सांझ का प्यार
सांझ का प्यार
जब समेट रहा था मैं खुद का अस्तित्व
जैसे लौटना था नीड़ को, जहां से
सुबह को निकला था कुछ पा
जाने के उत्साह में, दिन भर दौड़ता रहा
सर पर धूप कदमों को रोकती, पर हवाओं ने
जैसे सहारा दिया, कुछ पा लेने की ललक सब छीन
रही थी
राह के दरख्तों ने खामोशी ओढ़ ली थी
मेरी याचना मुझे ही कोसती रही
जहां भी नजर डालो याचक ही थे सब
हाँफता सा दौड़ रहा था
क्या पाना था मुझे?
क्या ललक थी?
अनिर्णीत मेरी दौड़ मुझपर हँस रही थी
एक आवाज आती अंतर से
नहीं, कुछ बाकी है
जो पाना है, थोड़ा और चल
भटक गया था मैं
पुरुष होकर थक गया था मैं
मान लिया अब अवसान आ गया
मेरी दौड़ का विराम आ गय
ा
नहीं पा सकता जो मुझे अभीष्ट था
यही पल सबसे क्लिष्ट था
पैरो में अब दम कहां था जो दौड़ लेता कुछ और
बैठ गया एक ढेर पर जो चुभ रहा था मुझे
सपनों के बिखरे कांच की चुभन
सांझ हो रही थी
बस सब बीत जाने को है
क्या यही मेरा अंजाम था
या कोई विराम था
तभी वो आए जिसे दूर कही जाना था
अपने दिन को जी भर कर निभाना था
उनका रुकना, मुड़ कर देखना मुझे खींच ले गया
चालीस के उस फेर से बचपन की और
उनके संग साथ से दौड़ कुछ आसान सी हुई
मंजिल अब साथ थी जब निगेहबान वो हुई
ये सांझ का प्यार चमत्कार हो गया
मेरा जीते रहना अब साकार हो गया
हसरत है बस एक कि तुम साथ बस रहो
सांझ के इस प्यार को पूरी रात ले चलो।