स्रोतस्विनी माँ कावेरी
स्रोतस्विनी माँ कावेरी


कभी सौम्य से अंगड़ाई लेती हुई,
कल कल बहती थी,
आत्मा सिहर उठा है आज तेरे गर्जन से।
पर्वतों को चीरती अविरल बहती जैसे
झूमती नाचती चली है समाने तू सिंधु से।
इसे तेरा विकराल रूप कहें या
जन मानस पर तेरा स्रोत प्
रखर।
मानो प्रचंड लहरों से तू दे रही है
बर्षों की यातनाओं का उत्तर।
दूषित अपनी काया को तू
निर्मल करने चली है निरंतर गिरती मेह से।
पर हे माता, तेरे सन्तान औंधे मुंह पड़े हैं बेबस से।
और त्राहि त्राहि है हर तरफ तेरे जल तांडव से।