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Sharad Kumar

Abstract

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Sharad Kumar

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सहचर

सहचर

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जीवन के गतिमान पथों पर

तुम साहस बनकर संग चलते हो।

मैं बनकर मेघ बरसता हूँ,

तुम अम्बर बनकर संग रहते हो।


किसने जानी हैं कर्मों की सीमा ?

किसने गर्भ समय का छाना है ?

कौन सुधा पा सका सुख की सदा ?


किसने विस्तार ह्रदय का जाना है ?

भावनाओं में गोते लगाता हूँ मैं,

तुम शब्दों में ढलकर कहते हो।

धाराओं में बंटता जाता हूँ मैं,

तुम सरिता बनकर संग बहते हो।


जितना कुछ तुमसे माँगा है मैंने

तुमने उस से बढकर लुटाया है।

कष्टों के भयावह भँवर में मैंने,

देव ! आश्रय तुम्हारा पाया है।

मानव हूँ स्वार्थ भरा है मुझमें,


फिर भी तुम अपनी प्रकृति

नहीं बदलते हो।

मेरी यात्राएं कैसी भी हो प्रभु-

तुम हाथ पकड़ कर संग चलते हो।


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