ये कविता कैसे लिखते हैं
ये कविता कैसे लिखते हैं


कभी लिखने का भी सोचा है,
वो बोले ऐसे
हाँ सोचा है, मत पूछो कैसे।
तो क्या लिखना है
और कब लिखना है
जो भी लिखना है वो तय नहीं है
जो तय है वो कि अब लिखना है।
तुम खुद का लेखन देख के पढ़ते
क्या याद नहीं ख़ुद क्या लिखते हो ?
तुम अपने अक्षर खुद भूले हो
ये जो भी है, तुमने ही लिखा है ?
हम्म, हाँ देखूँगा मैंने जो लिखा है
अरे मेरी है, मैंने ही लिखा है
पूछ लो बल्कि इस काग़ज़ से
रात में थी वो किसके घर पे,
कह देती सब सच वो तुमसे।
पर बदनामी का डर उसको है,
ग़र काग़ज़ मेरी डर जाएगी
क्या ख़ाक कभी फिर लिख पाऊँगा
कलम है स्याही से वंचित जो,
क्या ख़ाक कभी उसे भर पाऊँगा।
कहते हैं मसरूफ वो लेखक,
लिख ना सका तो मर जाऊँगा,
हाँ देखूँगा फिरसे काग़ज़ को
मान लो मेरी इस आदत को।
कितनों ने कहा तुम कायर हो
तुम मजबूरी मे शायर हो,
मैंने भी कहा है झूठ ये सादा&nb
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शायर हूं तो कायर नहीं,
ग़र कायर हूं.. तो शायर नहीं।
मैं बिंदू हूं, तुम रेखा हो
मैं बारिश हूं, तुम मेघा हो
फिर पन्ना पलटो काग़ज़ का,
अगले पे लिखा सच लालच का।
लालच बिल्कुल सही बला है,
इसमे सबका मन बहला है,
लालच तन की, लालच मन की,
घोर है निंदा बहरेपन की।
जब बहरे नहीं तो सुन लो ना फिर,
सुन लोगे, खुश हो जाऊँगा,
हाँ देखूँगा फिर से काग़ज़ को
मान लो मेरी इस आदत को।
ये कुर्सी थोड़ी टेढ़ी है,
एक पाया उसका छोटा है
मेरे दोस्त की कुर्सी अच्छी है,
उसपे वो कपड़े रखता है।
सोच रहा हूँ मांग लूँ उस से,
कपड़ा तो मै भी हूं पहनता
कुर्सी मिल गयी, पाये बराबर
कलम नयी है, स्याही चका-चक।
आज लिखूँगा ऐसा मैं,
कि नाम मेरा गुलज़ार बनेगा
खिड़की देखी काग़ज़ को,
आजा राजा निकालते हैं हम।
निकल गए बेशर्मी से वो,
हँस के बोले
"अबे तुझ जैसा
गुलज़ार बनेगा" ?