आदमी कहीं का

आदमी कहीं का

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"ये 'गधा कहीं का' क्या होता है?" बच्चे ने बड़ी
मासूमियत से पूछा।

हमने कहा, "बेटा! यह गाली होती है।"

"ये गाली क्या होती है?" उसने फिर उसी  मासूमियत से पूछा, "आप हमेशा गाली देने को मना करते है- क्या यह देखने में बहुत बुरी होती है? बताओ न कैसी होती है?"

बच्चे ने ज़िद की। एक बारगी तो हम सन्न रह गए, लेकिन बच्चे की जिज्ञासा को शान्त करना भी हमारा
परम कर्तव्य है, यह सोच कर हमने दिमाग को ज़रा-सा
झटका दिया,फिर बच्चे को गाली की परिभाषा कुछ यूं
बताई, "बेटा! जब हमें किसी की कोई बात अच्छी नही लगती तो उस पर क्रोध स्वरूप हमारे श्रीमुख से जो फूल झरते हैं- उन्हें गाली कहा जाता है।"

"जब यह फूल जैसी होती है तो आप इसे गंदी क्यों कहते हैं?" बच्चे ने अगला प्रश्न दागा ।

हमने उस बालमन को बड़े प्यार से समझाया, "बेटा! चूंकि गुस्सा करना बुरी बात है, इसलिए गुस्से में कही गई बात भी बुरी ही होगी। इस प्रकार गुस्से में हम किसी को कुछ कहेंगे, अपशब्दों का प्रयोग करेंगे तो उसे बुरा लगेगा। गुस्से में हमेशा दूसरों के लिए अपशब्द ही निकलते हैं। अतः किसी का अपमान न हो इसके लिए गुस्से को पी जाना ही बेहतर होता है।"

हम सदियों से इंसान की हरकतों की वजह से उसकी तुलना जानवरों से करते आए हैं मसलन गधा कहीं का, कुत्ता कहीं का, गिरगिट कहीं का, सूअर कहीं का, बंदर कहीं का। मोटी भैंसिया बुद्धि, कुत्ते की दुम वगैरा वगैरा....। हमें तो कुत्ते व गधे में कोई बुराई नज़र नहीं आती बल्कि गुण ही गुण नज़र आते है। बेचारे मेहनती हैं, ईमानदार हैं, वफादार हैं। इस हिसाब से तो 'कुत्ता कहीं का' व 'गधा कहीं का' इत्यादि काफी सम्मानजनक शब्द है। बस केवल पशुत्व के द्योतक है। फिर इंसान व जानवर की भावनाएं व जरूरतें भी कोई ज़्यादा भिन्न तो हैं नहीं। जानवर रोटी ,मांसाहार व चारा खाता है- इन्सान की खुराक भी यही तो है। दोनों को ही समान रूप से आराम की ज़रूरत है। इंसान अपना गुस्सा चींख- चिल्लाकर, गाली देकर व्यक्त करता है, जानवर को भी तो गुस्सा व्यक्त करने के लिए काटना, भौंकना या हेंचू-हेंचू करना या इसी प्रकार की विभिन्न ध्वनियां निकालनी पड़ती हैं। वह अपनी बोली में क्या
गाली देता- यह तो शोध का विषय है।
वैसे हो सकता है जिस प्रकार हम 'गधा कहीं का' बड़े आसानी से कह देते हैं; गधा व कुत्ता 'आदमी कहीं का' कहते हों। इस बात की पूरी पूरी संभावना नज़र आ रही है हमें।
अब एक गिरगिट दूसरे गिरगिट को रंग बदलते देखकर 'गिरगिट कहीं का' तो कहेगा नहीं। चूंकि यह कला उसके अलावा केवल आदमी के पास है अतः उसका 'आदमी कहीं का' कहना ज़्यादा तर्क संगत लगेगा। छीना झपटी उछल-कूद व बंदर-बांट में माहिर बंदर भी अपने अनुजों को ही तो गाली में प्रयुक्त करेंगे न! क्योंकि ये सारे गुण अनुज होने के नाते आदमी में ज़्यादा उग्र स्वरूप में विद्यमान है, अतः 'आदमी कहीं का' कहना उनका जन्म सिद्ध अधिकार है।

भेड़िए व लोमड़ी की चालाकी, धूर्तता, आंखों में सुअर का बाल, सर्प की चाल, खरगोश की सी तेज दौड़, कुत्ते की तरह हिलती दुम, कौए व चील की सी नोच, क्या नहीं है आदमी के पास? सभी गुण उन जानवरों के अलावा केवल आदमी नाम की जाति के पास ही तो है, फिर आदमी कहीं का कहना शत प्रतिशत उचित ही है।
आज तक तो हम अपने इंसान होने पर गर्व करते आए थे- सोच रहे थे कि प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना को कोई क्या कह सकता है? लेकिन अब शोध करने पर सारी बात साफ-साफ नज़र आ रही है कि हम पशु को हेय समझते रहे और वह आदमी को हेय समझ कर अवश्य कहता रहा होगा "आदमी कहीं का"।
सर्व श्रेष्ठ होने के जुनून में इंसान ने अपने ही भाई-बंधों को गुलाम बनाकर रखा। उनसे जी तोड़ काम लेते रहे किन्तु अब चिंता की कोई बात नहीं है। दुनिया भर की पशुप्रेमी संस्थाओं के सौजन्य से इन पर होने वाले अत्याचार खत्म करने व इन्हें इनका असली हक दिलवाने का प्रयत्न जारी है। हो सकता है उन्हें 'आदमी कहीं का' कहने की खुली छूट मिल जाए व आदमी के 'कुत्ता' व 'गधा कहीं का' इत्यादि कहने पर पाबंदी लग जाए। न मानने पर जेल भी होने की संभावना है। हो सकता है कान पकड़ कर उठक-बैठक लगाकर माफी भी मांगनी पड़े।
हम सब कुछ स्पष्ट देख पा रहे हैं कि कलियुग में उठते वैचारिक स्तर, भ्रष्ट- आचार, नैतिक -उत्थान,
ई......मानदारी इंसान को सर्वश्रेष्ठ से जल्दी ही सर्व हेय रचना में तब्दील करने जा रही है। व नौबत तो यहां तक आने वाली है कि जानवर भी उसे खुल्लमखुल्ला गाली देने पर आमादा होंगे- "आदमी कहीं का" कहकर। हम तो बस शोध के परिणाम तक पहुंच कर यही कह पाएंगे कि- भैया आदमी! अब भी वक्त है चेत जा, वरना एक दिन वह आएगा जब तेरी रही सही, बची खुची इज्जत भी जानवरों में सरे आम नीलाम हो जाएगी।

 


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