आस-कहानी

आस-कहानी

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पंद्रह साल पुरानी बात है, वैष्णो देवी माता के दर्शन की मन में आस लिए भोपाल स्टेशन से मालवा एक्सप्रेस से हम पति पत्नी और अपनी एक अदद बच्ची को साथ लिए पूरे श्रद्धा भाव से जम्मू के लिए निकल पड़े थे। जम्मू से कटरा जा रही बस में अधिकतर भक्तगण ही थे जिनके "जय माता दी, जय माता दी" के जयकारों से वातावरण भक्तिमय हो चुका था। "चलो बुलावा आया है माता ने बुलाया है" डेढ़ घंटे के लिए जो मुरादें हम अपने साथ लेकर आये थे गौण हो चुकी थी और दर्शनों की अभिलाषा ही बची थी। कटरा बस स्टैंड पर उतरते ही किसी की आस भरी नज़र हमारी पांच वर्षीय हलकी फुल्की बच्ची पर टिक चुकी थी। पचास पचपन का ही होगा परंतु हाड़ तोड़ मेहनत और तंगहाली ने समय से पूर्व ही चहरे पर झुर्रियां ला दी थी,मगर बदन में कसावट थी और चहरे पर एक मुस्कान,रोज़ सत्रह किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ता जो था। पास आकर पूछा "पिट्ठू चाहिए?” इससे पहले पिट्ठू क्या होता है मैं भी नहीं जनता था, शायद टट्टू से भी छोटा कोई जानवर होता होगा। मैंने इसीलिए उससे पुछा था "कहाँ है पिट्ठू?” उसने बताया "जी मैं ही हूँ| आपकी बच्ची को कंधे पर बिठाकर ले जाऊँगा।“ अपरिचित स्थान हम अपनी बच्ची को किसी अनजान शख्स के हवाले नहीं करना चाहते थे, मन शंका कुशंकाओं से भर गया था इसलिए उसे मना कर दिया और कह दिया की हमें पिट्ठू नहीं चाहिए हम तो टट्टू करेंगे,मगर उसकी आस नहीं टूटी। लंबी यात्रा के बाद थोड़ी थकावट थी इसलिए पहले दिन होटल में विश्राम करके दूसरे दिन सुबह से चढ़ाई करने का निर्णय लिया। सुबह मतलब जब हमारी सुबह हो जाये। वो नज़र बराबर हम पर टिकी हुई थी, होटल आते जाते, बाजार में, दुकानों पर हर जगह वो आस भरी नज़र हमारा पीछा कर रहीं थी। वज़न को देखकर शायद उसने अपना ग्राहक चुन लिया था और ये सोचकर अंदर ही अंदर खुश भी हो रहा था कि इतनी हलकी बच्ची को लेकर तो वो आसानी आसानी से चढ़ जायेगा,ये मुस्कराहट शायद इसी वजह से हो। मैं आश्चर्यचकित था कि मेरे इन्कार के बावज़ूद उसमे इतना आत्मविश्वास और धैर्य कैसे है और उसका फॉलोअप तो गज़ब का है। मैं एक नामी फार्मास्यूटिकल कंपनी में मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव था और मुझे भी डॉक्टर्स से प्रेस्क्रिप्शन्स निकलवाने के लिए जब उनके क्लिनिक में लंबा इंतज़ार करना पड़ता था तो एक खीज आती थी। प्रतीक्षा ही सबसे दुष्कर कार्य प्रतीत होता था। घंटो बसो में ट्रेन में कभी बैठकर कभी खड़े खड़े होकर गाओं कस्बों में जाना,मगर जब प्रेस्क्रिप्शन्स निकल कर आते थे और केमिस्ट बोलते थे कि तुम्हारा तो बहुत माल उठा रहें हैं तो उत्साह आ जाता था और वो थकान भूल जाते थे और अगले दिन दुगने उत्साह से बिज़नस बढ़ाने में लग जाते थे। उस समय के हिसाब से पैसे भी अच्छे मिल जाते थे। दूसरे दिन भी वो हमारे उठने से पहले ही होटल के बाहर आ कर बैठ चुका था। हम उससे नज़रें चुराकर निकल तो लिए मगर अब उसकी नज़र हमारी पीठ पर गड़ रहीं थी। टट्टू करने से पहले मैं उसके पास गया और पूछा की "अगर तुम मेरी बच्ची को ऊपर तक ले जाते तो कितना लेते?" उसने पचास रूपये बताया। उसके सतत प्रयास और तंगहाली को देखते हुए मैंने उसे पचास रुपये दिए और कहा "ये तुम रख लो,हम तो टट्टू ही करेंगे।“ अगर उस स्थान पर कोई टैक्सी या बस होती तो मेहनतकश इंसान का कोई मोल नहीं होता परंतु यहाँ दो मेहनतकशों के बीच का चुनाव था। दुबले पतले, मोटे ताज़े, युवा, अधेड़, वृद्ध सभी टट्टुओं को ही प्राथमिकता देते हैं, पिट्ठुओं के पास सिर्फ बच्चे ही बचते हैं। इसमें भी टट्टू ही बाज़ी मार रहे थे। बड़े ही अनमने भाव से उसने वो पचास रुपये स्वीकार किये। जो आस हमारे इन्कार के बाद भी नहीं टूटी थी इन पचास रुपयों ने वो आस तोड़ दी थी, अंतिम समय तक शायद उसे उम्मीद थी की हम अपना निर्णय बदल देंगे। वो मुस्कान गायब हो चुकी थी,ऐसा लगा जैसे उन पचास रुपयों की उसे सख्त ज़रुरत तो थी किन्तु मैंने उसका मोल एक कागज़ के टुकड़े के बराबर कर दिया हो,जैसे सत्रह किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ कर ऊपर ले जाने की मेहनत ही उसके लिए सोना थी वो अब मिटटी में तब्दील हो चुकी थी, उसकी सारी आशाओं पर पानी फिर चुका था, उसके सतत प्रयासों का फल जैसे कसैला हो चुका हो। भोपाल वापस लौट कर मैं कंपनी के कामकाज में लग गया और उस पिट्ठू को भुला दिया। साल दर साल कंपनी के टारगेट्स सुरसा के मुह जैसे बढ़ते जा रहे थे, अब स्काई इस द लिमिट नहीं थी वो उससे आगे भी कुछ देखने लगे थे। गेट समझोता लागू होने के बाद कम्पनीज में आपस में ही गला काट प्रतियोगिता शुरू हो चुकी थी। मनेज़र्स पर गाज़ गिरने लगी थी। मैं भी अब तक मैनेज़र बन चूका था। पांच वर्ष पश्चात् उल जुलूल इलज़ाम लगाकर चार्जशीट तैयार की गयी और पी.एफ़. और कॉम्पन्सेशन दे कर त्यागपत्र ले लिया गया। ये कॉम्पेन्सेशन लेते वक़्त मुझे खुद अपना चेहरा भी उस पिट्ठू की तरह नज़र आया। आज भी वो नज़र मेरा पीछा करती हैं और पूछती हैं कि "आपने मुझसे मेरी मेहनत क्यों छीन ली?” मगर ये बात ना वो मुझसे ना मैं कंपनी से बोल पाया।

 


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