आखिरी आदमी
आखिरी आदमी
पत्थर तोड़ता वह आखिरी आदमी क्या नहीं सोचता होगा अपनी जिंदगी की बंजर जमीं में असंख्य ख्वाहिशों के बीज बोकर उर्वरक फसल काटने की ? ख्वाहिशों के मुकम्मल होने के लिए शायद माकूल ज़मीं का होना जरूरी है जो असंभव है उस आखिरी आदमी के लिए जिसकी किस्मत की रेक पत्थर, बजरी, ईंट व हथौड़े के बीच चोटिल हो हारकर, सहम कर सिमट गयी हैं। उस आखिरी आदमी की हथेलियों में वापस सिलवट बनकर..
वह आखिरी आदमी इतना बेपरवाह भी तो नहीं कि दर ब दर भटक कर ख्वाहिशों के दरवाजे पर दस्तक दे.. अपनी उधड़ी, धूल अटी चारदीवारी में ढूंढ़ता है विकल्प स्वयं को इंसान घोषित करने का सामाजिक नक्शे पर। विकल तो है मगर असंम्भवनाओं की खुरदरी मिट्टी पर बैठकर स्वयं को तैयार रखता है अंधकार में भी संभावनाओं की शलाका को जलाने के लिए। आखिरी अंत नहीं बुनियाद है किसी उन्नति की प्रारंभिकता की ..किसी भग्न सभ्यता और इंसान के पुनर्नवा की.. देखो..!
तभी तो देह को थकाकर सुकून भरी नींद सोता है वह सब कुछ हाशिये पर रख ..जब वह रेडियो पर फिल्मी व प्रादेशिक गाने सुनता है अपनी मनपसंद के..
