रिसते- रिश्ते
रिसते- रिश्ते
न जाने कितनी उम्मीदों का पेट कटता है,
न जाने कितनी उम्मीदों का वेट कटता है,
फीके से रह जातें हैं न जाने कितने त्योहार,
इस एक सपने को करने को साकार,
एक- एक पाई जुड़ती है,अपनी ज़मीं,
अपना आसमां बनाने के वास्ते,
पैसे फिर भी जुड़ जातें हैं,
बस मकां तक पहुँचते- पहुँचते,
रिश्ते रिस जाते हैं,
अपना मकान तो हासिल हो जाता है,
पर इस होड़म होड़ में घराने कहीं पीछे छूट जातें हैं,
और घर होते हुए भी हम घर पहुंच नहीं पाते।