आज वा कल
आज वा कल
बात सन् १९६१के दशक की है।जब सुनंदा ब्याह कर इस घर में आई,तो यहाँ का माहौल बहुत ही आनंददायी था । सासू माँ नें आरती उतारी और बहू को पालकी से नीचे उतार कर घर के अंदर ले आई । घर की सयानी महिलाओं ने कई पारंम्परिक रस्मोंरिवाज करवाये। सुनंदा नें भी उत्साहित होकर सिर में आँचल डालकर सभी सयानों के पैर छुये उनसे आर्शीवाद लिया । ननंदो की चुहलों से वह भाव विभोर हो गई ।
सुनंदा ने जैसे ही मैट्रिक पास किया तो पिता रामशरण दुबे को बिटिया के विवाह की चिन्ता हो आई।पास के ही कस्बे में रहने वाले आलोक नाथ मिश्रा के बारे में उन्हे पता चला की वे एक प्रतिष्ठित व्यक्ति है ।और उनका लड़का विवेक मिश्रा कालेज की पढ़ाई पूरी कर रेलवे में नौकरी पर लग गया है। रामशरण दुबे उनके यहाँ पहुँच गये। आलोक मिश्रा ने भी अधिक ना-नुकुर नही की आखिर उन्हे भी तो पुत्र का विवाह करना ही था।सो सुनंदा और विवेक का विवाह धूम धाम से संपन्न हो गया ।
सुनंदा धीरे- धीरे उस घर की अहम सदस्य हो गयी । सुनंदा सब काम बड़ी मुस्तैदी से करती ; सास ससुर की दिनचर्या वह समझ चुकी थी। उसी के अनुसार चाय-नाश्ता और भोजन की व्यवस्था करती विवेक तो मनों निहाल हो गया था सुनंदा को पाकर उसकी माँ को आराम जो मिल गया था सुनंदा के आने से।
उस समय की मैट्रिक की पढ़ाई भी ठोस मानी जाती थी अतः विवेक की माँ नें आस -पड़ोस की तीन -चार बच्चियों को ट्यूशन पढ़ानें के लिये सुनंदा को राजी कर लिया था । विवेक और उसके पिता को कोई एतराज ना था।
समय चक्र घूमता रहा आलोक मिश्रा का आंगन भी बच्चों की किलकारी से भर गया । सुनंदा को एक बेटा हुआ और कुछ समय अवधि के बाद एक पुत्री हुई ।समय की पाबंध सुनंदा बच्चों का पालन -पोषण ढंग से करती रही ।विवेक भी बच्चो से लगाव रखते । उन्होंने अच्छे स्कूल में बच्चों का दाखिला करवाया ।यद्यपि जिम्मेदारी बढ़ जानें के कारण सुनंदा अब थकान सी महसूस करनें लगी थी
इस नवरात्रि पर्व पर विवेक ने सुझाव रखा की देवी दर्शन के लिये सभी लोग मैहर चलें। सुनंदा की तबियत ठीक ना होने के कारण उसनें असमर्थता जाहिर की तो विवेक अपने माता-पिता वा बच्चों को लेकर अपनी कार से मैहर के लिये निकल गये।
सुनंदा घर में साफ -सफाई में लगी थी की उसे पुलिस द्वारा सूचना मिली मैहर से लौटते समय विवेक की कार का एक्सीडेंट हो गया है । बच्चों की हल्की चोट लगी थी किन्तु विवेक और उसके माता-पिता मृत हो चुके थे।सुनंदा के साथ यह बड़ी त्रासदी हो गयी थी ।कुछ दिन तो वह जड़वत सी रही ।विवेक और उसके माता -पिता के अंतिम संस्कार के समय जो परिजन आये थे वे अपनी-अपनी तरह से समझाईस देकर चले गये ।सुनंदा नें अपने को संभाला बच्चो की शिक्षा जारी रखी घर में खाने पीने की कमी ना थी। फिर रेलवे से उसे पेशन भी मिलने लगी।बेटी प्रभा तो अपनी माँ के समान ही मर्यादित और मितभाषी थी ।घर के काम में माँ का हाथ बँटाती ।किन्तु बेटा प्रकाश बेबाक होने लगा था। कभी मोबाईल की कभी महँगे जूतों की फरमाईश करता तो कभी यार दोस्तों के साथ बाहर घूमनें जाने की जिद करता सुनंदा को लगनें लगा था की बेटा दिशाहीन हो रहा है ।
समय बीतता रहा प्रभा नें काॅलेज पास किया तो सुनंदा नें बिरादरी की सलाह से रिश्तेदारी में ही एक अच्छे लड़के से उसका विवाह कर दिया ।प्रकाश नें भी किसी तरह काॅलेज पास किया तो उसे पिता की जगह नौकरी मिल गयी ।नौकरी के वजह से ही उसका विवाह तय हो गया। प्रभा के ससुराल जाने के बाद घर सूना सा हो गया था। सो सुनंदा नें जी जान से विवाह की तैयारी की और प्रकाश की दुल्हन घर आ गयी ।
