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Venkatesh Shetty

Drama

4.9  

Venkatesh Shetty

Drama

शून्य

शून्य

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आ‌ज फिर कुछ सवाल करने,

शून्य से कुछ आस रखा हूं।

बेनाम यादों की मशहूर किताब

आज भी अपने पास रखा हूं।


जितने भी पल बीत गए हैं,

उनको फिर से जी रहा हूं।

अकेले बैठे बैठे ही मैं

गम के जाम पी रहा‌ हूं।


किसने दिया और कितना दिया,

उसका हिसाब भूल चुका हूं।

पर कितना खोया ये याद है मुझको,

सफर में खाली हाथ जो खड़ा हूं।


बिस्तर पे, चद्दर ओढ़े हुए मेरी

उम्मीद गहरी नींद सोयी है।

डर ने दरवाज़े पर दस्तक दी है

और मेरे हौसलों ने

अपनी मंजिल खोयी है।


आज फिर उसी कमरे में बैठ कर

मैंने असल जिंदगी खोयी है।

आज फिर उसी कमरे में बैठ कर,

मेरी चहेती जिंदगी रोयी है।


माफ़ ना कर पाऊंगा

खुद को मैं कभी,

मेरे शरीर के हर बाल पर,

पापों का एक झाड़ लगा है।


और आज भी शुन्य में देखूँ तो

दिखता है कि अनगिनत मंजिलों की

आंखों में फिर एक नया ख्वाब जगा है।


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