वो शायद मैं हूँ
वो शायद मैं हूँ
ख़्वाबों के घर की छत पर खड़ी मैं
अरमानों की तितलियों को उड़ाती थी,
मगर एक दिन अचानक उनमें से
जो एक तितली लौट आती है
वो शायद मैं हूँ
जो उड़ने से डरती हूँ
पर मेरे अरमान इतने कमज़ोर नहीं
कि अपनी सपनों की उडान भी ना भर सकें
बस बहुत हुआ मेरे अंदर के हौसले ने ही
मुझको हौसला दिया
ओर इस बार मैंने उस तितली को
आसमान से मोहब्बत करना सिखा दिया
कुछ नहीं किया बस उसको
बिना ख़्वाब क्या है ज़िन्दगी ये बता दिया
अब वो उड़ती है सपने सच करती है
और मैं अब उस ख़्वाबों के कमरे की
बालकनी में नहीं
ख़्वाबों के मकान के अंदर रहती हूँ।