सब कुछ कहा नहीं जाता
सब कुछ कहा नहीं जाता
रोज़ निकल पड़ता हूं घर से
ख़ुशियों की तलाश में
देख घोर अंधेरा भर
नहीं घबराता मैं
थक जाता हूँ
पर रुकना नहीं चाहता मैं
पैसों के इस खेल में
छूट जाते है कई कहे
अनकहे अपने पीछे
फिर भी रोज़ निकल पड़ता हूँ मैं
बुलंद इरादा कर के
की एक दिन होगी ये
सारी दुनिया मेरे कदमों में
हर रोज़ एक कदम बढ़ता हूँ
अपनी कामियाबी के पीछे
जहाँ रुका वह दोस्त बन गए
जब चला तो नक़ाब उतर गए
चलते चलते आ चूका हूँ मैं
ख़ुशियों के इस समुन्दर में
जो साथ है वो भी मेरे अपने है
और जो बदल गये वो भी मेरे अपने थे