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कुमार गौरव मिश्रा

Abstract

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कुमार गौरव मिश्रा

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हिस्सेदारी

हिस्सेदारी

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भूल गयी ?

जब तुम थी नितांत अकेली -परित्यक्ता,

ले गया था तुम्हें मैं उन बादलों के ऊपर,

उन बाग-बावड़ियों के बीच, 

तुम्हारे हाथ को पकड़े हुए,

दिखाया था तुम्हें इन्द्रधनुष

अपनी उंगलियों से फेरकर।


भागे थे दोनों चुराकर अंडे पक्षीराज के,

कुरेदा था बरगद की छाल को,

पगडंडियो से होते हुए 

बांस की छोटी पुलिया को मांचते हुए,

ले गया था तुम्हें उस निर्जन वन में। 


उन सूखे पत्तों की खर-खर की आवाज़,

जो थी मात्र साधन उस साध्य की

जिसका पड़ा था बीज तुम्हारे सुसुप्तांर्तमन में।

बना था मैं पहला श्रोता  

उस विचार-वमन का 

जिस पर नहीं थी मेरी कोई हिस्सेदारी।


सुनो तुम पक्षीराज !

और तुम भी सुनो ऐ बादल !

मेरी दशा पर रोना नहीं तुम,

क्योंकि अब चीजे बदलेंगी।

अब कहानी मैं लिखूंगा,

कवितायें भी मेरी होंगी।


मैं लिखूंगा अपने लिये,

तुम्हारे लिये 

पर मेरी रचनाओं में

तुम सब की हिस्सेदारी

बराबर की होगी।


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