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Manish Choudhary

Abstract

4.5  

Manish Choudhary

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सिसकियों से

सिसकियों से

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और फिर निकला न कुछ मेरे लबों से

इक दफ़ा जो बात की ख़ामोशियों से


चल रहा हूँ मैं अकेला ही सफ़र में

रास्ता भी पूछता हूँ रास्तों से


चीखते थे ग़म मेरे आँखों से मेरी

चीख की गर्दन दबा दी कहकहों से


किस तरह से मारते हैं ख़्वाहिशों को

इक हुनर ये सीखना है क़ैदियों से


भर चुका तन्हाई से ये शहर सारा

और नदी भी भर चुकी है कंकड़ों से


काट लाया दश्त से मैं इक शज़र को

घर का दरवाजा बना कितने घरों से


जल्द ही इस पर लिखूँगा गीत कोई

एक धुन तैयार की है सिसकियों से।


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