स्त्री
स्त्री
तम-रूपी वीरान कुटिया मे
वो दीप प्रज्वलित बन जल जाती है
बंजर धुँधलाती भूमि पर
वो वर्षा शीतल बन बरस जाती है
कटाक्ष कटीली झाड़ियों मे
वो संजीवनी अमृत बन जाती है
स्त्री है, वो सृष्टि रचियता बन जाती है
सफलता पाने के मार्ग पर
कदम फूँक-फूँक रखती है
समाज के बिछाएं काँटों पे
मुस्कुरा कर संघर्ष करती है
अटल, स्वाभिमानी, आत्मविश्वासी
वो स्वयं विसर्जित हो जाती है
संपूर्ण मोह का त्याग कर
वो मणी-तारा छू आती है
स्त्री है, वो सृष्टि रचियता बन जाती है
उसके बढ़ते कदमों को
ज़जीरों से जकड़ना चाहते है
पथभ्रष्ट कर उसको हम,
जमीन मे धँसना चाहते है
पर, वो पक्षी उन्मुक्त गगन की
निरंतर बढ़ती जाती है
हर सफल प्रयास करके
वो चाँद छूना चाहती है
स्त्री है, वो सृष्टि रचियता बन जाती है
चंचल, निर्मल, शीतल होकर
निरंतर बहती जाती है
मार्ग के कंकड़-माटी को,
वो वात्सल्य-प्रेम से दुलारती है
सभी बाधाओं को पार कर
हिमालय चोटी चढ़ जाती है
वो जीत हासिल कर जाती है
स्त्री है, वो सृष्टि रचियता बन जाती है।