंद्रा तोड़ी, मैंने देखा, महेश सर्द रात मुँह में शराब की बू लिए तुम? तुमने आज फिर शराब पी है? नहीं अमृत पीकर आ रहा हूँ। हटो! रास्ता छोड़ो, अंदर आने दो सुधा के लिए यह कोई नई बात नहीं थी परंतु आज तो हमारी शादी की सालगिरह है, सुधा ने कितने मन से महेश का मनपसंद केक खुद घंटे मेहनत कर बनाया था, आज सुधा महेश को खुश खबरी भी सुनाने वाली थी, खैर। सुधा परिस्थिति समझ महेश को संभालने लगी। महेश ने नशे में सुधा को तेज धक्का मारा। सुधा का संतुलन बिगड़ गया। सुधा गर्भवती थी और खुद को संभाल न सकी। सिर के बल जमीन पर गिर गई। महेश बिना उसे उठाए और देखे अपने कमरे में चला गया। सुधा को बेहोशी छाने लगी। घर का दरवाजा खुला रह गया। 

  जब सुधा को होश आया तो उसने स्वयं को अस्पताल के बेड पर पाया। सुबह हो चुकी थी। सुधा ने देखा। उनके पड़ोसी मिस्टर एंड मिसेज शर्मा सामने बैठे थे। सुधा बोली "मैं यहाँ और आप लोग कैसे"? सुधा को फिर चक्कर आने लगा। मिसेज शर्मा बोली, "तुम आराम करो सुधा! कल रात हम पार्टी से लेट आए थे तुम्हारे घर का दरवाजा खुला देखा लाइट जली थी। हमें लगा इतनी रात को लाइट कैसे? फिर हम तुम्हारे घर पर आए। तुम्हें वहाँ फर्श पर पड़े देखा, तुम्हारे सिर पर चोट लगी थी। हमने तुरंत अस्पताल लाना उचित समझा। मिस्टर महेश को हमने फोन किया पर उन्होंने फोन रिसीव नहीं किया। हम लोग क्षमाप्रार्थी हैं, बिना पूछे आपके घर में घुसकर…….।" सुधा, "अरे! नहीं, नहीं, इसमें माफी की आवश्यकता नहीं है।" सुधा की आँखों में आँसू देख मिसेज शर्मा सब समझ गयी। मिसेज शर्मा बोली," हमें माफ कर दीजिएगा, हम आपके बच्चे को……..बचा नहीं सके।" सुधा सुनकर सन्न रह गई। उसके पैरों तले से जैसे जमीन खिसक गई हो। आँखों से गंगा- जमुना बह निकली। सुधा को तेज पसीना आ गया और चक्कर आने लगे। डॉक्टर को बुला कर दिखाया गया। डॉक्टर ने आराम करने की सलाह दी और घर जाने को कहा। मिस्टर एंड मिसेज शर्मा सुधा को घर ले आए तो देखा महेश क्रोध में जला भुना बैठा था। उसे कल की बात का कोई मलाल नहीं था। महेश के लिए कोई नई बात नहीं थी। आए दिन सुधा को यूँ ही शराब के नशे में मारा-पीटा करता था। सुधा को जब उसने देखा तो बोला कहाँ गई थी? मिस्टर एंड मिसेज शर्मा तब तक जा चुके थे। दोनों पति-पत्नी के बीच में बोलना नहीं चाहते थे। सुधा बिना कुछ बोले, अपने दर्द को सीने में दबाए कमरे में चली गई। महेश ने बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए, फिर कहा, "मेरे लिए रात का खाना मत लगाना। मैं आज नहीं आऊँगा।" कहते हुए महेश घर से निकल गया। सुधा महेश का जाना देखते रह गई। हालांकि यह जाना वापस आने के लिए था। पर सुधा ने महेश का जिंदगी से हमेशा के लिए चले जाना स्वीकार लिया था। शादी के 10 साल हो चुके थे। इतने साल बाद गर्भवती होकर भी वह पूर्ण माँ नहीं बन सकी। ना ही अपने पति के लिए पत्नी। पति ने कभी उसे पत्नी रूपी प्रेमिका नहीं माना। हमेशा उसे केवल वासना तृप्ति का साधन मात्र समझा। इतने वर्षों से वह महेश के साथ सिर्फ इसलिए रह रही थी, यह सब कुछ सह रही थी कि शायद बच्चे के जन्म से महेश में परिवर्तन आ जाएगा या मैं उन प्रताड़नाओं को भूलकर वात्सल्य में बह जाऊँगी परंतु गर्भपात ने उसे अंदर से तोड़ दिया था। महेश द्वारा दी गई तन की चोटे तो धीरे-धीरे खत्म हो रही थी, लेकिन मन पर लगे घाव इस घर में रह कर नहीं भर सकते थे। 

सुधा ने घर छोड़ने का फैसला कर लिया। अपने मन के जख्मों को दुनिया से छुपाए सुधा नौकरी की तलाश में निकल पड़ी। महीने भर की भागदौड़ के बाद उसे एक एनजीओ में नौकरी मिल गई। समाज सेवा, महिला सुरक्षा से जुड़े इस संस्था में सुधा ने काम करना उचित समझा। सुधा महेश को भूलने की नाकाम कोशिश कर रही थी। अपने अतीत को वर्तमान से अलग सोच कर काम में लीन रहने लगे। 

