ज़िंदगी
ज़िंदगी
ज़िंदगी तू अजीब है तेरे शहर में कब छाओं कब धूप है...
कभी खुशी की तितलियां तेरे शहर के फूलों पर मंडराती है...
तो कभी ग़मो की बिजलियां तेरी बस्ती पर क़हर बरसाती है...
तू होती है तो कोई चाहत नहीं होती जीने की...
तू जाती है तो जागती है हसरत जीने की...
ज़िंदगी कुछ पूछना है तुझसे क्या तू बताएगी?
ज़िंदगी जीने का सबक तू मुझे सिखायेगी?
उलझा हूँ तुझे सुलझाने की उलझन में...
उलझा हूँ तुझे समझने की उलझन में...
चाहत बस यही है तुझे समझ जाऊँ...
ए ज़िंदगी तुझे ऐसे जियूँ के मर कर भी जिये जाऊ...