कुछ दिनों के बाद प्रकाश की दुल्हन श्वेता जिंस शर्ट पहन कर सुबह सबेरे तैयार होकर प्रकाश से बोली- "सुनो जी! माॅर्निंग वाॅक पर चलते हैं मुझे आदत है सबेरे वाॅक पर जाना ।" प्रकाश ने तुरंत हामी भर ली इसलिये कि उसे माँ की गुमशुम मर्यादित दिनचर्या राश नही आ रही थी । कुछ दिन बीते रात का डिनर ,सैर सपाटे सब कुछ होनें लगा ।अगर घर में हैं तो टीवी या मोबाईल देखते हुए हँसी ठिठोली करना ।सुनंदा को इन सब से बड़ी उक्ताहट होती पर वह चुप ही रहती ।
एक दिन प्रकाश और श्वेता सिनेमा देखकर देर रात को लौटे तो सुनंदा नें प्रकाश से कहा "बेटा! बहु को लेकर देर रात तक बाहर रहना ठीक नही ।" श्वेता पहले बोल उठी "माँ जी वह 'आपका कल का जमाना ' नही रहा ।सहमी सिमटी सी जिंदगी नर्क जैसी ।आज हमारा जमाना है खाओ पियो घूमों फिरो और खुल के जियो" प्रकाश भी श्वेता का साथ देता हुआ हँसने लगा फिर बोला -माँ तुम व्यर्थ की टोका-टोकी मत किया करो जाओ अपने कमरे में आराम करो सुनंदा रुआसी होकर अपने कमरे मे चली गयी।
एक दिन प्रकाश आफिस से अभी तक ना लौटा था रात के आठ बज रहे थे ।श्वेता फोन में जोर जोर से चिल्ला रही थी ।शायद क्लब जाने का प्रोग्राम बना था जो कि प्रकाश के लेट होने से मिस हो गया था थोड़ी ही देर मे प्रकाश ने दरवाजा खटकटाया और अंदर आया ।सुनंदा भी दबे पाँव आकर कमरे के बाहर खड़ी हो गयी यह जाननें के लिये की प्रकाश के देर से लौटने की वजह क्या थी तभी श्वेता भी किचन से अपने कमरे की ओर गयी ।
सुनंदा तेजी से वापस लौटी तो कोने में रखा फूलदान धक्का लगने से गिर गया और टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। श्वेता जो पहले से ही गुस्से में थी; फूलदान टूटने से उबल ही पड़ी चीखते हुए बोली - "जाने कब तक जियेगी यह बुढ़िया । रात में भी ताक झांक करने आ जाती है ।" प्रकाश भी चिल्लाया "क्यों परेशान करती हो हमें ।अपने काम से काम रखा करो" सुनंदा दुबकी सी सबकुछ सुनती रही फिर अपनें कमरे मे आ गयी ।आज विवेक उसे बहुत याद आ रहे थे । कितना प्यार और दुलार उन्होंने दिया साथ ही सम्मान भी आज अपनें ही बेटा बहू से जलील हो रही है ।रात-भर सो ना सकी वह ।
सबेरे प्रकाश उसके कमरे में आया सुनंदा बिस्तर में उठकर बैठ गयी ।सोचने लगी शायद रात की बातों के लिये माॅफी माँगनें आया होगा ।प्रकाश से बोली -बेटा आज टहलनें नही गये क्या प्रकाश ने कहा "नही माँ मेरा ट्राँसफर दूसरे शहर में हो गया है अतः कल ही मुझे जाना होगा ।मै सोचता हूँ तुम अकेले कैसे रहोगी ।यहँ शहर में बुजुर्गों के लिये एक नया आश्रम बना है वहाँ सब सुविधायें हैं । मैं तुम्हें वहाँ छोड़ आता हूँ मुझे जब भी समय मिलेगा आता -जाता रहूँगा।" पीछे-पीछे श्वेता भी आ गई स्वर में विनम्रता लाकर बोली-"हाँ माँजी मुझे बताईये कौन से कपड़े आपके बैग में रख दूँ ताकी आपको कोई परेशानी ना हो. आप नहा धोकर तैयार हो जाईये" श्वेता किचन में खाना बनाने चली गयी उन लोगो के कमरे से जाने के बाद सुनंदा खूब सिसकियाँ भरकर रोई फिर उसनें दिवाल से विवेक की फोटो उतारी और मन ही मन बोली -"ठीक है विवेक "तुम्हारे कल के आशियाने को छोड़ आज के नये आश्रम में जा रही हूँ मुझे क्षमा करना।"
प्रकाश और श्वेता दोनो सुनंदा को आश्रम में छोड़ने आये ।जाते समय दोनों ने प्रसन्न चित्त से माँ के पैर छुये ।सुनंदा नें आर्शीवाद दिया हाँ बेटे तुम लोगों के लिये मैने घर छोड़ा है उसी तरह यह आश्रम भी तुम लोगो के लिये खाली कर दूँगी। आखिर यहीं तो आना है तुम लोगो को भी ।