सुधा बहुत मेहनती, आत्मविश्वास से भरी, सुंदर और सुशील थी। उसे देख कोई भी आकर्षित हो जाए, सिवाय पति के। सहकर्मी सदैव सुधा को मुस्कुराते देख सोचते कि कितनी खुश मिजाज है सुधा। इसे जिंदगी में जैसे कभी कोई गम था ही नहीं। सुधा से जब लोग उसके परिवार के बारे में पूछते तो सिर्फ इतना ही कहती मेरा एक पति था जो अब नहीं है। लोग सोचते शायद सुधा का पति मर चुका है। इसलिए अब बंधन रहित है इसलिए अपनी मर्जी से जिंदगी जी रही है। पर इन बातों से सुधा को कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह बिना दूसरों की सुनें अपने कार्य में व्यस्त रहती। एनजीओ में आने वाली हर महिला की सुधा मदद करती। उसकी हर समस्या का निराकरण करने का पूरा प्रयास करती भले ही अपनी जिंदगी में, अपना घर न बचा सकी हो, लेकिन आने वाली हर औरत को उचित सलाह देती। मजबूत होने का विश्वास और मदद का हौसला देती, सुधा सबसे अधिक मेहनती थी और हर केस को पूरे मन से सुनकर हल करती। संस्था में सुधा के आत्मविश्वास और मेहनत से सभी लोग प्रसन्न थे। संस्था के कर्मचारियों में विशेष योग्य व्यक्ति को चुनकर राष्ट्रीय पुरस्कार हेतु नामांकन भेजा गया। सुधा का नाम विशेष सविका के रूप में चुना गया था। राष्ट्रीय मंच पर उसे पुरस्कार के लिए जाना था। सुधा स्वयं मंच पर जाने से पूर्व अपने आप को इस पुरस्कार के योग्य नहीं समझ रही थी। "मैं समाज में भले सेविका बनी। महिलाओं को प्रताड़ना न सहने का आत्मबल प्रदान किया। उन्हें रोजगार दिलवाए, लेकिन खुद 10 साल तक अपने पति की प्रताड़ना, प्रत्येक यातना को चुपचाप सहती रही थी।" उसने अपने मन में चल रहे द्वन्द को खत्म कर अपनी संस्था प्रधान को अपनी जिंदगी की हकीकत बताई, उसकी इस दर्द भरी आत्मकथा को सुनकर संस्था प्रधान की आँखों से सहानुभूति की धारा प्रवाहित हो गई। वे बोली, "सुधा तुम्हारे जैसी मजबूत औरत मैंने अपने जीवन के 30 सालों में संस्था में नहीं देखी, जो इतने दुःख सह कर भी मुस्कुरा सकती है। तुमने कभी अपने चेहरे या व्यवहार से किसी को पता ही नहीं चलने दिया कि तुमने समाज के ऐसे पुरुष के साथ जीवन जिया है जो मानवता के नाम पर कलंक है। जो पाश्विकता की सभी हदें पार कर चुका है। तुम धन्य हो सुधा तुमने अपने वजूद, परिवार को खोकर भी दूसरों को बचाने का परिश्रम किया है। इन तीन सालों में तुमने अपनी मेहनत से समाज में नाम पाया है। तुम्हें यह पुरस्कार अवश्य मिलना चाहिए। अब तो मुझे तुमसे विशेष लगाव होने लगा है।" संस्था प्रधान ने सुधा की आँखों से निकल रहे मोतियों को अपने आँचल में समेट लिया और अपनी स्नेहमयी ममता से उसे भिगो दिया। आज पहली बार सुधा जीवन में खुलकर रो सकी थी। अपने दिल के सारे बोझ को खत्म कर चुकी थी। 

  संस्था प्रधान उसके पुरस्कार प्राप्ति को लेकर विशेष उत्साहित हो रही थी। आज जीवन में सच्चे,और सही व्यक्ति को यह पुरस्कार मिल रहा है। उन्होंने सुधा को पुरस्कार प्राप्ति के लिए जाने को कहा। सुधा सभी सहकर्मियों तथा संस्था प्रधान से आज्ञा पाकर राष्ट्रीय मंच पर उपस्थित हुई और पुरस्कार प्राप्त किया।

आज उसे अपने आप से भी कोई शिकायत नहीं रही थी। मैंने भले घर छोड़ा, पति को छोड़ा, घर परिवार सब छोड़ दिया, लेकिन समाज ने मुझे वह सब दिया जो मैं उस घर में खो चुकी थी। मेरा आत्मसम्मान, मेरा विश्वास और मेरा वजूद। 

दूसरी सीट पर बैठा पति उसके चेहरे की कांति को देखकर सहम गया। उसके पास सुधा से कहने को कुछ नहीं था। आखिर में हिम्मत जुटाकर वह सुधा के पास आकर बोला, "मुझे माफ कर दो, सुधा!, मैं माफी के काबिल तो नहीं,लेकिन…..।" उसकी आँखों के पश्चात को सुधा पढ़ चुकी थी। सुधा ने मौन स्वीकृति दी और सभागार से पुरस्कार लेकर अपने घर चली गई। महेश देखता रह गया। महेश जानता था कि उसका अपराध अक्षम्य है। फिर भी वह सुधा से उम्मीद कर रहा था। सुधा ने जाते हुए महेश की तरफ फिर मुड़कर नहीं देखा। अब वह अपना वजूद और आत्मसम्मान पा चुकी थी।



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