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Priti Raghav Chauhan

Abstract

4  

Priti Raghav Chauhan

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सभ्य वन

सभ्य वन

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मेरे समक्ष है गगन खुला

मैं गमले में कर रही हूँ कोशिश 

खुलने की गगन सम

घर को वन बनाने की जिद है 

एक वन जो सभ्य हो

करीने से दीवारों पर गमलों में उगे

छत पर भी उगे परन्तु सरिस्का सम लापरवाह सा न हो 

एक जंगल जो फूलों से भरा हो

तितलियाँ हों जिसमें 

हों जुगनू बेशुमार 

नीलाभ-आभा लिये 

अपने परों को जोर-जोर हिलाते 

लम्बी नली वाले संतरी फूलों 

से लटके - ढेरों गुंजन पक्षी हों

हो घर में वन सघन

अपने इस प्रयत्न में 

क्या-क्या न बो डाला 

गमलों में

तोरई मरजानी जो 

जमीन पर हरहराती है

गमले में दो फुट की मॉस पर 

मरियल सी इतरा रही हैं 

करेले की बेल 

बाल्टी के भीतर सात 

कुन्डली मारे बैठी है 

मोगरा, अपराजिता, चमेली

सबकी सब भूलकर बढ़ना

बन गई हैं बौनी झाड़ी

गुड़हल बौराता है 

कलिका बन झर जाता है 

कितने ही फाइकस 

बने हैं जस के तस

जटरोफा भी नहीं बढ़ा 

कट्टे में बैठा है ठस

केली बिन कली

चाँदनी और गंधराज 

भी लगते हैं नाराज

बेलें जो बढ़ने का बहाना ढूंढती हैं 

छत पर पातीं हैं स्वयं को बेसहारा 

कड़ी धूप और तेज झंझावातों में 

कितना कठिन है 

गमलों में हो पाना वन

बॉलकनी में रखे गमले 

खुश तो हैं मगर वो भी कानन सम नहीं 

यहाँ हवा और धूप नपी तुली आती है 

हर पौधे संग एक दो श्यामा तुलसी 

मुस्कुराती मिल जाएंगी

लता खिड़की पर तो चढ़ आई

पर काँच का सहारा ले 

कितना बढ़ पाएगी

कितना कठिन है 

सिर्फ हौसलों के संग 

गमलों में उगाना वन

बैठक में रखे गमले 

तो बिल्कुल उन बड़े घरों के 

बिगड़ैल बच्चों से हैं 

 जो अधिक लाड़ प्यार 

के चलते हो जाते हैं बोनसाई से 

यहाँ लगता है धूप भी जरूरी है 

उतनी ही जितनी लाड़ की छाँव 

अपनी आँखों के आगे 

झरते देखना शाख से पात

पानी में शनैः शनैः बढ़ते देखना

पौधौं की अयाल सी गात

सचमुच कितना है कठिन 

गमलों में उगा पाना वन

गमलों में सभ्यता है 

विस्तार कहाँ?? 

नीलाभ आभा वाली 

मरमर चिड़िया, जुगनू, रंगीन तितलियाँ 

सब धरा के वन से जुड़े हैं 

इसीलिए अपने घर के बाहर 

 जमीन पर भी बो रखा है वन

बॉलकनी से बढ़ाकर हाथ

तोड़ लूँगी कच्चे आम

और फिर एक रोज़ छत से ऊँचे हो

जाएगें पारिजात और स्प्रूस

और छत पर रखे गमलों में उगी

अपराजिता और चमेली, 

चंपा और मोतिया 

बन जाएंगे इनका गलहार 

बस तब तक यूँ ही गमलों 

बचाकर रखूँगी !


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