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Rajnishree Bedi

Abstract

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Rajnishree Bedi

Abstract

उघड़े रिश्तों को

उघड़े रिश्तों को

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उधड़े रिश्तों को

उधड़े जख्मों को

सीते सीते, थक गई हूँ मैं,

न शुरू है, न अंत

बस, इसको बारीक से बारीक।


तुरपन से जोड़ने की

नाकाम कोशिश, करते करते 

अपना कीमती जीवन

दूसरों के लिए जी गई,

पता ही न चला।


दिल के इतने टुकड़े हुए

की हर जगह पैबन्द ही पैबन्द

और कितने पैबन्द लगाऊँ

अब तो जगह भी रिक्त नहीं है,


हर तरफ गिले शिकवों के

धागे ही धागे,

आपस मे उलझ कर

सांसों की डोर को 

क्षीण कर रहे हैं।


न जाने, पक्की तुरपन के

ये घिसे हुए धागे 

कब छलनी हो जाऐं

और बिन जी हुयी ज़िन्दगी को,

तार-तार कर दें।


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