आशा
आशा
संध्या हो चली थी पर आज भी वैसे ही कल की तरह खिड़की पर टकटकी लगाए बैठी थी। तभी आवाज आई। आशा ओ आशा। सुनो कहा हो कहती हुई उसकी भाभी बड़बड़ाई। फिर वही बैठी होगी महारानी। मैं तो जैसे घर की नौकरानी हूँ सारा काम तो मेरे जिम्मे है। ओ महारानी आओगी या वही बैठे बैठे आज रात का खाना बन जायेगा।
तुम्हारे भैया आते ही होंगे सब्जी पूरी बना ले कपडे भी पड़े है तह कर लेना और। कहते कहते आशा की भाभी रमा रुक गई। सामने अपनी सहेली शीतल को देखते ही स्वर बदलते हुए बोली। दीदी ओ दीदी आशा दीदी आओ यहाँ देखो तो कौन आया है देखो शीतल आई है। ( रमा और शीतल सहेली है पर दोनों ही स्वाभाव में एक दूसरे से बिलकुल अलग है एक आग तो एक पानी। शीतल रमा की ननद आशा की भाभी थी। )
शीतल एक पल में देखते ही सब समझ गई पर चुप रही रिश्ता ही ऐसा था।शीतल आशा को आते देख उसके गले लगके फूट - फूट के रोने लगी आशा ने उसे थपकी देते हुए शांत कराया और अपनी आँखों के कोरो पर छलक आये हुए आंसुओ को छुपाते हुए बोली आओ शीतल दीदी बड़े दिनों बाद आई भाभी की याद नहीं आई। आई दीदी रोज़ आई तभी तो चली आई। आज उनकी बहुत याद आ रही थी। किसके गले लग के रोती।
तभी तो भाभी आप से मिलने। नहीं नहीं लिवाने चली आई भाभी घर चलो अपने। मुझे पता है आपको भी भैया की याद रोज़ रुलाती होगी। आज पूरा एक साल हो गया। न ही उनके और न ही भैया के युद्ध से न लौटने की खबर आई न ही शहीद होने की। ।अब बस हम दोनों इस आशा में जी रहे कि एक दिन भैया और ये दोनों जरूर लौटेंगे। भाभी क्यों न ये आशा दोनों एक साथ रह के देंखे। आशा दोनों मिलके लगाएंगे तो भगवान को भी हम दोनों की आशा पूरी करनी पड़ेगी चलो न आशा भाभी। रमा कमरे से रसोई घर में बड़बड़ाती हुई चली गई।
लो घर का सारा काम हमे करना पड़ेगा जो जिन्दा ही नहीं उसकी आशा कैसी। ये बातें दोनों के कानो में पड़ गई। आँखों से आंसू छलक पड़े पर आज दोनों की आशा और बढ़ गई।
