STORYMIRROR

Anita Singh

Abstract

4  

Anita Singh

Abstract

ज़ख्म

ज़ख्म

1 min
599

ज़ख्म कुछ ऐसे मिले हैं दिल को,

कि लाइलाज सा लगता है,

जितना मरहम लगाती हूँ, 

उतना ही दर्द सा उठा है।


समझाऊँ इसे भी तो क्या, 

समझाऊँ इसे भी तो क्या

अब हर दावा

नाकाम सा लगता है,


सहना भी है, चुप रहना भी है,

कहना भी है, और सुनना भी है, 

अब सब कुछ धुआँ

धुआँ सा लगता है।


ना जी पा रही

और ना सह पा रही,

हर एक लम्हा जिंदगी से

छूट रहा सा लगता है।


क्या उम्मीद इस

मतलबी दुनिया से करूँ,

हर खुशी देकर छिनना जैसे

उसकी आदत सी बन गई है ,


हर दर्द को बढ़ाकर

मुझे परखना उसकी

फितरत सी बन गई है।


चल तू भी खुश हो ले

मेरे इस हाल को देखकर

मैं भी तेरी हर कसौटी पर

उतरती जाऊँगी,


जो जख्म तू मुझे

इस बार दे रहा है, 

अब इसे मैं अपनी

रूह में सजाऊंगी।


अब इस जख्म को मैं

अपनी रूह में सजाऊंगी।


Rate this content
Log in

More hindi poem from Anita Singh

Similar hindi poem from Abstract