स्वच्छंद कविता दिल की कलम से अहसास के मोती कागज पर बिछा कर समाज के समक्ष
स्वच्छंद कविता दिल की कलम से अहसास के मोती कागज पर बिछा कर समाज के समक्ष
शीर्षक-समर्पण
कान्हा तेरा दीदार चाहूँ प्रतिक्षण तुझे पुकारूँ आठों याम,
जो कह दिया वह शब्द थे, जो नहीं कह सके वो अनुभूति थी l
और, जो कहना है मगर कह नहीं सकते,
वो मर्यादा है पत्तों सी होती है कई
रिश्तों की उम्र आज हरे, कल सूखे
डोर श्याम मुरारी से जोड़, हम रिश्ता जोड़े बनवारी से,
रिश्ते निभाना सीखें, रिश्तों को निभाने के लिए,
कभी अंधा, कभी गूँगा, और कभी बहरा होना ही पड़ता है ।
श्याम तेरी प्रीत निभाने में तानो को सहना पड़ता है।
बरसात गिरी और कानों में इतना कह गई !
गर्मी हमेशा किसी की भी नहीं रहती।
नर्म लहजे में ही अच्छी लगती है जिंदगी।
कान्हा तेरे दर्शन की प्यास में मौत का खौफ तड़पाता है।
तेरे मिलने से पहले जन्म कहीं व्यर्थ न हो जाए
इस बात से मन घबराता है।
दस्तक का मकसद, दरवाजा खुलवाना होता है, तोड़ना नहीं l
घमंड किसी का भी नहीं रहा,
टूटने से पहले गुल्लक को भी लगता है कि सारे पैसे उसी के हैं
माटी की देह का गुमान न कर बंदे, ये स्वांस मिले है जीने के लिए
श्याम की भक्ति कर निरन्तर,
दिल कभी किसी की बात पर, कोई मुस्कुरा दे, बात बस वही खूबसूरत है।
थमती नहीं, जिंदगी कभी, किसी के बिना ।
मगर, यह गुजरती भी नहीं, कान्हा के बिना ।
जैसे जल बिन मीन राधे बिन बंसी न बजे वैसे कान्हा बिन तरसे मेरे नैन
प्रतिदिन तुझे देखने खोजूं भव सागर में, बाट जोहती हूँ साँवरे समा जा मुझ में
बंद कर लूँ नैन।