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कुमार गौरव मिश्रा

Abstract

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कुमार गौरव मिश्रा

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साधू की अपनी धुन

साधू की अपनी धुन

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वो अपनी ही धुन में चला जा रहा था,

बड़ी ही निडरता से बढ़ा जा रहा था,

क्या धूप, क्या बादल ?

क्या बारिश, क्या आंधी ? 

बस उनके साथ ही बहा जा रहा था। 


शरीर कुछ झुका हुआ,

पर वही तेज चेहरे पर,

एक कमंडलु, एक लकुटिया

और एक लंगोटिया तन पर,

न कुंठा, न हर्ष, न शोक, न द्वेष

'सर्वे भवंतु सुखिन:' मन में बसा जा रहा था। 


कब चला ? कहाँ चला ?

सच में नहीं पता है उसको,

'मंज़िल तक पहुँचने से पहले,

कुछ दे जाऊँगा जग को।


यही इच्छा लिए मन में

आगे बढ़ा जा रहा था,

अभी भी रुका नहीं,

आगे बढ़ा जा रहा है,

बढ़ा जा रहा है।


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