सफ़र - इस मिट्टी से उस मिट्टी
सफ़र - इस मिट्टी से उस मिट्टी


बढ़ता रहा मैं तरक्की की राह पर,
छूट गया पीछे गाँव कहीं मेरा,
बदल गई सुबह की मिट्टी की वो खुशबू,
जिस दिन बदल गया मेरा रैन बसेरा,
मिट्टी का था आंगन, महक थी फूलों की,
तकते थे हम राह सावन के उन झूलों की,
संस्कृति हमारी मैने सीखी अपने गाँव में,
परम्परा का अर्थ जाना माँ के आंचल की
छांव में,
रीत और रिवाजों से जुड़ते थे हम,
मेले और उत्सवों में खो जाते थे ग़म,
परम्परा शहर की कुछ अलग सी है,
हरदम बस कुछ पाने की तलब सी है,
ना समय है मेरा ना अपने हैं मेरे,
परम्परा शहरों की अजब सी है,
संस्कृति ढल गई यहां नए आकार में,
ढल गए हम भी नए आचार विचार में,
जाने किस बात का होने लगा है गुरूर मुझे,
अब लगने लगा है गाँव मेरा दूर मुझे,
चाहे कितना ही रंग जाऊँ इस शहर के रंग में,
अपने गाँव का रहता है हरदम कुछ सुरूर मुझे!