STORYMIRROR

Priti Raghav Chauhan

Abstract

4  

Priti Raghav Chauhan

Abstract

सभ्य वन

सभ्य वन

2 mins
672


मेरे समक्ष है गगन खुला

मैं गमले में कर रही हूँ कोशिश 

खुलने की गगन सम

घर को वन बनाने की जिद है 

एक वन जो सभ्य हो

करीने से दीवारों पर गमलों में उगे

छत पर भी उगे परन्तु सरिस्का सम लापरवाह सा न हो 

एक जंगल जो फूलों से भरा हो

तितलियाँ हों जिसमें 

हों जुगनू बेशुमार 

नीलाभ-आभा लिये 

अपने परों को जोर-जोर हिलाते 

लम्बी नली वाले संतरी फूलों 

से लटके - ढेरों गुंजन पक्षी हों

हो घर में वन सघन

अपने इस प्रयत्न में 

क्या-क्या न बो डाला 

गमलों में

तोरई मरजानी जो 

जमीन पर हरहराती है

गमले में दो फुट की मॉस पर 

मरियल सी इतरा रही हैं 

करेले की बेल 

बाल्टी के भीतर सात 

कुन्डली मारे बैठी है 

मोगरा, अपराजिता, चमेली

सबकी सब भूलकर बढ़ना

बन गई हैं बौनी झाड़ी

गुड़हल बौराता है 

कलिका बन झर जाता है 

कितने ही फाइकस 

बने हैं जस के तस

जटरोफा भी नहीं बढ़ा 

कट्टे में बैठा है ठस

केली बिन कली

चाँदनी और गंधराज 

भी लगते हैं नाराज

बेलें जो बढ़ने का बहाना ढूंढती हैं 

छत पर पातीं हैं स्वयं को बेसहारा 

कड़ी धूप और तेज झंझावातों में 

कितना कठिन है 

गमलों में हो पाना वन

बॉलकनी में रखे गमले 

खुश तो हैं मगर वो भी कानन सम नहीं 

यहाँ हवा और धूप नपी तुली आती है 

हर पौधे संग एक दो श्यामा तुलसी 

मुस्कुराती मिल जाएंगी

लता खिड़की पर तो चढ़ आई

पर काँच का सहारा ले 

कितना बढ़ पाएगी

कितना कठिन है 

सिर्फ हौसलों के संग 

गमलों में उगाना वन

बैठक में रखे गमले 

तो बिल्कुल उन बड़े घरों के 

बिगड़ैल बच्चों से हैं 

 जो अधिक लाड़ प्यार 

के चलते हो जाते हैं बोनसाई से 

यहाँ लगता है धूप भी जरूरी है 

उतनी ही जितनी लाड़ की छाँव 

अपनी आँखों के आगे 

झरते देखना शाख से पात

पानी में शनैः शनैः बढ़ते देखना

पौधौं की अयाल सी गात

सचमुच कितना है कठिन 

गमलों में उगा पाना वन

गमलों में सभ्यता है 

विस्तार कहाँ?? 

नीलाभ आभा वाली 

मरमर चिड़िया, जुगनू, रंगीन तितलियाँ 

सब धरा के वन से जुड़े हैं 

इसीलिए अपने घर के बाहर 

 जमीन पर भी बो रखा है वन

बॉलकनी से बढ़ाकर हाथ

तोड़ लूँगी कच्चे आम

और फिर एक रोज़ छत से ऊँचे हो

जाएगें पारिजात और स्प्रूस

और छत पर रखे गमलों में उगी

अपराजिता और चमेली, 

चंपा और मोतिया 

बन जाएंगे इनका गलहार 

बस तब तक यूँ ही गमलों 

बचाकर रखूँगी !


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract