तू कैसे खुद को इंसान कह सकता है
तू कैसे खुद को इंसान कह सकता है


तू आँखों से हैवानियत
टपकाता है
तू सोच से हमको खिलौना
सोचता है
कैसी है ये जवानी
जो एक मासूम का शिकार
कर लेता है
और तू फिर भी खुद को
इंसान कहता है
धिक्कार है ऐसी मर्दानगी पर
जो रक्षा नहीं तू नोच खाता है
शर्म आती है तेरी माँ-बहनों को
तुझ पर
जो घर में शेर और बाहर भेड़िया
बन जाता है
और तू फिर भी खुद को इंसान
कहता है
पूछती हूँ आज मैं तुझ से
क्या है तेरी रगों में विष?
कहती हूँ में आज सबको
दफ़ना दूंगी तेरी साज़िशों को
तू आज जितना दर्द दिया है
तुझे उतना ही वाक़िफ़ कराऊँगी
तूने आज जितने क़त्ल किये है
तुझे ज़िंदा जलाऊँगी
हर उस मासूम की चीखें
तेरे क
ानों में गूजेंगी
हर उस मासूम के खून से
तेरी मौत लिखूंगी
कह रही हूँ आज सबसे
तमाशा देखना बंद करो
बता रही हूँ सरकार को
अब तो इन्साफ करो
दे रही हूँ चेतावनी
अब तो इनका सर्वनाश करो
कह देती हूँ आज इस दुनिया से
मंदिर में आरती, मस्जिद में नमाज़
अब खुश ना होंगे अल्लाह और
भगवान
गुस्से में है आज धरती माँ भी
उन्ही की गोद में चीख रही है
आज हर बेटी भी
अब अगर कुछ ना किया तो
खुद करेंगे इन्साफ भी
ज़रूरत पड़ी तो साथ में करेंगे
विनाश भी
फिर मत सीखाना अपना कानून
तब बनाएँगे खुद की राह भी
कमज़ोर नहीं जो सह लूँ
तेरे वहशी पने के अत्याचार को
तेरे ही खून से लिखूंगी
तेरी दरिंदगी की दास्तान को ..